आज के साहित्यिक परिवेश में दलित चिंतन एक विमर्श के साथ एक गम्भीर मुद्दा भी है| विषय उन दलितों का जिन्हें आज हम पंचम वर्ण या अन्त्यज भी कहते हैं। ‘चातुर्वण्यं मया सृष्टं‘ कहते हुए गीता में भी कृष्ण ने बताया था कि संसार में उनके द्वारा सिर्फ चार वर्णाें का ही सृजन हुआ है, लेकिन समाज के उच्च वर्ग की स्वार्थपरक वृत्ति के कारण उस पंचम वर्ण का भी निर्माण हुआ। ये वर्ण आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक धरातलों पर उपेक्षित ही नहीं अस्पृष्य भी माने जाते हैं।
परम्परागत हिन्दू समाज ने इस वर्ण को दलित या दमवित वर्ग का नामकरण भी किया था। आज इसी दलित को उनके अधिकार दिलाने और शोषण से मुक्ति दिलाने हेतु अनेक दल, अनेक संगठन एवं राजनैतिक पार्टियॉं अपने स्तर अपनी-अपनी दलित रोटी सेकने में लगीं हैं, लेकिन यथार्थ में अगर कोई कार्य हुआ है तो वह साहित्य के क्षेत्र में। साहित्य में अनेक विचारकों और चिंतकों ने दलितों पर अपनी लेखनी चलाई है, और उस लेखनी से दलितों की मार्मिक व्यथा और कथा को लोगों तक पहुंचाने का स्तुत्य कार्य भी किया है, लेकिन एक विवाद इसमें भी चल पड़ा कि दलितों की कथा दलित ही लिख सकते हैं, क्यों कि जो भोगता है, वही उसे सही ढंग से व्यक्त कर पाता है, इसीलिए एक कहावत भी चल पड़ी है कि दलितों की कहानी दलितों की ही जुवानी। प्रायः ऐसा माना जाता रहा है कि जो भोग्यमान अनुभूति है, वही सही ढंग से अभिव्यक्त हो सकती है। जो जिसने भोगा ही नहीं, उसे वह कैसे अभिव्यक्त कर सकता है, पर यह अंशतः सत्य हो सकता है, पूर्णतः नहीं, अगर ऐसा होता तो प्रेमचन्द अमर न होते। आज हिन्दी कथा की अगर कहीं बात होगी तो प्रेमचन्द के उल्लेख के बगैर वह बात अधूरी ही रहेगी। इसी प्रकार यह भी यथार्थ है कि अनुभूयमान अनुभूति भी लगभग वैसे ही होती है या हो सकती है, जैसी भोग्यमान अनुभूति होती है। इस संसार में करुणा एक ऐसा शब्द है जो अगर न होता तो मानवता ही न होती। क्यों कि करुणा के माध्यम से हम दूसरे के दर्द को महसूस कर सकते है, भले ही वह दर्द, वह कष्ट भोगा न हो, लेकिन महसूस जरूर किया होगा। यह सब अनुभूयमान अनुभूति के कारण ही होता है। इस अनुभूयमान अनुभूति की सशक्त अभिव्यक्ति जो कि अन्त्यजीय संवेदना को एकदम सजीव कर देती है, वह हमें दिखाई देती है, प्रसिद्ध रचनाकार डॉ0 देवेन्द्र दीपक की रचनाओं में। इस तरह की अभिव्यक्ति को लेकर हाल ही में उनका एक महत्वपूर्ण काव्य संग्रह ‘मेरी इतनी-सी बात सुनो‘ प्रकाष में आया है, साहित्य जगत में भी इसकी खासी चर्चा है। इस काव्य संग्रह का शीर्षक ही बहुत थोड़े में बहुत कुछ कह जाता है, अर्थात सामासिकता लिए हुए है। यह सम्पूर्ण काव्य संग्रह अन्त्यज अनुभूतियों या दलित चेतना को समर्पित है। इसमें वे कहते हैं वे कहते हैं "मेरी जात मत पूछ, कलम की जात पूछ|"
रचनात्मकता की तिलस्मी दुनिया के सुपरिचित, तेजस्वी और सशक्त हस्ताक्षर डॉ. देवेन्द्र दीपक का यह नवीनतम कविता संग्रह उनकी अनूठी कृति है। इस संग्रह की विषय-वस्तु पर अगर दृष्टिपात किया जाए तो कहा जा सकता है कि यह संग्रह जनपदीय भारत का अस्पृश्यीय धर्मशास्त्र है। इस संग्रह में दलित समस्या के ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संज्ञान के साथ, दलितीय जीवन के बहुत बड़े क्षितिज को भी ढॅूंढा और उन संकटों के विरुद्ध एक नई दृष्टि विकसित की है। इस हेतु इस संग्रह की कविताएँ दलित समस्या के अपने नए भाव-बोध और दृष्टि को उकेरते हुए एक नए परिवेश में प्रवेश करती है। जाहिर है उनकी काव्य दृष्टि तत्कालीन अंतराल के साथ, स्मृति के वैभव से टकराती है। इसीलिए उनकी कविताएँ दलित चिंतन को इस कदर जीवंत कर देती हैं, मानो वह रचनाकार की भोग्यमान रचना ही हो। देवेन्द्र दीपक के इस संग्रह की साधारण, सहज और सरलता से समझ आने वाली कविताओं में दलित विमर्श को एक विशिष्ट और नवीन तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
दीपक जी के इस संग्रह से जब आत्मसात होता है तो जॉंक देरिदा का विखंडनवाद याद आता है, जो पाठ के पुनर्पाठ, उसके अन्तर्पाठ, उसकी पड़ताल और उस पाठ के विखंडन पर बल देता है, लेकिन दीपक जी के इस संग्रह की कविता विखंडन की कतई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनकी कविताएँ बगैर विखंडन के शहद का स्वाद और शहद की सेहत एक साथ दे देती है। आदमी और आदमी की छाया की तरह उनकी कविता अन्वयात्मक तरीके से व्यक्त होती है। उन्होंने स्वयं भी इस संग्रह की भूमिका में लिखा है कि ‘‘मेरी प्रत्येक कविता में आपको एक अन्विती मिलेगी। विचार की, भाव की, प्रभाव की। कविता में प्रयुक्त होते ही मानो शब्द को हल्दी लग जाती है और साधारण-सा शब्द एकदम महत्त्वपूर्ण हो जाता है। मेरी कविता में प्रत्येक शब्द किसी आशय से विन्यस्त है। मेरी अभिधा, व्यंजना-गंधी है। मेरी कलम ‘साफ बयानी‘ और ‘सपाट बयानी‘ के अन्तर को समझती है। मेरी कविता का एक पाठ प्रत्यक्ष है, लेकिन उसके भीतर एक अन्तर्पाठ भी है। मेरी कविता अपने पाठक को उस अन्तर्पाठ तक सहज ले जाती है।‘‘
माना जा सकता है कि इस संग्रह की कविता मार्ग और लक्ष्य की कविता है, वह आपका मार्ग भी है और लक्ष्य भी। लक्ष्य कौन सा? लक्ष्य मुक्ति का। अब मुक्ति किससे? तो मुक्ति उस मानसिकता से जो आज हमारे समाज में दलितों और अस्पृश्यों के सामान्य वर्ग के लोगों में व्याप्त है। मुक्ति व्यवहार से जो उच्च वर्ग निम्न वर्ग के प्रति करता है, मुक्ति उस यातना से जो अन्त्यज को तिल-तिल मरने को बाध्य कर रही है। सच तो यह है कि यह कविताएँ सिर्फ विरोध की कविताएँ ही नहीं हैं बल्कि विरोध के मुखर न होने की स्थिति और उन पीड़ाओं से जूझते मनः स्थिति की पारदर्शी कविताएँ हैं। ‘‘उनकी कविता सवर्ण समाज के अन्तर्विरोध पर अपने को फोकस करती है। यह उसकी मुख्य भूमिका है। लेकिन अस्पृश्य समाज के अपने अन्तर्विरोध भी हैं। उन अन्तर्विरोधों की चर्चा कहीं होगी? लोग इस बात से दुःखी है कि उनके कंधे पर किसी का पॉंव है। दुःखी होना स्वाभाविक है। लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि उनके पॉंव के नीचे भी कोई कंधा है जो दबाव की पीड़ा से आहत है। ऊपर वाले से मुक्ति चाहते हो तो नीचे वाले को भी मुक्ति देनी होगी।
दीपक जी के इस संग्रह की कविताएँ सवर्ण और दलित के अन्तर्विरोधों से मुक्ति की कविताएँ हैं इसी मुक्ति की आकांक्षा लिए इस संग्रह में दलितों के प्रति सवर्ण मानसिकताओं के कई कटु-सत्य परत-दर-परत सामने तो आते ही हैं, साथ ही सवर्ण मानसिकता में अस्पृश्यता की गहरी पैठ का दुष्परिणाम भी सामने होता है। इस संग्रह की कविताएँ उच्च वर्ण के मनस्तत्त्व में विद्यमान क्रूर, कठोर और कटु अन्त्यजीय मनःस्थिति की पड़ताल करते हुए, उन तमाम घटनातीत गंभीरता को समेटते हुए या फिर उन वैचारिक विसंगतियों की जमीन पर, वर्तमान में घटित उन तमाम कराह और तिक्तता को भी गहरे ढंग से चिन्हित करती है। लिहाजा सहृदय दलितीय जन-चेतना, उनकी खोई सांस्कृतिक परंपराओं, उनके भाव-संसार और इतिहास के पन्नों से अलग होते द्वंद्व के वर्तमान से परिचित तो होते ही हैं, साथ ही विचलित भी।
सामाजिक दृष्टि से अगर देखा जाए तो भारत की कई मामलों में स्थिति प्राचीनकाल से ही अत्यंत दुर्बल रही है। प्राचीन काल में जाति-उपजातियों का विभाजन इसके प्रमाण थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चारों वर्णों के अतिरिक्त समाज का एक बहुत बड़ा भाग ऐसा था जिसे ‘अन्त्यज‘ पुकारते थे। इन्हें समाज के किसी भी वर्ग में स्थान प्राप्त न था। जुलाहे, मछुआरे, टोकरी बुनने वाले, चमडे़ की सामग्री बनाने वाले, शिकारी आदि इस वर्ग में सम्मिलित थे। इनमें भी निम्न स्तर हादी, डोम, चाण्डाल, वधाटु आदि वर्गों का था जो सफाई और स्वच्छता के कार्यों में लगे हुए थे, परन्तु इन्हें नगरों और गॉंवों के बाहर रहना पड़ता था। वैश्या तथा शूद्रों को वेद और धार्मिक शास्त्रों को पढ़ने का अधिकार न था। यदि इनमें से कोई ऐसा करता था तो उनकी जबान काट ली जाती थी। समाज से पृथक वर्गों की स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी स्थिति तो वैश्यों को शूद्रों से भी निम्न थी। इसीलिए सिसृक्षु डॉं0 देवेन्द्र दीपक का अन्तर्मन, विवेकानन्द के उन्मन मन के रूप में जातीय दम्भ रखने वाले समाज के ठेकेदारों से प्रष्न कर रहा है और कह रहा है-उन्मन, उन्मन, उन्मन/तुम्हारा प्रेम भरा मन/बंधु/तुम्हरे उन्मन मन में/चींटियों के लिए है आटा/पक्षियों के लिए दाना/मछलियों के लिए गोलियॉं/बंदरों के लिए चने/कुत्ते के लिए रोटी/और गाय के लिए गो-ग्रास!/यह सब अच्छा है।/बंधु,/अछूत के लिए/तुम्हरे उन्मन मन में/क्या है/तुम्हारे पास?/यह सवाल मैं नहीं/विवेकानंद पूछ रहा है!
‘मेरी इतनी-सी बात सुनो‘ संग्रह की इक्यावन कविताएँ संग्रह की मणिमाला हैं या यूँ कहें जिस प्रकार मालाकार माल्य निर्मिति के समय पुष्पों का चुनाव कर एक श्रेष्ठ माला का निर्माण करता है, उसी प्रकार इस संग्रह की कविताओं का पुष्प की तरह ही चुना गया है, लेकिन देखने में पुष्पित और पल्लवित इस संग्रह की कविताएँ उनसे भी बढ़कर माणिक्य और मोती है, जो कभी बासी नहीं होते, हमेशा दैदीप्यमान रहते हैं। वह रत्न जणित एक ऐसा सुन्दर हार है जिसे अगर पहन लिया जाए तो निश्चित ही जन-कल्याण सम्भव है।
इस संग्रह की पहली कविता शीर्षकीय कविता है, जो कि पीड़ीगत होते दलितीय अत्याचार के आक्रोश का बीचवपन भी कही जा सकती है। जिन्होंने हमेशा अत्याचार सहे, अस्पृश्यता के नाम पर कष्ट सहे वही आज अपना स्वर शोषकों के प्रति मुखर किए हुए हैं, अपनी बात को, अपनी आवाज को उन तक पहुॅंचाने और अपनी संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए वह मुखर है, वह सब सहते हुए भी अन्जान नहीं है, इसीलिए वह कहता है-बहरे नहीं हो/और सुन सकते हो/तो/मेरी इतनी-सी बात सुनो-/‘बंदूक हॅूं,/कंधा नहीं हॅूं मैं/अन्त्यज हुआ तो क्या/अंधा नहीं हॅूं मैं?‘ चिरकाल तक सहा गया कष्ट या लम्बे समय से सहा गया दुःख का, जब अतिरेक हो जाता है, तब कुम्भोच्छलनवत वह भाव या दुख, वह कष्ट आक्रोश के रूप में छलक उठता है, तत्समय हम महसूस करते हैं और देखते हैं कि अतीत की कचोटती घटनाओं से मुक्ति की छटपटाहट, भीतर ही भीतर प्रतिशोध, अपनी बेचैनी की मुक्ति का आक्रोश, समक्ष हो उठता है। दीपक जी के लिए इस संग्रह की कविताएँ-कबीरदास का कर्घा है/रविदास की कटौती/सेन का उस्तरा/और नामदेव की सुई है। उनकी कविता पसीने की गंध का सौंदर्यशास्त्र है, उत्पीड़न के बखान का धर्मशास्त्र है, एवं अन्त्योदय से सर्वोदय तक फैला समाजशास्त्र भी है। इसीलिए इस संग्रह की कविताओं में कवि की महीन दलितीय संवेदना, दृष्टि सम्पन्नता, अपने आलोचनात्मक विमर्शों के माध्यम से अस्पृश्यता की जमीनी पड़ताल त्रिशास्त्रीय तरीके से करने का प्रयास किया गया है। यह संग्रह विभिन्न अन्त्यज अनुभूतियों की हकीकत के साक्ष्य पाठक के समक्ष रखने का सफल प्रयास करता है।
शोषण का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन यह शोषण किस कारण और बजह से। सिर्फ इसलिए ताकि उस पर शोषक सिर्फ अपनी रोटी सेक सके। हर व्यक्ति का अपना जीवन होता और उसे वह जीवन अपने ही तरीके से जीने का अधिकार भी होता है, उसके जीवन में कोई हस्तक्षेप करे तो द्वंद्व की स्थिति पैदा होती ही है, आज वह द्वंद्व दलित और शोषक के बीच भी उपस्थिति है, क्यों कि तबका कोई भी हो वह अपना जीवन अपने स्तर से जी सकता है, ज्यादा न सही कम में ही सही, इसीलिए इस संग्रह का शोषित जो कि दलितीय भूमिका में कहता है-मेरी आग इसलिए नहीं/कोई दूसरा/इस आग पर आपनी रोटियॉं सेंके।/मेरी आग मेरी अपनी है/मेरी आग इसलिए नहीं/कोई दूसरा/इसे अपनी पॅूंजी समझे/और अपना धंधा चलाए।/मेरी आग/मेरी रोटी/पतली हो या मोटी।
इस संग्रह की प्रत्येक कविता एक सवाल उत्पन्न करती है और उसके जबाव की तह तक ले जाने का महनीय प्रयास भी। निश्चय ही वह सवाल दलितीय संवेदना से जुड़ा हुआ है और उसका जबाव भी वही। जिसकी रचनात्मकता का अपना विशिष्ट प्रवाह है जहॉं हमारी संवेदनाओं पूर्णतया अन्त्यज जीवन और उनसे जुड़ी दारुण गाथाओं के लिए संवेदित हैं। इसीलिए इस संग्रह की एक कविता ‘सूत्रधार‘ में उस सूत्रधार को पकड़ने की बात कही गई है जो शोषणीय घटना का प्रमुख है, कवि कहता है कि-हर घटना के पीछे कोई हाथ होता है/उस हाथ के पीछे भी होता है कोई हाथ/.....................और यह जो आखिरी हाथ है/बस, वही सूत्रधार है.........../हम सूत्रधार को पकड़ें।
शोषण चाहे मानसिक हो या समाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक, शोषण तो शोषण ही होता है। शोषण स्त्री या पुरुष किसी का भी हो सकता है। लेकिन शोषण जहॉं होगा वहॉं कभी न कभी विद्रोह भी होगा। चाहे उसमें कितना भी समय लग जाए। शताब्दियों से धर्म की रूढ़ियों के नाम पर हमारे देष में एक वर्ग का सामाजिक, मानसिक और आर्थिक शोषण किया गया है। लेकिन जैसे ही मानवीयता के भाव जागे और शोषित वर्ग के साथ सभी वर्गोे में चेतना आई तो परिणाम स्वरूप विद्रोह का विस्फोट हुआ और रामू जैसे लोग पैदा हुए जिन्होंने अपनी चेतना को जाग्रत कर अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को समूल नष्ट करने की ठानी। इसीलिए इस संग्रह की कविता ‘रामू खुद लड़ेगा‘ का रामू आज अपने अतीत को याद करते हुए मोर्चा सम्भाले हुए अन्यानेक शोषकों जिन्होंने कभी उसके साथ अत्याचार किया से लड़ने के लिए तत्पर है, रामू कहता है-मैं अछूत हॅूं/मेरा नाम रामू है।/मेरी तनातनी, कहा-सुनी, गिला-शिकवा/जो कुछ भी है/वह पंडित रामदीन/ठाकुर रामसिंह/लाला रामदयाल से है।/रामू अपनी लड़ाई खुद लड़ेगा/....... रामू जानता है/उसके सिर पर मैले का टोकरा/क्यों, कब और कैसे आया ? स्मृतियॉं कभी नष्ट नहीं होतीं और वो स्मृतियॉं तो कभी नहीं जो जीवन और मृत्यु के प्रश्नों से जुड़ी होती हैं। ऐसी स्मृतियॉं जिसमें जुड़े होते हैं मौत से साक्षात्कार और जीवन को हर हाल में बचा लेने की उत्कृष्ट लालसा के प्रसंग, वे काल के नेपथ्य में जाकर वर्तमान से संवाद करती रहती हैं। वे मनुष्य के अवचेतन में बीज रूप में अवस्थित रहती हैं, जो स्थान, काल और परिवेश के साम्य के साथ पुनर्जीवित होकर सामने आ जाती हैं, तथा वर्तमान को झकझोर भविष्य को आशंकाओं से भर देती है। रामू जानता है कि आज जिस स्थिति में वह है, किसकी देन है।
आज हमारे देश का सबसे बड़ा ज़हर है अस्पृश्यता के वातावरण ने भारतीय समाज में जिस कदर वर्ग वैषम्य और वर्ग विभेद का ज़हर घोला है, उससे आज का सम्पूर्ण भारतीय समाज अपनी मृण्यमयी भूमिका में है। दलितों को अस्पृश्य और नीच जाति के मानने के कारण समाज में इनका जीवन दूभर हो जाता है। फलस्वरूप वे मानव होकर भी समाज के अन्य लोगों के जैसे स्वतंत्र रूप से जीवन बिता नहीं सकते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर विचरना वर्जित है। अस्पृश्यता की यह रीति दलितों के लिए अभिशाप बन गई है। हमें अस्पृश्यता के दुष्परिणाम मालूम होते हुए भी आज हम पर वह इस तिलिस्म के साथ हावी हो चुकी है, कि हम उसके जादुई आवरण से उबर नहीं पा रहे है। इस बात से हम बहुत अच्छी तरह वाकिफ हैं कि अस्पृश्यता अवैदिक है/अस्पृश्यता अधार्मिक है/अस्पृश्यता अनैतिक है/अस्पृश्यता हिंसा है/अस्पृश्यता पक्षपात है/अस्पृश्यता शोषण है/अस्पृश्यता समाजिक रोग है/अस्पृश्यता सामाजिक रोग है/अस्पृश्यता तामसी है।......इतना सब-कुछ है/अस्पृश्यता के खिलाफ!.........फिर भी ताल ठोककर/ऑंखें तरेरकर/नथुने फुलाकर/बदकलाम अस्पृश्यता/ललकारती है यहॉं-वहॉं/गॉंव-नगर द्वार-द्वार/बार-बार/साफ़-साफ़ ! क्यों कि हमारे जो आज प्रयास हैं वे भरसक नहीं है, वे नाकाफी हैं इस अस्पृश्यता के ज़हर को कम करने के लिए। वस्तुतः उच्च होने का भारतीय समाज के सवर्ण वर्ग मेें जो कूट-कूट कर भरा हुआ है, उस अहं का दम्भ उसे इस अस्पृश्यता मानसिकता से उबरने नहीं देता। आज जिस कदर जातीय दम्भ हमारे समाज में व्याप्त है, वह उस अस्पृश्यता को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पोषित और पल्लवित करने के लिए काफी है। इसीलिए तुम्हारे बाबा ने/प्याले में भर दिया जातीय दम्भ/और तुम्हारे पिता ने/उसे दूध की तरह/पी लिया!/तुम्हारे पिता ने/प्याले में भर दिया जातीय दम्भ/और तुमने/उसे रूहअफ़जा की तरह/पी लिया/और अब तुमने/प्याले में भर दिया जातीय दम्भ/और तुम्हारा बेटा/उसे शराब की तरह पी रहा है!
आर्थिक और सांस्कृतिक मजबूतीे से अपना प्रभाव दिखाने वाले उच्च वर्णों के सामने यह दलित वर्ग दब जाता है। उनमें समाज के घातक प्रथाओं के विरोध करने की हिम्मत नहीं होती। वे लोग इस अंधविश्वास में रहते हैं कि छोटे-बड़े भगवान के घर में बनकर आते हैं। फलस्वरूप रीति-रिवाजों के पालन में कई लोग कष्ट झेलते रहते हैं। दबंग की दबंगई से हमेशा डरते हैं, लेकिन यह वास्तविक है कि आज भारतीय ग्रामीण परिवेश में जिस कदर राजनीति का दबंगईकरण हो गया है उससे तो ऐसा लगता है कि दबंग जब चुनाव जीतेगा/बंदूक चलाएगा/गोलियों पर गोलियॉं चलाएगा/खुषियॉं मनाएगा/कोई मरे/उसकी बला से/.....दबंग जब चुनाव हारेगा/वह भी किसी दलित से/दबंग बंदूक चलाएगा/गोलियों पर गोलियॉं चलाएगा/हारने वाले को सबक सिखाएगा।
कविता संग्रह की कविताएँ दलितीय आत्म-दुःखबोध से भरी कविताएँ हैं, उसमें इतिहास है उस परम्परा का जिसमें एक सामान्य आदमी किस तरह अपनी अन्त्यजीय भूमिका में आ जाता है, किस तरह वह अस्पृश्यता के कुचक्र में फॅंस जाता है, किसी का भला करने के चक्कर में। और फिर उस चक्रव्यूह में वह इस तरह फॅंस जाता है कि वह उससे कभी उबर ही नहीं पाता। वह छुआ-छूत के इस गहरे दलदल में धॅंसता ही चला जाता है, क्यों कि जिसका उद्धार किया गया वह नहीं चाहता है कि उद्धारक फिर कभी उठे। इस पुरावृत्तीय भूमिका को इस संग्रह की एक कविता ‘घोड़ा बनने की भूल‘ में बखूबी बताया गया है-उस दिन पथ में बड़ी दलदल थी/और हमारा रथ दलदल में/बुरी तरह फॅंसा था/हमने तुम्हें लगाम सौंपी/और खुद हम सब/आदमी से घोड़ा बन गए थे।/रथ को खींचने में/हमारी गर्दनें छिल गई थीं/और आज यह सूखी-सख्त चमड़ी/गवाह है/कि हम सचमुच आदमी से घोड़ा बन गए थे।/बा मशक्कत, बा मुश्किल/ रथ दलदल से निकल/जब डामर की पक्की और चौड़ी/सड़क पर आया तो हमने सोचा/कि अब तो सड़क पक्की है/डामर की है/और चौड़ी भी है/तो फिर हम भी अपने को/
क्यों न समझना शुरू करें आदमी !/लेकिन इससे पहले/कि हममें से कुछ लोग/अपने को आदमी समझते/तुम चाबुक चटकाने लगे/कुछ ऐसे/जैसे हम आदमी नहीं/सचमुच घोड़े ही थे। दलित समाज को हर स्तर पर संघर्ष करना पड़ता है............ब्लाटिंग पेपर/जिस तरह सोख लेता है/स्याही की तरलता का/उसी तरह अस्पृश्य भाव ने/मानव का स्वाभिमान को सोख लिया।..............ऐसे स्वाभिमान शून्य ‘बहिष्कृत भारत‘ के/‘मूक नायक‘ के लिए तुम्हारा संघर्ष:/पानी के लिए संघर्ष/ज्ञान के लिए संघर्ष/दर्शन के लिए संघर्ष/आच्छादन के लिए संघर्ष/भीतर संघर्ष/बाहर संघर्ष/संघर्ष ही तुम्हारे जीवन का/बन गया स्थायी भाव/सौ अभावों के बीच/बस यही भाव!
भारत के आधुनिक समाज की यह विडम्बना ही कही जाएगी कि लोकतांत्रिक विचारों और मूल्यों तथा समानता और भाईचारे के प्रचार-प्रसार के बावजूद जातिगत भेदभाव एवं छुआछूत जैसी बीमारियॉं हमारे समाज का अपरिहार्य अंग बनी हुई है। प्रगतिशील और जनवादी विचारों और मूल्यों का समर्थन करने वाले लोग भी अपने जातिवादी संस्कारों का मोह नहीं त्याग पा रहे हैं। लेकिन सेक्स के मामले में कुछ छलिए सवर्ण समाज के लोग अपनेे जातिवादी चेहरे को छुपा लेते हैं या स्थगित कर देते हैं और यौन-वृत्ति के बाद पुनः ब्राह्मणवादी संस्कारों के खोल में लौट जाते हैं। इसीलिए इस संग्रह की एक रचना भारत की प्रजा और उसके प्रजातंत्र को धिक्कारती हैं। उस मानसी प्रवृत्ति को धिक्कारती है जो औरत की अस्मत को सिर्फ अपने भोग विलास की चीज समझते हैं, और उसे सरेराह लूट लेते हैं, उसे लज्जित करने का प्रयास करते हैं, इसीलिए कवि कहता है कि गन्ने के खेत में/रेत-रेत होती/औरतों की अस्तमत!/भारत के लस्टम-पस्टम प्रजातंत्र/तू धन्य है, तुझे धिक्कार है!/दरिन्दो जाओ/अपनी पत्नियों से जाकर/अपनी इस मर्दानगी का/बखान करो/देखो, उनकी ऑंखों में/तुम्हारा महिमामण्डित देवत्व/आज खण्डित है/तुम्हारे बच्चे/तुम्हें पिता नहीं/पिशाच समझेंगे।
जातिप्रथा नामक कलंक के कारण ही दलित वर्ग जीवन की महत्वपूर्ण सुविधाओं और आवष्यकताओं से वंचित रहा है। जीवन जीने की असुविधाओं ने इस वर्ग को हीन भावना से ग्रसित कर दिया है। जिससे वह उभरना चाहते हुए भी उभर नहीं पा रहा है। दलितों का हर जगह समाज में अनादर ही होता रहा है। यहॉं तक कि देहात में तो उनकी स्थिति और भी बद्तर है। उनको दो जून की रोटी पेट भरने तक के लिए मयस्सर नहीं है। इसलिए मेरे हाथ में मेरी भूख है/लेकिन रोटी नहीं,/मेरे हाथ में नंगापन है/लेकिन लंगोटी नहीं/मेरे हाथ में मेरी जहालत है/लेकिन नहीं किताब/मेरे इन सवालों का मॉंगे कौन जवाब? इस स्थिति को तभी समझा जा सकता है जब वह दर्द हमने भोगा हो। क्यों कि वगैर भोगे दलित वर्ग के प्रति वह संवेदना लाना थोड़ा मुश्किल है, कहते हैं न घायल की गति घायल जाने। दीपक जी के इस संग्रह का दलित इस वर्ग वैषम्य की पराकाष्ठा की वजह से ही सवर्ण वर्ग और षोषक वर्ग को कहता है कि ‘तू अछूत बनकर देख......../तू अछूत बनकर देखेगा/देखेगा तो देगा दिखाई/बार-बार/तेरे मुख से उच्चरित/‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ का नारा/नौटंकी का खेल/जा, अपने घर जा/अपने चार बच्चों में से किसी एक बच्चे के माथे पर/काला टीका लगा,/उसका नाम ‘बुद्धू‘ रख, उसे बात-बात पर दुत्कार,/उसे ‘कमीन‘ कहकर पुकार/साधन-सुविधाओं के बॅंटवारे में/गैर-बराबरी का उसके साथ/करके बरताव देख/फिर अपने उस बच्चे का ताव देख!‘
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दीपक जी का यह संग्रह दलित समाज को वैचारिक आधार पर संगठित करके सामन्ती ब्राह्मणी शोषण, उत्पीड़न और जातिगत भेदभाव से मुक्ति के लिए संघर्ष की प्रेरणा देता है। उनके इस संग्रह की कविताएँ दलित समुदाय से जुड़कर उनके साथ आत्मीय संबंध बनाकर और उनसे मिले जीवनानुभवों को पकड़कर रचनात्मक स्तर तक ले जाने में पूर्णतया कामयाब हुई हैं। उनकी समस्याएँ पाठकों को आश्वस्त करती नजर आती हैं। इस संग्रह की कविताँ दलित की समस्याओं को, उनके विभिन्न पक्षों को, विविध आयामों में अभिव्यक्त करने की ईमानदार कोशिश है। साथ ही विषम राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक परिवेश में दलित, शोषित निम्नवर्ग एवं उपेक्षित वर्ग की शोषणजन्य पीड़ा तथा शोषण मुक्ति के हेतु उनमें प्रस्फुटित संघर्षशील दलित चेतना की अभिव्यक्ति दीपक जी के इस संग्रह में बखूबी देखी जा सकती है। बेगार के विरूद्ध समय-समय पर दलित वर्ग में जो प्रतिक्रियाएँ हुई उनका प्रतिबिंब भी उनके संग्रह में प्रतिबिम्बित होता है। इसमें दलितों के प्रति अपनी सहानुभूति ही नहीं व्यक्त की गई है अपितु उनके प्रति आक्रोश भी व्यक्त किया गया है। इसमें सर्वण मानसिकता और दलित मनः स्थिति के मूल मर्म और गर्हीत प्रभाव को समझकर उसे उसकी ही जमीन पर धराशायी किया है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दीपक जी का यह संग्रह दलित समाज को वैचारिक आधार पर संगठित करके सामन्ती ब्राह्मणी शोषण, उत्पीड़न और जातिगत भेदभाव से मुक्ति के लिए संघर्ष की प्रेरणा देता है। उनके इस संग्रह की कविताएँ दलित समुदाय से जुड़कर उनके साथ आत्मीय संबंध बनाकर और उनसे मिले जीवनानुभवों को पकड़कर रचनात्मक स्तर तक ले जाने में पूर्णतया कामयाब हुई हैं। उनकी समस्याएँ पाठकों को आश्वस्त करती नजर आती हैं। इस संग्रह की कविताएँ दलित की समस्याओं को, उनके विभिन्न पक्षों को, विविध आयामों में अभिव्यक्त करने की ईमानदार कोशिश है। साथ ही विषम राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक परिवेश में दलित, शोषित निम्नवर्ग एवं उपेक्षित वर्ग की शोषणजन्य पीड़ा तथा शोषण मुक्ति के हेतु उनमें प्रस्फुटित संघर्षशील दलित चेतना की अभिव्यक्ति दीपक जी के इस संग्रह में बखूबी देखी जा सकती है। बेगार के विरूद्ध समय-समय पर दलित वर्ग में जो प्रतिक्रियाएँ हुई उनका प्रतिबिंब भी उनके संग्रह में प्रतिबिम्बित होता है। इसमें दलितों के प्रति अपनी सहानुभूति ही नहीं व्यक्त की गई है अपितु उनके प्रति आक्रोश भी व्यक्त किया गया है। इसमें सर्वण मानसिकता और दलित मनः स्थिति के मूल मर्म और गर्हीत प्रभाव को समझकर उसे उसकी ही जमीन पर धराशायी किया है।
इस संग्रह की कविताओं में श्रमशील मानवता का चित्रण है। इस संग्रह के माध्यम से दीपक जी वर्ग वैषम्य, संघर्ष और दबाव तथा मूल्यों के हृास का अहसास तीव्रता से कराया है, और अपने रचनात्मक चिंतन द्वारा जीवन निर्माण के लक्ष्य को व्यंजित किया है। नव निर्माण के प्रति अपनी सजगता को ध्वनित किया हैं, उनकी कविताएँ जीवन के इतिहास को भोगे हुए यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं।
स्वानुभूति की प्रगाढ़ता, मार्मिक मानवीय संवेदन और दारुण त्रासदी की नंगी सच्चाईयों के सम्मुचय से अनुस्यूत इस संग्रह को ऑंखों देखा वृतांत भी कह सकते है, स्मृतियों का कोलाज कुछ भी कह सकते हैं, लेकिन भोग्यमान भयावह यथार्थ से इंकार नहीं कर सकते। अभी तक आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की बात की जाती थी, लेकिन दीपक जी के इस संग्रह की कविताएँ यथार्थोन्मुख आदर्शवादी स्वरूप लिए आत्मालाप और संवाद की कविताएँ हैं, जिसमें वास्तविकता और व्यावहारिकता का भी ध्यान भी रखा गया है।
यह संग्रह भाव-पक्ष और कला-पक्ष दोनों ही दृष्टियों से नयापन लिए हुए है। विषय-वस्तु बेहद रोचक है और षैली अत्यंत प्रभावशाली
देवेन्द्र दीपक सदैव से ही प्रयोगधर्मी रचनाकार रहे हैं। हर बार उनकी रचनाएँ पाठक को चकित करने की मंशा के साथ प्रकाशित होती रही हैं। यह संग्रह पाठक को बिल्कुल ही एक नए जगत में ले जाता है। इस संग्रह की कविताओं में गहन अन्तर्वेदना है, भावों के ज्वार के पीछे विचारों की गहनता है तथा कोरी भावुकता के स्थान पर गंभीर बौद्धिकता है। उन्होंने यथार्थ को विश्लेषित करने और शोषण के आतंक को साक्षात करने के लिए रहस्यमय और भय की पद्धति न अपनाते हुए उसमें अपनी सामाजिक-राजनीतिक समझ को आद्यन्त कायम रखा है। उनका यह संग्रह चुनौतियों, सवालों और समस्याओं से भरा हुआ है। उनकी कविताओं में नाटकीय तत्वों का समावेश उनकी प्रमुख विशेषता है।
वस्तुतः इस संग्रह से उम्मीद बंधती है कि दलितों की आवाज को जनमानस तक न केवल पहुॅंचाने बल्कि समाज के सभी वर्गों में अस्पृशीय मानसिकता को बदलने में कामयाब होगा, एवं दलित साहित्य के क्षेत्र में भी इसका पर्याप्त आदर और सम्मान होगा।
संग्रह का नाम-मेरी इतनी-सी बात सुनो
रचयिता-डॉ. देवेन्द्र दीपक
प्रकाशक-इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली
संस्करण-प्रथम, 2016
मूल्य-200
समीक्षक का पता- कवि का पता-
डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया डॉ. देवेन्द्र दीपक
चरोरे पाड़ा, बड़ा बाजार डी-15, शालीमार गार्डन,
तहसील रोड़, सबलगढ़ कोलार रोड़, भोपाल, म.प्र.
जिला मुरैना, मध्यप्रदेश पिन-462042
पिन-476229