भय को न मारा जा सकता है न जीता जा सकता है, केवल समझा जा सकता है और केवल समझ ही रूपांतरण लाती है, बाकी कुछ नहीं। अगर तुम अपने भय को जीतने की कोशिश करोगे, तो यह दबा रहेगा, तुम्हारे भीतर गहरे में चला जाएगा। उससे कुछ सुलझेगा नहीं, बल्कि चीजें और उलझ जाएँगी।
जब भय उठे तो तुम उसे दबा सकते हो- भय को जीतने का यही अर्थ है। भय को तुम दबा सकते हो; इतने गहरे में दबा सकते हो कि तुम्हारी चेतना से वह बिलकुल गायब हो जाए। तब तुम्हें कभी उसका पता भी न चलेगा, लेकिन वह बेसमेंट में पड़ा रहेगा और अपना काम जारी रखेगा। वह तब भी तुम पर हावी होगा, तुम पर कब्जा करेगा, लेकिन ऐसे परोक्ष ढंग से कब्जा करेगा कि तुम्हें उसका पता भी न चले। लेकिन तब खतरा और भी गहरा हो जाएगा। अब तुम उसे समझ भी न पाओगे।
तो भय को जीतना नहीं है। न ही उसे मारना है। भय को तुम मार नहीं सकते, क्योंकि उसमें एक प्रकार की ऊर्जा होती है और कोई भी ऊर्जा कभी नष्ट नहीं की जा सकती। तुमने कभी देखा भय के समय तुममें एकदम से बड़ी ऊर्जा आ जाती है? ठीक जैसे क्रोध के समय ऊर्जा आ जाती है; वे दोनों एक ही ऊर्जा के दो आयाम हैं। क्रोध आक्रामक है और भय अनाक्रमक है। भय है क्रोध की गिनेटिव अवस्था और क्रोध है भय की पॉजिटिव अवस्था।
जब तुम क्रोध में होते हो तो तुममें कितनी ताकत आ जाती है, ऊर्जा भर जाती है! जब तुम क्रोध में होते हो तो एक बड़ी चट्टान भी उठाकर फेंक सकते हो; आमतौर पर उतनी बड़ी चट्टान तो तुम हिला भी नहीं सकते। क्रोध के समय तुम तीन-चार गुना ज्यादा शक्तिशाली हो जाते हो। उस समय तुम ऐसी कई चीजें कर सकते हो, जो क्रोध के बिना संभव ही नहीं है।
और भय के समय तुम इतना तेज भाग सकते हो कि ओलिंपिक खिलाड़ी भी ईर्षा करने लगे। भय से ऊर्जा पैदा होती है; भय ऊर्जा ही है, और ऊर्जा को कभी नष्ट नहीं किया जा सकता। अस्तित्व से ऊर्जा की एक चुटकी भी नष्ट नहीं की जा सकती। इस बात को हमेशा याद रखो, वरना तुम कुछ गलत कर बैठोगे।
तुम किसी भी चीज को नष्ट नहीं कर सकते, केवल उसका रूप बदल सकते हो। छोटे से कंकड़ को भी तुम नष्ट नहीं कर सकते। रेत का एक छोटा-सा कण भी नष्ट नहीं किया जा सकता। वह केवल अपना रूप बदल लेगा। पानी की एक बूँद को भी तुम नष्ट नहीं कर सकते। हो सकता है तुम उसे बर्फ बना दो या भाप बना दो, लेकिन वह मौजूद रहेगी। कहीं न कहीं वह रहेगी, इस अस्तित्व से बाहर तो जा नहीं सकती।
भय को भी तुम नष्ट कर सकते। और युगों-युगों से यही किया गया है- लोग भय को नष्ट करने की, क्रोध को, काम को, लोभ को और ऐसी कितनी ही चीजों को नष्ट करने की कोशिश करते रहे हैं। पूरी दुनिया इसी तरह कोशिश करती रही है, और परिणाम क्या हुआ? मनुष्य उथल-पुथल हो गया है। कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, सब कुछ वैसा का वसा है, बस चीजें उलझ गई हैं। कुछ भी नष्ट करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि पहली बात कुछ भी नष्ट किया ही नहीं जा सकता। तो फिर क्या करना है?
भय को तुम्हें समझना है। भय क्या है? कैसे उठता है भय? कहाँ से आता है? उसका संदेश क्या है? बिना किसी पक्षपात के उसमें झाँको, तभी तुम समझ पाओगे? अगर तुम्हारी पहले से ही धारणा बनी हुई है कि भय गलत है, कि भय नहीं होना चाहिए- 'मुझे भयभीत नहीं होना चाहिए' - तब तुम उसमें झाँक न पाओगे। भय का आमना-सामना तुम कैसे कर सकते हो? अगर तुमने पहले से ही निर्णय ले लिया है कि भय तुम्हारा दुश्मन है, तो उसकी आँखों में तुम कैसे झाँक सकते हो? दुश्मन की आँखों में कोई नहीं देखता। अगर तुम सोचते हो कि यह गलत चीज है तो तुम उससे बचकर निकलना चाहोगे, उसकी उपेक्षा करना चाहोगे।
पहले सारे पूर्वाग्रह, सारी धारणाएँ, पूरी निंदा को छोड़ो। भय एक तथ्य है। उसका सामना करना है, उसको समझना है। और केवल समझ के द्वारा ही उसे रूपांतरित किया जा सकता है। वास्तव में समझने से ही वह रूपांतरित हो जाता है। बाकी कुछ और करने की जरूरत नहीं है; समझ ही उसे रूपांतरित कर देती है।
भय क्या है? पहली बात : भय हमेशा किसी इच्छा के आसपास पनपता है। तुम प्रसिद्ध होना चाहते हो, संसार के सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति होना चाहते हो- फिर भय शुरू होता है। अगर ऐसा न हो सका तो क्या होगा? भय लगता है। भय उस इच्छा का बाइ-प्रोडक्ट है।
तुम संसार के सबसे धनवान व्यक्ति बनना चाहते हो- सफलता न मिली तो क्या होगा? सो भीतर से तुम कँपने लगते हो, भय शुरू हो जाता है। तुम्हारी किसी स्त्री पर मालकियत है; तुम भयभीत होते हो कि हो सकता है कल तुम्हारी उस पर मालकियत न रहे, वह किसी और के पास चली जाए। अगर वह जीवित है तो वह जा सकती है, सिर्फ मुर्दा स्त्रियाँ कहीं नहीं जातीं। केवल एक लाश पर ही मालकियत की जा सकती है- उसके साथ कोई भय नहीं है। वह हमेशा तुम्हारे पास रहेगी।
फर्नीचर पर तुम कब्जा कर सकते हो, उसके साथ कोई भय नहीं है। लेकिन कौन जानता है? कल वह तुम्हारी नहीं थी, आज तुम्हारी है, कौन जानता है कल वह किसी और की हो जाए? भय लगता है। यह भय मालकियत करने की इच्छा से उठ रहा है, यह एक बाइ-प्रोडक्ट है, क्योंकि तुम कब्जा करना चाहते हो, इसलिए भय है।
अगर तुम कब्जा करना न चाहो तो फिर कोई भय नहीं है। अगर तुम्हारी ऐसी कोई इच्छा न हो कि भविष्य में तुम यह बनना चाहोगे या वह बनना चाहोगे तो फिर कोई भय नहीं है। नगर तुम स्वर्ग जाना नहीं चाहते तो कोई भय नहीं होगा, कोई धर्मगुरु तुम्हें डरा न पाएगा। अगर तुम कहीं जाना नहीं चाहते तो कोई भी तुम्हें डरा नहीं पाएगा।
अगर तुम इसी क्षण में जीने लगो तो भय मिट जाता है। भय वासना के कारण पैदा होता है। तो मूलतः वासना भय को पैदा करती है। झाँको भय में। जब भी भय लगे तो देखो कि वह कहाँ से आ रहा है- कौन सी इच्छा, कौन सी वासना उसे निर्मित कर रही है- और फिर उसकी व्यर्थता को देखो।
(ओशो)