किसी जमाने एक कहावत हुआ करती थी, नेकी कर दरिया में डाल। कहावत तो आज के समय में भी खूब चलती है, लेकिन अब मानो इससे कोई इत्तेफाक नहीं रखता। और जमाने ने इसे तोड़ मरोड़कर कुछ ऐसा बना दिया है, कि नेकी कर बड़े बड़े बैनर पोस्टर छपवा और शहर के मैन चौराहे पर लगवा दे। क्योंकि जब तुम्हारा अच्छा काम दिखेगा, तभी तो कोई उसकी चर्चा करेगा। कमोबेश अपना काम दिखाकर खुद को बेचने की इस परिपाटी का इन दिनो बखूबी निर्वहन करती दिखाई दे रही है देश की सबसे बड़ी
राजनीति क पार्टी
भाजपा ।
थोड़ा पीछे चलिए, करीब दो साल पीछे। बात उन दिनों की है, जब लोकसभा
चुनाव के लिए सियासी
प्रचार प्रसार अपने चरम पर था। और देश का हर वर्ग इस चुनावी माहौल में रंगा हुआ था। हालात कुछ ऐसे बन गये थे, मानो देश पहली दफा चुनावी माहौल को जी रहा हो। और बदले हुए इस चुनावी अंदाज का प्रमुख केंद्र थे, भारतीय जनता पार्टी की तरफ से पीएम इन वेटिंग नरेंद्र मोदी। चाय पर चर्चा से लेकर प्रचार की थ्री डी तकनीक तक। हर कुछ देश और देशवासियों के लिए बिल्कुल नया था। खुद को एक नए अंदाज में जनता के बीच ले जाने का फायदा भी भाजपा को चुनावी नतीजों में बखूबी मिला। नतीजा भी ऐसा जिसके बारे मे में खुद भाजपा ने ही नहीं सोचा था।
वक्त बदला और वक्त ने अपने साथ बहुत कुछ बदला। लेकिन बदलाव की इस बयार के बीच भाजपा ने कुछ बदलने नहीं दिया, तो वह थी उसकी प्रचार की शैली। जो कि बीतते वक्त के साथ साथ और धारदार, आकर्षक और आक्रामक होती चली गई। हालांकि यह सब कुछ नया नहीं था, भाजपा के लिए। इसके पहले एक आक्रामक विपक्ष के तौर पर सारे देश के सामने वह अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुकी थी। लेकिन यह आक्रामक शैली उसके प्रचार से नहीं बल्कि उसके विरोधियों की बखियां उघेरने के लिए थी। और 2014 के चुनाव ने भाजपा को यह बात अच्छी तरह से समझा दी, कि उसे खुद का राजनीतिक कद बढ़ाने के लिए सिर्फ दूसरों की बुराई से ही काम नहीं चलेगा, बल्कि खुद की अच्छाई का ढिंढोरा पीटना भी जरूरी है।
शायद यही वजह है, कि उसने सियासी प्रचार को अपना प्रमुख सियासी एजेंडा बना लिया। भाजपा के सियासी एजेंडे की झलक उसकी सरकार चलाने की पॉलिसी में भी खासे तौर पर देखने को मिल रही है। जहां पर सरकार की किसी भी योजना और उसके कारण देश और उसे हुए मुनाफे की ब्रांडिंग कुछ उस कदर की जाती है। कि देखते ही देखते वह कब राष्ट्रस्तर पर चर्चा का विषय बन जाती है, कोई समझ नहीं पाता। और इसका यदि किसी को फायदा मिलता है, को वह है सरकार। ऐसे में इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है, कि भाजपानीत एनडीए सरकार अपनी ब्रांडिंग पॉलिसी का किस कदर फायदा उठा रही है।
वैसे यदि हम ब्रांडिंग की बात करें तो यह सिर्फ सरकारी योजनाओं तक ही सीमित नहीं है। बल्कि यदि अन्य पहलुओं पर गौर किया जाए तो सामने आता है, कि नरेन्द्र मोदी नेतृत्व में भाजपा और एनडीए सरकार का हर कदम एक इवेंट को दर्शाता है। फिर भले ही हम स्वच्छता अभियान सरीखे आंदोलन पर गौर करें, या फिर योग के प्रति जागरुकता को लेकर शुरू की गईं उसकी कवायद को। इसके अलावा हम अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बड़े बड़े इवेंट कार्यक्रम को भी हम इस कड़ी में रख सकते हैं। जहां पर प्रचार प्रसार के लिए ऐसी कोशिशें की गई, कि इससे पहले हिन्दुस्तान की आवाम ने शायद ही इस तरह की स्थितियों का सामना किया हो।
वैसे सिर्फ भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ही प्रचारमोनिया से ग्रसित नहीं है। यदि देखा जाए, तो बीतते समय के साथ भाजपा और उसकी रणनीतियो में प्रचार प्रसार की गतिविधियों ने पूरी तरह अपनी जड़ें जमा ली हैं, जिससे कि राज्य नेतृत्व भी अछूते नहीं रहे। और इससे जुड़े उदाहरण गाहे बगाहे ही नहीं बल्कि अक्सर सामने आते ही रहते हैं। बहरहाल कहा कुछ भी जाए, लेकिन देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी और देश के साथ करीब आधे राज्यों में शासन कर रही भाजपा इन दिनों पूरी तरह प्रचार के घोड़े पर सवार है। और अब देखना यह है, कि उसकी इस ब्रांडिंग पॉलिसी का उसके लिए सियासी तौर पर कितनी मुफीद साबित होती है।
मध्यप्रदेश में भी छाप की आस !
जरा इन दिनों उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ महाकुंभ पर गौर कीजिए। मौजूदा वक्त में यह आयोजन एक ऐसी तस्वीर पेश कर रहा है, जो कि इस धर्म के कार्यक्रम को धार्मिक कम और सरकारी ज्यादा दर्शा रही है। आयोजन से जुड़ी मजे की बात देखिए, कि सिंहस्थ के प्रचार की सामग्रियों में 50 फीसदी हिस्सा जहां महाकाल, साधु संत और शिप्रा नदी है, तो बाकी के 50 में खुद सीएम शिवराज सिंह का फोटो अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं।
बात करीब दो महीने पुरानी है। पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान का कहना था, कि राजनीति में मार्केटिंग काफी जरूरी है। क्योंकि यदि काम करना है तो दिखाना तो पड़ेगा ही क्योंकि यदि काम नहीं दिखाया तो जनता को पता कैसे चलेगा कि सरकार कुछ कर रही है। नंदकुमार सिंह चौहान तो उस वक्त ये बात बोलकर चुप हो गए, लेकिन उनकी इस बात ने प्रदेश के पटल पर एक बड़ी बहस को छेड़ दिया। कि क्या आखिर सूबे की भाजपा सरकार के लिए उसके काम और गुणवत्ता से बढ़कर उसका प्रचार प्रसार करना है।
खैर इस बात को यहीं पर छोड़ दीजिए, जरा इन दिनों उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ महाकुंभ पर गौर कीजिए। वैसे तो यह आयोजन धार्मिक है और उस वक्त से चला आ रहा है, जब सियासत और सत्ता का कोई अस्तित्व ही नहीं था। लेकिन मौजूदा वक्त में यह आयोजन एक ऐसी तस्वीर पेश कर रहा है, जो कि इस धर्म के कार्यक्रम को धार्मिक कम और सरकारी ज्यादा दर्शा रही है। उज्जैन में हो रहे इस कार्यक्रम के बड़े बड़े बैनर पोस्टरों से पूरा प्रदेश अटा पड़ा है। देश के सभी राज्यों के साथ विदेशों में भी इसका जमकर प्रचार किया गया। लेकिन मजे की बात देखिए, कि सिंहस्थ के प्रचार की सामग्रियों में 50 फीसदी हिस्सा जहां महाकाल, साधु संत और शिप्रा नदी है, तो बाकी के 50 में खुद सीएम शिवराज सिंह का बड़ा फोटो अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं। हालांकि सिंहस्थ के जरिए खुद की ब्रांडिंग करने का सरकार का यह फैसला बड़े स्तर पर उसकी किरकिरी की वजह बना लेकिन ये विरोध सरकार के मंसूबों को डिगा नहीं सका।
ये तो रही सिंहस्थ की बात। इसके अलावा यदि हम यदि राज्य सरकार की अन्य गतिविधियों पर नजर डालें तो वहां पर भी वह काम कम चर्चा ज्यादा की नीति ज्यादा अपनाती दिखती है। इस बात के उदाहरण के तौर पर आप सूबे में संचालित अटल ज्योति योजना को देख सकते हैं। प्रदेश में 24 घंटे बिजली प्रदाय के दावे के साथ सरकार की यह योजना भले ही 50 फीसदी सफल न हो सकी हो। लेकिन प्रदेश के पटल पर इसका ढिंढोरा कुछ इस तरह पीटा गया कि सूबे की 100 फीसदी जनता इससे वाकिफ हो गई। इसके इतर विभिन्न चुनाव प्रचार में सरकार द्वारा अपनाया जाने वाला आक्रामक प्रचार भी सरकार की इस नीति की बानगी भर है। जिसे अपना ब्रह्मास्त्र बनाकर जब सरकार अपनाती है तो विपक्षी दलों के सामने सियासी सरेंडर करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।