मेरा कृतित्व
अक्षर हैं ये बिखरे कंचों की तरह।
समेट रहा हूं, इन्हें सीपियों की तरह।
उड़ती हुई तितलियों सरीखे लग रहे हैं।
मचलते हुए शब्द जेहन में टंग रहे हैं।
घुमड़ते-उमड़ते बादलों की तरह खयाल हैं मेरे।
दरिया से भी बड़े-बड़े सवाल हैं मेरे।
कभी जत्थे की तरह, कभी कल्पनाएं बिखरी सी हैं।
कभी धुध सी छाई, कभी उजली-निखरी हैं।
घटाएं घनघोर हैं, कविता बनने को आतुर।
उड़ेली स्याही की तरह
एक्वेरियम में तैरती-मचलती मछलियों की तरह,
मेरी कविताएं मचल-कूद रही हैं।
घटाएं घनघोर हैं, कविता बनने को आतुर,
चमकती बिजली से ये सजती-संवरती है।
कोरा कागज है, मैदानी धरती की तरह,
बहती धाराएं उकेरती इबारत, किसी रचना की तरह।
कभी गायब हो जाती रचना, लक्ष्य तक जाते-जाते,
नदी कहीं खो जाती है, सागर तक जाते-जाते।
गर पहुंच जाए सागर तक तो, खो देती है अपना अस्तित्व,
इसी तरह कभी उभरा, कभी दबा-कुचला है मेरा कृतित्व, मेरा कतित्व।
- जगदीश यायावर