संक्षेपिका-मानव की सांस्कृतिक क्षमता का रहस्य उसकी जैविक रचना में निहित है। जब किसी संस्कृति के आधारभूत मूल्य किसी समाज के बहुसंख्यक वर्ग को प्रेरित करना बन्द कर देते हैं, तो क्रमश: संस्कृति का अवसान हो जाता है, लेकिन अगर ये मूल्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संवाहित होते रहते हैं, तो संस्कृति वैयक्तिक संवृद्धि का साधन तो बनी ही रहती है, यह सामाजिक व्यवस्था को जीवंतता भी प्रदान करती रहती है। यह बड़े गर्व की बात है कि पौरस्त्य संस्कृति का अस्तित्व अभी भी यथावत बरकरार है, क्योंकि आज भी इसके मूलभूत मूल्यों को समाज की स्वीकृति प्राप्त है, लेकिन अधुनातन भारतीय संदर्भ में अगर लोक संस्कृति की बात की जाए तो यह धीरे-धीरे विलुप्ती की कगार की ओर अग्रसर है। हमारे चारों ओर पनपते जा रहे भौतिक एवं पाष्चात्य सभ्यता के वातावरण के कारणवह क्षीण होती जा रही है । इस समय ऐसे षोधकार्यों की महती आवष्यकता जो भारतीय संस्कृति में उपस्थित लोक जीवन की संस्कृति को उजागर कर सके और उसे संरक्षित कर सके। ताकि उन्हें हम अपनी आगामी पीढ़ी के लिए सुरक्षित कर पाएॅं।
भारतीय संस्कृति में पर्वों, परम्पराओं, देवताओं, देवियों की प्राचीन मान्यताओं, अनुष्ठानों की एक अपनी महत्ता है। इसमें देवीय मान्यताओं को लोक में अपनाना या उसका अनवरत प्रवाह होना भारतीय संस्कृति का अध्यात्मिक पक्ष है। लोक देवी-देवताओं के प्रति हमारी धार्मिक आस्था जो प्राचीन मान्यताओं के आवरण में अपने को लपेटे हुए होती है, वही उस लोक के जनमानस में एक सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करती है। कुछ ऐसे स्थान होते जहॉं पहुॅंचकर मनुष्य अपनी सतत् आपाधापी की जिंदगी में कुछ समय के लिए राहत महसूस करता है। इसे हम यॅू भी कह सकते हैं कि धार्मिक आस्थाएॅं, मान्यताएॅं और विष्वास, चिलचिलाते धूप भरे रास्ते पर बीच-बीच में लगे एक छायादार वट वृक्ष हैं। जो कि उसके स्मरण मात्र से परेशान हारे थके राहगीर को कुछ समय के लिए आराम प्रदान करता है, शुकून देता है और नकारात्मक ऊर्जा को डायनामों की भॉंति सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित कर व्यक्ति को आत्मविश्वास से आपूरित कर देता है। मैं इस लेख के अंतर्गत जो प्रस्तुत करने जा रहा हूॅं, वह विशाल भारतीय संस्कृति सागर की एक बॅूंद के बराबर है, लेकिन उसकी अपनी एक उपादेयता है, क्योंकि कंुभ में जाने वाली एक-एक बॅूंद उस कुंभ को पानी से सराबोर कर देती है। हमारे देश में लोक देवियों की कई मान्यताएॅं प्रचलित हैं, जो कि जनकल्याण से जुड़ी हुई हैं। मुरैना जिले मंे भी कई लोक देवियों सम्बन्धी जन-मान्यताएॅं हैं, जो कि यहॉं की संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। आइए जाने मुरैना जिले की लोक देवियों और उनसे सम्बन्धित प्राचीन मान्यताओं के बारे में)-
जिला मुरैना अपनी चंबल क्षेत्रीय संस्कृति, ऐतिहासिकता और लोक परम्परा के कारण सर्वप्रसिद्ध है। कहा जाता है कि महान स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद विस्मिल का भी जन्म तोमर वंष के अंतर्गत मुरैना जिले के एक छोटे से गॉंव वरवई में हुआ था। इसके अलावा इस जिले की एक तहसील अंबाह में स्थापित शैव (ककनमठ) मंदिर, जिसे शनि की जन्मस्थली भी कहा जाता है। अपनी ऐतिहासिकता, अर्वाचीनता और पुरातात्त्विक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
चंबल क्षेत्रीय भू-भाग मुरैना ब्रज क्षेत्र के अलावा बुंदेलखण्ड तथा राजस्थान से भी प्र्रभाव ग्रहण किए हुए है। जिसके कारण इस अंचल विषेष की भाषा न तो षुद्ध बंुदेली ही है और न ही शुद्ध ब्रजी तथा राजस्थानी। ब्रज क्षेत्र के संपर्क में ज्यादा होने के कारण हम यहॉं की भाषा बुंदेली मिश्रित ब्रजी भी कह सकते हैं। इस भाषा के रूप की झलक मुरैना के लोक देवियों सम्बन्धी पर्व, उनके अनुष्ठानों और मान्यताओं में स्पष्ट दिखाई देती है। मुरैना जिले में कई प्रमुख लोक देवियॉं हैं-माता बहरारे वाली, माता निरारे वाली माता बसैया, सेढ़ वाली, जलालगढ़ वाली माता, जवाहरगढ़वाली माता, डंगैयावाली, लोक देवी सांझी आदि। इनमें से कुछ देवियों का संक्षिप्त परिचय हम यहॉं प्रस्तुत कर रहे हैं-
1-माता बहरारे वाली:-
इन पौरत्स्य चिंतन में आदि शक्ति की आराधना का विधान है, और प्रत्येक देवी की कोई न कोई लोक मान्यताएॅं और दन्तकथाएॅं प्रचलित होती हैं। महाभारत काल से जुड़ी हुई कुछ ऐसी ही कहानी है बहरारे वाली माता की। भारत में यूॅं तो माता के कई प्राचीन मंदिर हैं लेकिन पहाड़गढ़ के जंगलों में मॉं बहरारे वाली माता विराजमान है। नवरात्र के दिनों में मॉं बहरारे की मूर्ति रोज बड़ा रूप धारण करती है और नवमी के दिन मॉं की मूर्ति गर्भ गुभा से बाहर आ जाती है। बहरारे वाली माता के मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहॉं पांडवों ने अज्ञातवाष के दौरान अपनी कुलदेवी की पूजा की थी और इस पूजा के दौरान कुलदेवी एक विशाल शिला में समा गई थीं। उस शिला को कई बार स्थानीय लोगों ने मूर्ति रूप देने का प्रयास किया लेकिन सभी कोशिशे बेकार साबित हुईं बताया जाता है कि यहॉं माता को पांडव लाये थे और माता की प्रतिष्ठा कराई थी। उस वक्त यहॉं बहुत घना जंगल था और दूर-दरे तक कोई भी नहीं रहता था। उसके बाद संवत 1152 में बिहारी ने बहरारा बसाया था। तदुपरांत संवत 1621 में खांडेराव भगत ने बहरारा माता के मंदिर का निर्माण कराया था। तब से लेकर आज तक मंदिर परिसर को श्रद्धालुओं के सहयोग से विकसित किया गया और हर नवरात्रि पर मेला और भक्तों का तांता लगा रहता है।
बताया जाता है कि पांडवों की पूजा के बाद प्रसन्न हुई कुलदेवी ने अर्जुन से यथेच्छ वर मॉंगा। कुलदेवी ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन, मैं तुम्हारी भक्ति और पूजा से खुश हॅूं। बताओ तुम्हें क्या वरदान चाहिए। तब अर्जुन ने कहा हे मॉं, मुझे आपसे वरदान में ज्यादा कुछ नहीं चाहिए, न ही मैंने आपकी पूजा किसी वरदान के लिए की है। मेरी तो बस ये इच्छा है कि समय और नीति के अनुसार हम पांॅच भाइयों को 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास का समय व्यतीत करना है, इसलिए मैं चाहता हॅॅं कि आप प्रसन्नता पूर्वक मेरे साथ चलें। तब कुलदेवी ने कहा कि हे अर्जुन मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत खुश हूॅं।.....तुम मेरे कृपापत्र बन गए हो, मैं चाहते हुए भी तुम्हें मना नहीं कर सकती, अर्जुन मैं तुम्हारे साथ चलने के लिए तैयार हॅूं पर मेरी एक शर्त है कि तुम आगे चलोगे और मैं पीछे। जहॉं भी तुमने मुझे पीछे मुड़कर देखा मैं वहीं पर स्थाई रूप से विराजित हो जाऊॅंगी। अर्जुन ने अपनी कुल देवी की बात मान ली और वह आगे-आगे चल दिया। काफी समय चलने के बाद जब अर्जुन जंगलों के रास्ते से गुजरते हुए विराट नगरी पहुॅंचे तो उन्हें लगा कि देख लॅूं कि कुल देवी कहीं पीछे तो नहीं रह गई। तभी अर्जुन ने पीछे मुड़कर देख लिया।। अर्जुन के पीछे मुड़ते ही हस्तिनापुर से पीछे-पीछे चल रही कुलदेवी एक शिला में प्रवेश कर गई। तब अर्जुन को कुलदेवी को दिया हुआ वचन याद आया। अर्जुन ने बार-बार कुलदेवी से विनती की लेकिन कुलदेवी ने कहा, अर्जुन अब मैं यही पर इस शिला के रूप में ही रहॅूंगी। तब से आज तक पांडवों की कुल देवी आज भी शिला के रूप में ही पूजी जाती है।

माता बहरारे वाली, पहाड़गढ़
माता के चरणों में है कभी न सूखने वाला जलकुंड-मुरैना से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी एवं कैलारस से लगभग 20 किलोमीटर दूरी पर माता बहरारे का मंदिर स्थित है। यहॉं प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालू माता के दर्षन करने आते हैं। बहरारे वाली माता मंदिर से लोगों की अटूट श्रद्धा और आस्था जुड़ी हुई है मंदिर में माता के चरणों में जल कुंड है। इसका जल कभी भी नहीं सूखता है। इस जल को ग्रहण करने वालों की मनोकामना पूर्ण होती है और सारे रोग दोष क्लेश नष्ट हो जाते हैं। इसे जनकल्याण की देवी कहा जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि इसके जल सेवन से चेचक जैसा असाध्य रोग भी ठीक हो जाता है।
2-माता निरारे वाली:-
मुरैना जिले की जौरा तहसील की लोक देवी अंतर्गत आने वाली निरारे वाली माता के बारे में भी कई लोक मान्यताएॅं प्रचलित हैं। सर्वप्रचलित मान्यता के अनुसार इसे नेत्र की देवी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसके दर्शन मात्र से असाध्य से असाध्य नेत्र रोग ठीक हो जाता है। निरार माता पर प्रतिवर्ष वैषाख माह की चतुर्थी से मेला भी शुरू होता है। जिसका आयोजन नवमी तक किया जाता है। माता के दर्शन के लिए प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुॅंचते हैं। यह जौरा से लगभग 20 किलोमीटर की दूर जंगलों में निरार माता विराजमान है।

माता निरारे वाली, जौंरा
अ. तेंदूफल का स्वाद चखते हैं लोग-
तेंदूफल का स्वाद आमतौर पर लोग नहीं चख पाते हैं। सिर्फ निरार माता का मेला ही ऐसा स्थान है जहॉं लोग इस फल का स्वाद चख पाते हैं। जंगली इलाकों में पैदा होने वाली यह गहरे पीले रंग का फल आकार व स्वाद में चीकू की तरह होता है और बाजार में उपलब्ध नहीं होता, लेकिन निरार मेले में आसपास के ग्रामीण जंगलों से इन्हें लाकर यहॉं बेचते हैं।
ब. मंदिर परिसर में नृत्य कर मॉं की कृपा का पात्र बनते हैं श्रद्धालु-
निरार माता के दरबार में ज्यादातर श्रद्धालु नृत्य करते हैं चाहे कुछ देर के लिए ही करें। ऐसा मानना है कि मैया के दरबार में नृत्य करने से मॉं की कृपा बरसती है। इसलिए महिलाएॅं तो अधिकांश नृत्य करती हैं। नगाड़े व ढोल वाले मैया के दरबार में मेले के समय उपस्थित रहते हैं। ढोल-नगाड़े वालों को नृत्य करने वाली महिला के परिवारजन न्यौछावर करते हैं।
स. नेजा चढ़ाने और कनकदंडवत देने की प्रथा-
निरार माता के दरबार में लोगों की मुराद पूरी होने पर नेजा चढ़ाए जाते जाते हैं और कनकदंडवत देकर मैया आषीर्वाद प्राप्त किया जाता है।
3-माता बसैया:-
माता बसैया मन्दिर मुरैना जिले का प्राचीन ऐतिहासिक व लोक प्रसिद्ध मंदिर है। प्रतिवर्ष 15 से 16 लाख श्रद्धालु यहॉं आते हैं। यहॉं प्रसिद्ध दक्षिण काली के एवं मॉं चामुण्डा के अद्भुत विग्रह हैं। लोगों में इसके प्रति भक्तिभाव व श्रद्धा के साथ काम्य सिद्धि भी काफी है।

4-सेढ़ वाली माता:-
यह सम्पूर्ण मुरैना जिले और विशेष तौर पर सबलगढ़ अंचल में पूजी जाने वाली लोक देवी है। सबलगढ़ अंचल में नव विवाहित बहू को सबसे पहले सेढ़ वाली माता के ही दर्षन कराए जाते हैं, नवदुर्गा महोत्सव के दौरान महिलाओं द्वारा नौं दिल जल चढ़ाने का विधान है।
5-सॉंझी:-
पौरस्त्य संस्कृति अर्वाचीन और विविध आयामी है, और इन आयामों मेें से एक आयाम है, पौरस्त्य संस्कृति के पर्व। इन पर्वों में कुछ लोक बाल पर्व भी आते हैं, जैसे-सॉंझी, टेसू और झॉझी। यह पर्व आंचलिकता, परम्परा, मनोरंजन, ऐतिहासिकता, लोक चित्र शैली और आध्यात्मिकता की दृष्टि से तो अति महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही ये पर्व भारतीय लोक-पर्वों के एक अंग के रूप में स्थापित हैं, जिनसे तत्कालीन समाज और संस्कृति के साथ-साथ पुरावृत्तीयता और पुरातनता की झॉंकी हमारे सम्मुख प्रस्तुत होती है। भारत का केन्द्र बिन्दु मध्यप्रदेश पौरस्त्य संस्कृति के विविध फलकों को अपने में सजाए हुए है, जिनमें से एक फलक लोक बाल पर्व रूप भी हैं। इन पर्वों में मुरैना की सॉंझी एक प्रमुख लोक बाल पर्व है। सॉंझी बालिकाओं की प्रतीकात्मक लोक देवी है।
बलिकाओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व (सॉंझी) का नामकरण सायंकालीन बेला में मनाये जाने के कारण ‘सॉंझी‘ (मालवा मेें संजा) हुआ।
मुरैना अंचल में बालिकाएॅं दीवार पर गोबर से सॉंझी का चित्रांकन करती हैं। प्रचलित पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार सॉंझी लोक देवी आदिशक्ति पार्वती का ही एक प्रतीक रूप है। सॉंझी के पूजन में मुख्यतः कन्याएॅं सुन्दर वर, चिर सौभाग्य, सुखी दाम्पत्य जीवन के अलावा पारिवारिक सदस्यों की सुख-शांति की कामना भी करती हैं।
मुरैना में सॉंझी के निर्माण और इस पर्व को मनाने की प्रक्रिया श्राद्धारम्भ के प्रारंभ दिवस भाद्रपक्ष शुक्ल पूर्णिमा से शुरू होती है। जिसका प्रतिदिन नवीन रूप में चित्रांकन किया जाता है। यह पर्व पंद्रह दिन तक सतत् रूप से मनाया जाता है। जिसमें विविध लोकगीतों के माध्यम से सॉंझी की आरती, बधाई, प्रशसा आदि बालिकाओं द्वारा की जाती है, जिसमें मनोकामना की भावना भी निहित रहती है।
मुरैना के लोकबाल पर्व सॉंझी के प्रथम दिन ‘पंचगुटा‘ का चित्र बनाया जाता है। यह ‘पंचगुटा‘ एक ऑंचलिक खेल चौपड़ का प्रतीक है, लेकिन फिर भी ‘पंचगुटा‘ को खेलने का तरीका चौपड़ से कुछ भिन्न होता है। इस खेल में लड़कियॉं पत्थर के पॉंच गुट्टे बनाकर उनसे खेलती हैं।
संजा पर्व के प्रथम दिन ‘पंचगुटा‘ को गोबर से निर्मित कर उसे विविध फूल पत्तियों से सजाया जाता है, तत्पश्चात एक थाली में कुमकुम, चावल, दीपक आदि रखकर सॉंझी के इस प्रथम रूप की आरती उतारी जाती है, और भोग लगाया जाता है-
तुम करौ चंदा लल की बैन, संजाबाई की आरती करौ।
प्यारे का फल होय, भईया फल होय, भतीजो फल होय।
मेरी माई संजा की आरती करौ।।
आरती और भोग का क्रम प्रतिदिन चलता रहता है, इसके अतिरिक्त कुछ अन्य गीत भी प्रतिदिन इस अवसर पर गाये जात हैं-
1- छोटी सी गाड़ी लुड़कत जाय, बामे सॉंझी बाई बैठी जाय।
चूड़ला खनकाती जाय, घाघरो घुमकाती जाय।
छोटी सी गाड़ी लुड़कत जाय, लुड़कत जाय।।
2- हमारी सॉझी रानी,
कुम्हार की मौड़ी कानी
भल्ला बेटा पानी।।
3- हमाई सॉंझी लडुआ खाय, पेड़ा खाय।
औरन की सॉंझी रोटी खाय, साग खाय।।
हमाई सॉंझी कचौड़ी खाय, समौसा खाय।
औरन की सॉंझी भूखी मरे, प्यासी मरे।।
4- हल्दी गांठ गठीली, भैया बैठके गइयो।
ऊपर मोर नचईयो, नीचे घॅुंघरू बजइयो।।
मुरैना में संजा पर्व के दूसरे दिन चौक बनाया जाता है, जो कि भारतीय लोक संस्कृति में किसी मेहमान और त्यौहार के आगमन का प्रतीक तो है ही साथ ही मंगल का प्रतीक भी है। यह संजा पर्व के आरम्भ का प्रतीक भी है। संजा पर्व के तीसरे दिन ‘गणेश‘ जी का चित्र गोबर के माध्यम से निर्मित किया जाता है। ‘गणेश‘ किसी भी मंगल कार्य के आरम्भ का प्रतीक होने के साथ-साथ, एकाग्रता और धैर्य का प्रतीक हैं। चौथे दिन गमले में लगा तुलसी का पौधा बनाया जाता है, जो कि हमारी भारतीय संस्कृति में पूज्य माना जाता है, साथ ही वह देवी-देवताओं और पितृ-गणों का निवास स्थान माना जाता है। पॉंचवे दिन सॉंतिया बनाया जाता है जो सुख-समृद्धि और किसी शुभ कार्य में होने वाले विघ्न बाधा को दूर करने, अमंगल का नाश करने और मंगल का विधान करने का प्रतीक है। छटवें दिन चॉंद तारे और सूरज का रूप बनाया जाता है। सूरज जहॉं ऊष्मा और प्रकाश का प्रतीक है, वहीं चॉंद तारे शीतलता का प्रतीक हैं । सातवें दिन मोर निर्मित किया जाता है, जो हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। आठवें दिन हाथी बनाया जाता है, जोकि धीर और गम्भीरता का प्रतीक है। नौवे दिन चक्र बनाया जाता है, जो कि श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र के साथ-साथ सुरक्षा की भी प्रतीक है। दशवें दिन बीजना का निर्माण किया जाता है, जो कि मुरैना जिले की लोक परम्परा (जिसमें शादी के अवसर पर बीजने से भोजन के लिए बैठे मेहमानों की हवा बतौर मेहमाननवाजी घर की महिलाओं द्वारा की जाती है) का प्रतीक तो है ही, साथ ही महिलाओं द्वारा इसे शुभ भी माना जाता है। ग्यारहवें दिन मेहतर-मेहतरानी (सफाई कर्मी) का चित्र बनाया जाता है, जोकि साफ और स्वच्छता का प्रतीक है। बारहवें दिन ऊॅं का चित्र बनाया जाता है जो कि एकाग्रता और शांति का प्रतीक होने के साथ-साथ ब्रह्म-प्राप्ति का सूत्र भी है। तेरहवें दिन कमल बनाया जाता है जो कि मॉं सरस्वती का आसन होने के साथ-साथ हमारा राष्ट्रीय पुष्प भी है। चौदहवें दिन मूड़फोड़ा का चित्र बनाया जाता है, जिसे सॉंझी का भाई माना जाता है, और वह उसे लिवाने के लिए आता है, लेकिन वह सॉंझी के लिए उपहार स्वरूप कुछ नहीं लाता, तब बालिकाएॅं यह गीत गाती हैं-
ऐरे मूड़फोरा हमाई सॉंझी का बिन्दा कौं नई लाओ।
अबकी तो भूलो बहना, परकी लियांगो।
अबकी परकी तू करै, बिन्दा कबहॅूं न लावे।
ऐरे मूड़फोरा हमाई सॉंझी को झुमका कौं नई लाओ।
अबकी तो भूलो बहना, परकी लियांगो।।
इस तरह बालिकाएॅं गीत के माध्यम से मूड़फोरा से परस्पर संवाद करती हैं, और प्रष्न पूछती हैं।
मुरैना जिले में सॉंझी पर्व के पंद्रहवें और आखिरी दिन किला कोट बनाया जाता है, जिसमें सॉंझी का रूप प्रस्तुत किया जाता है, और उन सम्पूर्ण चित्रों को भी उस किलाकोट मंे पुनः एक साथ चित्रित किया जाता है, जो पूर्व में चौदह दिन तक बनाए जाते हैं । इस अवसर पर यानि कि सॉंझी के आखिरी दिन कुछ विशेष भोजन इत्यादि का आयोजन किया जाता है, तथा उस सॉंझी के एकत्रित गोबर इत्यादि सामग्री को जल में विसर्जित कर दिया जाता है, और इस तरह इस लोक बाल पर्व का समापन हो जाता है।
मुरैना जिले में और भी कई लोक देवियॉं और उनकी मान्यताएॅं तथा कथाएॅं, जिनकी पड़ताल ग्रामीण अंचलों में जाकर की जाए तो कई महत्वपूर्ण तथ्य उजागर लोक देवियों से सम्बन्धित हो सकते हैं। मुरैना जिले की सहरिया जनजातियों की लोक देवियों सम्बन्धी मान्यताओं खोजने की असीम सम्भावनाएॅं भी यहॉं विद्यमान हैं। मुरैना जिले की अम्बाह, पोरसा, दिमनी तहसीलों में भी कई लोक देवियॉं और उनकी मान्यताएॅं हैं, जिनकी सम्पूर्ण जानकारी यहॉं दे पाना संभव नहीं है, फिर भी अगर यह परियोजना स्वीकृत होती है, तो मेरे द्वारा किया गया कार्य आपकी वृहद परियोजना के लिए अति महत्त्वपूर्ण साबित होगा।
अंततः कहा जा सकता है कि किसी क्षेत्र विशेष की परंपरा से प्राप्त वहॉं के मानव-समूह की निरंतर उन्नत मानसिक अवस्था, उत्कृष्ट वैचारिक प्रक्रिया, व्यावहारिक षिष्टता, आचारगत पवित्रता, सौन्दर्याभिरुचि आदि की परिष्कृत, कलात्मक और सामूहिक अभिव्यक्ति ही वहॉं की लोक संस्कृति है। मानव समूह की भाषा-बोली, धर्म दर्षन, साहित्य शिल्प, कला, सामाजिक परंपराओं एवं मूल्यों, जातीय आदर्शो, संस्कारों, अनुष्ठानों और लोक विश्वासो आदि के रूप में उसकी लोक संस्कृति के विविध आयाम दृष्टिगत होते हैं। मध्यप्रदेश की संस्कृति विशाल भारतीय संस्कृति का ही एक लघु संस्करण है।
मुरैना जिले की लोक देवियॉं, उनकी विविधता, प्रचलित लोक मान्यता, अनुष्ठान, विधान, और विशिष्ट मूर्तिशिल्प के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इन देवियों के स्थानों पर मनाए जाने वाले पर्वों में धार्मिक सौहार्द, संवादात्मकता, हास्य-व्यंग्यात्मकता तत्कालीन प्रचलित खेलकूद, लोक मान्यताएॅं, राष्ट्रीय बोध, लालित्य बोध, शांति, सुरक्षा, आदि का पुट होने के साथ ही इसमें आनुष्ठानिक बोध स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। लोक देवियों से मान्यताएॅं, रीति-रिवाज एवं सामाजिक मान्यताओं की स्थापना करते हैं। इनसे सम्बन्धित होने वाले आयोजनों से समाज में फैली विविध कुप्रथाओं को समाप्त कर परस्पर आत्मीयता, सहयोग, उत्तरदायित्व की भावना एवं जिज्ञासा वृत्ति आदि गुणों को विकसित किया जाता है। इनके दर्शन मात्र से मस्तिष्क की उर्वरता व तर्क शक्ति का विकास होता है
मुरैना जिले में आज से लगभग पन्द्रह से बीस वर्ष पूर्व इन देवियों का आध्यात्मिक स्वरूप और स्पष्ट तथा मान्यताएॅं अपने चरम पर थीं, परन्तु आज यह बिल्कुल समाप्ति की ओर है। इसका कारण बदलता हुआ परिवेष, नगरीकरण, आधुनिक और पाश्चात्य मानसिकता है। लेकिन फिर भी हम मुरैना जिले से सम्बन्धित लोक देवियों से सम्बन्धि सूत्रात्मक अभिज्ञानता को सहेजकर, सुरक्षित कर भारतीय संस्कृति के इन अंगों को क्रियात्मक रूप में नही ंतो, अभिलेखित रूप में तो जीवित रख सकते हैं।