राज कुमार पाण्डेय
मैं बिहार का बेटा हूं। मैं बिहार के ग्रामीण परिवेश के एक साधारण परिवार में पला-बढ़ा हूं। हम गांव से निकले हैं. पगडंडियों से चलकर राजधानी में पहुंचे हैं. विगत कई बरसों से देश के विभिन्न राज्यों में रहने के अवसर ने हमें ज़िंदगी की छोटी-बड़ी परिस्थितियों को नज़दीक से महसूस करने का मौका दिया। उसी तजूर्बे को शब्दों में पिरोने का प्रयास।…. साथियों, नेक व ईमानदार बने रहने की कोशिश आज के हालात में ऐसी जीवन शैली कई संकट खड़ा कर देती है। मगर नैतिकता की डोर मजबूती से थामे हूँ। अकेला पड़ जाता हूं तो भी “तेरा मेला पीछे छूटा, राही चल अकेला” “हर फिक्र को धुएँ में उडाता चला गया” “जिंदगी कैसी है पहेली हाय… कभी तो हसाए…कभी ये रूलाए” ऐसे हि कुछ गाने कान में इयरफोन के सहारे ढाढ़स बढ़ाते है। अपने जीवन मूल्यों के साथ जिंदा रहने की कोशिश में अक्सर अपने भी बेगाने हो जाते हैं, अपमान या असम्मान भी झेलने की नौबत आ जाती है बिचलित तो होता हूं मगर जल्दी संभल भी जाता हूं।….. हमारा दिली लगाव जीवन पर्यंत खेत-खलिहान से रहेगा. मुख्यतः हम कलम के मजदूर हैं. हमारी मजदूरी का क्षेत्र, सीमाओं से परे पूरी दुनिया है. जहां कहीं की अवाम सामाजिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक गैर-बराबरी की शिकार है, मेरी कलम उन्हीं संघर्षरत अवाम के उद्देश्यों, उम्मीदों और लक्ष्यों के पक्ष में मजदूरी करने के लिये प्रतिबद्ध है.ज्यादा शब्द नहीं मेरे पास, जिंदगी को लुभाने के लिएहम तो जी रहे है बस, जिंदगी को आजमाने के लिए |जय हिन्द !! जय भारत !! जय बिहार