लेखक - जीशान जैदी
बेरोज़गारी के धक्कों ने उसे बेहाल कर दिया था. दो दिन से उसके पेट में एक दाना भी नहीं गया था. मीठे पानी को तो वह बहुत दिन से तरस रहा था, क्योंकि पानी अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों की संपत्ति हो चुका था. समुन्द्र का खारा पानी वह किसी तरह पी रहा था. ग्लोबल वार्मिंग की वजह से समुन्द्र में नमक कम हो गया था और कुछ हद तक उसका पानी पीने योग्य हो गया था. गरीबों के लिए यही पानी अब भूख प्यास मिटाने का एकमात्र सहारा बचा था.
'अगर दो तीन दिन में मुझे नौकरी न मिली तो मैं मर जाऊँगा.' उसके शरीर ने उसके मन से कहा. 'लेकिन कैसे?' मन के इस प्रश्न का उसके शरीर के पास कोई जवाब नहीं था. पृथ्वी पर अब कंप्यूटर तथा रोबोट युग अपने चरम पर था. निम्न दर्जे के सारे काम रोबोट तथा कंप्यूटर करते थे, तथा उच्च दर्जे पर जो लोग थे उनमें से हर एक की स्वयं की कंपनी थी, जिसका सञ्चालन उनके स्वयं के परिवार के हाथों में था. समुन्द्र के किनारे घूमते हुए एकाएक उसकी दृष्टि अखबार के एक टुकड़े पर पड़ी जिसमें कोई इश्तिहार छपा था. पढ़कर उसकी ऑंखें चमक उठीं. इश्तिहार में ऐसे बेकार लोगों की ज़रूरत थी जो अपने शरीर पर किसी कंपनी का इश्तिहार छपवाकर पैसा कमाने के इच्छुक हों. उसने अखबार का टुकडा जेब में रखा और उसपर लिखे पते को ढूँढने चल पड़ा.
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कंपनी के सामने उसी के जैसे बेकारों की एक लम्बी लाइन लगी हुई थी. जिसे चार ट्रैफिक रोबोट कंट्रोल कर रहे थे. जब भी कोई व्यक्ति लाइन से तितर बितर होकर आगे बढ़ने की कोशिश करता, रोबोट का एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसे वापस अपनी जगह पहुँचा देता था.
आखिरकार शाम को उसकी बारी आई. एक कंप्यूटर ने उसके शरीर का एक्स लेसर किरणों की मदद से पूरा जायेज़ा लिया. "तुम्हारा नाम?" कंप्यूटर के स्पीकर द्वारा पूछा गया.
"आनंद!" उसने जवाब दिया. कंप्यूटर ने दो तीन सवाल और पूछे और फ़िर उसे ओ.के. कर दिया. आनंद को दूसरे कक्ष में पहुँचा दिया गया. जहाँ उसके शरीर के ऊपरी कपड़े उतारकर उसके सीने तथा पीठ पर कंपनी का विज्ञापन तैयार किया जाने लगा.
शरीर पर विज्ञापन की शुरुआत इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में ही हो गई थी, और बाद में तो यह एक आवश्यकता बन गई थी. क्योंकि पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहाँ होर्डिंग या बैनर लगाया जा सके.
कंपनी के एग्रीमेंट के अनुसार अब आनंद को छः महीने तक बिना किसी ऊपरी वस्त्र के रहना था. लेकिन आनंद अब खुश था क्योंकि छः महीने तक उसकी भूख मिटने का इन्तिजाम हो गया था. कई दिनों बाद उसने एक अच्छे रेस्टोरेंट में खाना खाया और कुर्सी पर पैर फैलाकर सोचने लगा.
'मेरा ख्याल है कि मुझे साफ पानी बनने की फैक्ट्री खोल लेनी चाहिए. आजकल इसी वस्तु की सबसे अधिक डिमांड है.' उसने सोचा. उसकी जेब में जो रकम थी उसे दिखाकर किसी भी बैंक से लोन मिल सकता था. समुन्द्र के पानी से स्वच्छ पानी बनाने की फैक्ट्री खोलकर कई लोग अरबपति बन चुके थे.
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आनंद ने बैंक से लोन लेने के लिए अपना प्रोजेक्ट तैयार किया. एक बैंक ने उसका लोन स्वीकार कर लिया. लेकिन पेमेंट के लिए अब उसे ज़रूरत थी कम से कम चार हज़ार वर्ग मीटर समुन्द्र की. समुन्द्र में इतनी जगह लेने के लिए भी अच्छी खासी रकम की ज़रूरत थी. क्योंकि सागरों के अलग अलग भागों पर विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अधिकार था. ये कम्पनियाँ लोगों को शुद्ध पानी बनाने के लिए समुन्द्र का एक हिस्सा पट्टे पर देती थीं, और बदले में अच्छी खासी रकम वसूलती थीं.
एकाएक सामने हुए एक्सीडेंट ने उसकी विचार तंद्रा भंग कर दी. हवा में बिना पहियों के चलने वाली एक आलीशान कार अपनी दिशा भटक कर साइड की पहाड़ी से टकरा गई थी, और पल भर में उसके परखच्चे उड़ गए. वह जल्दी से दौड़कर घटनास्थल पर पहुँचा. इस सुनसान स्थान पर उसे छोड़कर और कोई मनुष्य नहीं था. कार के पास एक अधेड़ व्यक्ति पड़ा हुआ था जिसके शरीर से खून बह रहा था. आनंद ने उसे टटोलकर देखा, उसका जिस्म बेजान हो चुका था. शिनाख्त के लिए उसने लाश की तलाशी ली. जल्दी ही उसे उस व्यक्ति का आइडेंटिटी कार्ड मिल गया. उस कार्ड के अनुसार वह व्यक्ति सीवाट कंपनी का जनरल मैनेजर था, जिसके कब्जे में मुंबई के समुन्द्र का एक बड़ा भाग था.
.......जारी है