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मेकलसुता

15 अगस्त 2024

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अगला पड़ाव बंजर टोला सिवनी संगम मिल जाता है।।
तन्वंगी सिवनी मिलन देख ये रोम-रोम खिल जाता है।।
धीरे-धीरे नौकाविहार मैं पहुँच गया वो धुवाँधार।।
खुद से रस्ते है काट रही पानी में इतनी तेज धार।।


ऊपर नीचे दायें-बायें टकराती जोर किनारों से।।
है एक धार में सौ धारें कटती हैं देखो वारों से।।
है शोर भयंकर झर-झर का धरती के पट है खोल रहे।।
इक फूल बसंती महक उठा नभ में चातक हैं डोल रहें।।


है प्रफुल्लित मन मेरा अब कुछ कहा जाता नहीं।।
चढ़ चलें पर्वत यहाँ का अब रहा जाता नहीं।।
था रोक नहीं पाया खुद को मैं दौड़ गया चट्टानों पे।।
नीचे देखा थम गई साँस मैं था शिखरों के कानों पे।।


पर्वत-पर्वत रास्ता ढूंढू नीचे धरती पे आनें को।।
मौसम बदला बादल आये थे आसमान में छाने को।।
ना मिला कहीं रस्ता मुझको ना मिला कहीं भी एक मोड़।।
मैं कूद पड़ा चट्टानों से गिरते-फिरते पेड़ों को तोड़।।


जब साथ मिली टोली मुझको बतलाया सारी बातों को।।
कैसे-कैसे थे मोड़ मिले कैसे झेला हालातों को।।
उन सात घिरे परिवारों से था खूब मिलाया हाँथों को।।
मैं निकला नई प्रभात घड़ी और पहुँचा घर में रातों को।।

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