मेरी होती सिर्फ ये भाषा तो मैं चुप ही रहता
खुद में ही सीमित रहता सबसे मैं न कहता
सबसे पहले जान लो मैंने खुद से ही कहा है
तौल लूँ क्या हिंदी का ह्रदय में प्रतिमान रहा है
पाया है स्वर अपना मैंने इसी वेग में बहता
मेरी होती सिर्फ ये भाषा तो मैं चुप ही रहता
तुम भी जानो जब अंतर के भाव उमड़ हैं आते
नैनों का ये नीर भी तुम इस भाषा में ही बहाते
दूर देश में रहकर भी भाषा का भाष है रहता
मेरी होती सिर्फ ये भाषा तो मैं चुप ही रहता
अंग्रेजी अनिवार्य हुई है समझो इसे तपस्या
पर सोचो कब आई तुमको हिंदी में समस्या
है कंचन निज भाष मन विकट तपन को सहता
मेरी होती सिर्फ ये भाषा तो मैं चुप ही रहता
विश्व तुम्हारा हितग्राही है चलो क़दम मिलाकर
किन्तु भाष मिल जाएँ तो रख दो विश्व हिलाकर
पहल मेरी पहचान हमारी खुद से फिर हूँ कहता
मेरी होती सिर्फ ये भाषा तो मैं चुप ही रहता
(मेरी इस कविता का यह १० वां हिंदी दिवस है, संलग्न जेपेग में कैलीग्राफी भी देखें )