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आत्मचेतस् से सम्पृक्त लोकचेतनावादी कविता संग्रह (ऑंख ये धन्य है-नरेन्द्र मोदी, अनुवाद अंजना संधीर) -डॉ0 भूपेन्द्र हरदेनिया

19 जून 2020

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featured imageआचार्य भरत का कथन है- सा कविता सा बनिता यस्याः श्रवनेने स्पर्शनेन च। कवि हृदयं पति हृदयं सरलं-तरलं सत्वरं भवति।। अर्थात् एक सुन्दर और श्रेष्ठ कविता वही है जो अपने श्रोता, पाठक, सहृदय का उसी प्रकार साधारणीकरण कर दे जिस प्रकार एक सुन्दर स्त्री अपने पति के हृदय को आल्हादित कर उसका सरलीकरण कर देती है, उसे आनंन्दित कर देती है।। ऐसी आनंद की अनुभूति प्रदान करने वाला गुजराती से हिन्दी में अनूदित एक काव्य संग्रह ‘ऑंख ये धन्य है‘ अभी हाल में चर्चा में आया, जिसके रचनाकार हैं हमारे देश के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी। मूल रूप से इस संग्रह की निर्मिती गुजराती में हुई है, लेकिन उसे हिन्दी पाठकों तक पहॅुंचाने का महनीय कार्य डॉ0 अंजना संधीर ने किया है। उनका यह प्रयास इसलिए भी अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्यों कि एक श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ को एक श्रेष्ठ कवि के रूप में लोगांे तक पहॅंुचाने कार्य इसी काव्य संग्रह से अवश्यम्भावी रूप से किया जा सकेगा। कवि नरेन्द्र ने अपने वैयक्तिक एवं निर्वैयक्तिक जीवन काल में जो भोगा, जिन हकीकतों से उनका आत्मसाक्षात्कार हुआ, उसे उन्होंने अपने सिसृक्षण के दौरान जस का तस बयॉं करने के साथ ही अपने व्यक्तित्व की झॉंकी सहज पाठकों के सामने प्रस्तुत कर दी है। उन्होंने अपनी आत्मा की आवाज को, अपने गहन अनुभव को बगैर किसी आवरण के, प्राकृतिक तौर पर ही अभिव्यक्त किया है। ‘‘शृंगारित शब्द नहीं मेरे/नाभि से प्रकटी वाणी हॅूं।/करता हॅूं इस धरती से प्रीत/खामोशी का आनंद लेते हुए/गाता हॅूं गीत।‘‘ मोदी की प्रत्येक कविता जल में बुलबुल के माफिक पाठक के समक्ष प्रस्तुत होती है, और हर कविता एक नये बुलबुले मंे प्रदर्शित बिम्ब की तरह एक नया अनुभव, एक नयी बात सहृदय को दे जाती है।    कवि नरेन्द्र मोदी का यह कविता संग्रह ‘ऑंख ये धन्य है‘ उनके लंबे अनुभव और चिंतन से उपजी कविताओं का संकलन है। यहॉं चिंतन की ठोस जमीन तो है लेकिन वह विषय में इतना घुल-मिल गई है कि अंत में यहॉं एक मजबूत कविता की शक्ल ही हमारे सामने आती है। नरेन्द्र ने अपनी कविताओं में निरंतर एक नई व्यक्तिगत सजगता के कारण अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को निर्वैयक्तिक कर विभिन्न संदर्भों को पाठकों के समक्ष उठाया हैं। ‘‘सोलह बरस की रूपवती कन्या जैसी नदी/आज क्रोधित हो बाघिन हो गई है/वर्षा के कारण वो बेहद उच्छृंखल हो गई है/उसे किसी की लाज, शर्म नहीं है/अपना संयम गॅंवा/पागल स्त्री की तरह........................विनाश करती प्रकृति/हमें अपना विकृत परिचय देती है/हॉं, जल के जानलेवा जुनॅूंन का।‘‘ वही समाज, वही परिवेश, वही समस्याएॅं, वही विषय लेकिन एक नये रूप में अलग-अलग किस्म की कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत करना नरेन्द्र की मौलिक काव्य प्रतिभा की विशेषता है, जो इस काव्य संग्रह में स्पष्ट होती है। ठेठ गॉंव से लेकर अपार्टमेंट और शहरी परिवेश की चमक-दमक तथा देश का यथार्थ तक उनकी निगाहों में, इसीलिए कवि मन को सुकून नहीं पाता, कवि नरेन्द्र के इस लंबे अंतराल का यह अनुभव को अपनी कविताओं संजोया है-मन में मेरे जंगल लगे हैं/अंग-अंग में आग/जंगल में मैं ढॅंूढ़ता हॅूं/हरा-भरा वह बाग।/सुखी देखे, दुःखी देखे/देखे रोगी भोगी/माया जिसने छोड़ी/उसी काया निरोगी।/झन-झन, झन-झन तार-तार पर/बजता बिना छिड़ा सा राग/मन अपने को समझाता हॅूं/जाग अभी तो जाग। नरेन्द्र की कविताओं में एक विशेष दर्शन पक्ष उभर कर हमारे सामने आता है। वह जानते हैं कि जीव जगत सब एक छलावा मात्र है, इस संसार में व्यक्ति सर्वत्र सुख की अनुभूति कर सकता है, जो माया के वसीभूत नहीं है, अन्यथा दुःख ही दुःख है, अतः रचनाकार पाठक को चेताता है कि अब तो जाग जाओ। नरेन्द्र मोदी के इस संग्रह में चिंतन बहुत गहरे में धॅंसकर आया है। यह समाज और समय क्यों कठिनतम होता जा रहा है, वे इसे भली-भॉंति जानते हैं और उसे इशारों में कहना भी चाहते हैं। ‘‘ धरा/की पुकार है/गगन की पुकार है/पथ भूले हुए पंथ हैं और पार्थ को ललकार है/सम्प्रदायों में बॅंटता मानव/मानव से बनता है दानव/हुंकार, हो-हल्ले से/हुए हैं बहुत से हंगामे यहॉं/अभिमान की खड़ी दीवारें हैं यहॉं/और सपनों का संहार है/ललकार है, पुकार है।/समानता की बातें, बातें ही रहीं/और एकता ही पिसती गई/संविधान के बंद दरवाजे और ईर्ष्या-द्वेष की खाई रह गई/ऑंसू चारों ओर हैं/और सब जगह अंधकार है। अपने देश, अपने संविधान, अपनी संस्कृति, मानवीय पतन की बेइंतहा चिंता ही नरेन्द्र मोदी को हमारे समय का एक जरूरी कवि बनाती है, और उनकी कविता को एक महत्त्वपूर्ण कविता।  आम जीवन की बेबाकी से जिक्र करना और उनकी विसंगतियों की सारी परतें खोल देना यह विवेक और चिंता की ऊॅंचाइयों का परिणाम होता है। आज जो साहित्य रचा जा रहा है, वह लेखन की कई शर्तों को अपने साथ लेकर चल रहा है। एक तरफ जिन्दगी की जहॉं गुनगनाहट है, वहीं दूसरी तरफ जवानी को बुढ़ापे में तब्दील होने की जिद्द भी है, इन्हीं सब शर्तों के अनेक रंगों को अपने इस कविता संग्रह में पिरोने का साहस श्री नरेन्द्र मोदी ने किया है। ‘‘कोई पंथ नहीं, ना ही सम्प्रदाय/मानव तो बस है मानव,/उजाले में क्या फर्क पड़ता है, दीपक हो या लालटेन।‘‘ उनका यह संग्रह वीरान जिंदगी के कब्रिस्तानों पर एक ओर जहां जीवन और मुहब्बत के गीत लिखता है, वहीं दूसरी ओर वर्तमान जीवन की विसंगतियों से लड़ने की ताकत भी देती है। संग्रह की कविताओं के रंग इन्द्रधनुषी हैं, लेकिन सारी कविताओं का मूल स्वर जीवन और जीवन तथा जगत का यथार्थ है। इससे प्रतीत होता है कि कवि ने अपनी कविताओं में जिया ही नहीं, बल्कि उसे भोगा भी है। इन दोनों क्रियाओं ‘जीना और भोगना‘, ऐसी काई में पगडंडी है, जिस पर फिसलने का डर हमेशा बना रहता है। मोदी जी ने स्वयं को फिसलने नहीं दिया है, जो भी लिखा है मजबूती के साथ और साफ-साफ लिखा है-‘‘भाग्य को कौन पूछता है यहॉं?/मैं तो चुनौती स्वीकारने वाला मानव हॅूं।/मैं तेज उधार नहीं लॅूंगा/ मैं तो खुद ही जलता हुआ लालटेन हॅूं।/मैं किसी का मोहताज नहीं/मुझे मेरा उजाला पर्याप्त है। अंधेरे की लहरों को काटे/कमल के तेज-सा स्फूर्तिवान है।‘‘ सच में उत्साह आदमी को किरदार की आईनासाजी का हुनर सिखाता है। यह हुनर मोदी जी के लेखन का आत्मबल है। संग्रह की कविताओं के पाठ के बाद यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।  यह तो माना ही जा सकता है कि मोदी जी की कविता दुनिया की आमजीवन शैली के आसपास घूमती है, लेकिन यह पूरे तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि मोदी जीवन की दुनिया के बाहर नहीं निकलना चाहते हैं। इस संग्रह के अवलोकन के बाद स्पष्ट होता है कि इनका लेखकीय केनवास काफी बड़ा है, जीवन हरेक आहट नए-नए दृश्य तलाश करती है, जिसमें भोर की पहली किरण के साथ हसीन उजालों की सुगबुगाहट मिलती है। विरह और वियोग का एक छटपटाता हुआ पन्ना भी खुलता है और उस पन्ने पर बडत्रे ही सलीके से मोहब्बत का नाम लिखा जाता है। कुल मिलाकर भावस्थितियों की विविधता मोदी जी की कविताओं विपुल मात्रा में देखने को मिलती हैं कहीं बेबसी है तो कहीं कर्मोत्साह है। कहीं दैन्य है तो कहीं आक्रोश है। कहीं चीख है तो कहीं मूक संगीत है। कुल मिलाकर कवि की हृदय-तन्त्री से निकले हुए हर भाव का समायोजन संग्रह की कविताओं में बड़ी कुशलता और सटीकता से हुआ है। ‘‘अॅंधेरे के कागज पर/मैं एक सरोवर रेखांकित करता हूॅं/सरोवर पर झुकती है एक डाली/भॅंवरों की गुंजन लेकर/गहरे अंधकार को हल्का करने/मैं बनाता हॅूं एक चन्द्रमा/देता हॅंू, उसको नीला, आसमानी रंग/सरोवर के शांत जल जैसा/अचानक..........बैसाख की दुपहरी सूरज/कागज़ को जलाकर राख कर देता है/और मेरे हाथ में/कॉंप जाता है ब्रश-/मेंढ़क की चित्कार/मौसम के सपने/सपनों का मौसम/सभी कुछ भाप हो जाना।‘‘ प्रायः समझा जाता है कि कवि कल्पनाशील होता है और भविष्य के सुनहरे आदर्शवादी ताने-बाने बुनने में उसकी अधिक दिलचस्पी रहती है। ऐसा मोदी जी की कविताओं के परिप्रेक्ष्य में भी आंशिक सत्य हो सकता है लेकिन विशेष तौर पर मोदी जी की कविताएंॅ ठोस यथार्थ और भोगे हुए कड़वे सत्य को भावाकुलता के साथ उद्घाटित करने वाली जीवंत शब्द रचनाएॅं हैं,‘‘कारगिल/पहले भी गया था,/टाइगर हिल/पहले भी देखी थी/तब/राजाधिराज के श्वेत मौन को/जी भर कर देखा था/आज/हर चोटी/गर्जती थी/बोम्ब, बंदूह की गॅूंज से/बर्फ की शिलाओं पर धधकते अंगारों जैसे/सेना के जवानों को देखा/यहॉं/हर जवान/किसान था/जो अपने आज को बीज रहा था/अपने खून से सींच रहा था/ताकि हमारा कल/मुरझा न जाए/हर जवान की ऑंख में/उमड़ते सौ करोड़ सपने देखे/अपनी ऑंख की पलक से/मौत को जकड़ने वाले/वीर देखे/और यमराज को,/इन वीरों के चरण चूमते हुए देखा था।‘‘ मोदी जी के इस कविता संग्रह में विरोधाभाशी शैली का विशेष तौर पर इस्तेमाल किया गया है, आम कवियों की कविताओं की तरह मनोभावों को व्यंग्य के नुकीले बाणों, कैक्टस के नुकीले कांटों की तरह पाठक के हृदय को भेदने का कार्य मोदी की कविताओं ने नहीं किया है। उनकी कविताएॅं गुलाब के फूल के स्पर्श की तरह एक कोमल छुअन पाठक के हृदय को दे जाती है, वह सहृदय में उत्पन्न कर देती है, एक सिहरन, एक सबक, एक खुशबू वह भी स्मूथली। उनकी कविताओं में यह क्वालिटी खूब देखने को मिलती है कि वे पाठक को वगैर झिंझोडे़ ही बहुत कुछ कह जाती हैं, और उन्हें बहुत-कुछ सोचने पर भी मजबूर करती है- ‘‘स्वाभिमान-झूठ बोले, कौआ काटे/इसलिये हमें सत्य बोलना जरूरी है/सत्य ही तो हमारा स्वाभिमान है/मजबूरी नहीं/सत्य नहीं बोलें/तो कोयल की कुहूक को/मरी हुई मछली की तरह/कौआ चोंच,/मार-मार कर नष्ट कर देगा/अफवाहों पर आधारित समाचार/सुबह-सवेरे उगते हैं काले सूरज की तरह/सत्य से सत्याग्रह तक की/अपनी यात्रा में हमें मिलते हैं/बिना पैर चलते/प्रवासियों के पद्चिन्ह/केवल भीड़, टोलियॉं।‘‘ मोदी जी का यह अनूठा काव्य-संकलन ‘ऑंख ये धन्य है।‘ काव्य-प्रेमियों के लिए सचमुच एक तोहफे के समान है। इसके लिए में मोदी जी को तो बधाई देना ही चाहॅंूगा, साथ ही में डॉ0 अंजना संधीर को भी उतना ही सधन्यवाद ज्ञापित करना चाहॅंूगा कि उन्होंने मोदी जी के इस कविता संग्रह को इतने सुन्दर और सहज ढंग से अनुवादित किया कि कही लगता ही नहीं कि इस पुस्तक को कोई अनुवाद हुआ होगा। स्त्रोत भाषा की किसी विधा को और विशेष तौर पर कविता को किसी लक्ष्य भाषा में स्थानांतरित करना और वह भी भाव बदलने न पाये वास्तव एक दुस्कर कार्य है, और दुस्कर कार्य को बड़े ही सहज रूप से करने का प्रयत्न अंजना संधीर ने किया, उनका यह कर्म भी सिसृक्षु की तरह ही एक तपश्चर्या है। वे वास्तव में बधाई की विशेष पात्र हैं। आशा करता हॅंू कि वे आगे भी इसी तरह के हिन्दीत्तर भाषी महत्त्वपूर्ण कविता संग्रहों और अन्य ग्रंथों को अनुवाद कर पाठकों के समझ ला सकेंगी और हिन्दी की समृद्धि कर सकेंगी।  अंत में पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि ‘ऑंख ये धन्य है।‘ की कविताएॅं राष्ट्रीयता को पोषण प्रदान करने के साथ ही प्रगतिवादी विचारधारा का भी समाहार हैं। उनकी सम्पूर्ण कविताओं की विशेषताओं को चंद शब्दों में इस प्रकार बयॉं किया जा सकता है कि एक तरफ उनकी कविताओं में मीर के व्यंग्य पुट हैं तो दूसरी तरफ स्वामी रामतीर्थ का मस्तानापन, अल्हड़पन, भावुकता और भावावेश। इसके अलावा निराला की अभिव्यंजना शक्ति और लाक्षणिकता, पंत की दार्शनिकता और विचारशीलता, लोकमान्य तिलक के केसरी की सम्पादकीय जैसी निर्भीकता, विचार स्वतंत्रता और पैनापन इन सबका सम्मिलित प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इस संग्रह की कविताएॅं पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल होंगी। संग्रह की तमाम कविताएॅं पठनीय और शिल्प के हिसाब से अत्यंत सटीक हैं, साथ ही कविताओं में छन्दात्मकता और मुक्त छंद दोनों को ही लावण्य देखते ही बनता है।                        प्रस्तुतकर्ता डॉ0 भूपेन्द्र हरदेनिया

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