अभी हाल ही में प्रकाशित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति श्री संजय द्विवेदी की एक पुस्तक ‘मोदी युग‘ काफी चर्चा में है। सौभाग्य से यह पुस्तक मुझे भी प्राप्त हुई। इस पुस्तक का अवलोकन करते समय संजय जी के आलेखों से जब मैं रू-ब-रू हुआ तो मुझे लगा कि इस पुस्तक को लेकर अभी तक बहुत से लोगों ने बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें कहीं लेकिन कुछ महत्त्वपूर्ण बातें अभी भी अधूरी रह गयी हैं, और उनमें से पहली यह है कि यह पुस्तक मोदी जी के तीन साल के कार्यकाल का निष्पक्षीय दस्तावेज है, न कि किसी राजनीतिक पूर्वाग्रह से ग्रसित चारणकालीन किताब। जिसमें मोदी युगीन लोकधर्मिता को बड़े ही स्पष्ट ढंग से व्यक्त किया गया है।
संजय जी सच को सच कहना जानते हैं, इसीलिए इस पुस्तक में उन्होंने पिछले तीन वर्ष में मोदी जी के लिए जो लगा वह कह दिया। उसमें कुछ सकारात्मक है, तो नकारात्मक भी, लेकिन फिर भी इस पुस्तक के लेख बड़े ही सधे और सुलझे हुए हैं। हो सकता है कि कुछ लोग इस पुस्तक में राजनैतिक पूर्वाग्रह खोज लें, वे इसके लिए स्वतंत्र हैं। यह पुस्तक जो कहती है सच कहती है, सच के सिवा कुछ नहीं। यह एक तरफ मोदी सरकार को राह दिखाती है, तो दूसरी तरफ आईना भी, साथ ही यह सत्ता की खुमारी में सोए हुए लोगों की तंद्रा भी जाग्रत करती हुई नजर आती है। इसकी लोक प्रसिद्धि के कारण ही पहले-पहल प्रकाशन से प्रथम संस्करण के तुरंत बाद ही इसका दूसरा संस्करण भी यश प्रकाशन से अभी हाल ही में प्रकाषित हुआ है।
आइए अब बात विस्तार से बात करते हैं पुस्तक के पैरामीटर की। दो समीक्षाओं, 63 आलेखों सहित कुल 246 पृष्ठों में अपनी विषय-वस्तु को समाहित किए यह पुस्तक राजनेताओं और राजनीति के जातीय जीवन का अंकन करती हुई नजर आती है। इसमें मोदी सरकार के त्रिवर्षीय कार्यकाल का ब्यौरेबार चित्रण जितना विस्तृत है, उतना ही उसका सूक्ष्म संवेदनात्मक अंकन भी है। ‘मोदी युग‘ में भाजपा के स्वर्णिम समय का एवं प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी की चारों ओर फैली प्रसिद्धि का उल्लेख तो किया ही गया है, साथ ही जातिवादी राजनीति के बुरे दिनों का भी स्पष्टीकरण किया गया है। मोदी सरकार की चुनौतियॉं, उसकी गलतियॉं, उसकी अच्छाईयॉं, जातिवादी राजनीति, काश्मीर मुद्दा, जेएनयू प्रकरण, आभासी साम्प्रदायिकता, भारत-पाक रिश्ते, सत्ता को मानवीय और जनधर्मी बनाने की चुनौतियॉं, शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था की वास्तविक स्थिति और सरकार की भूमिका, कालेधन का मुद्दा, मेक इन इंडिया की थ्योरी, जनतंत्र में अवसरवादिता और परिवार वादिता का स्पष्टीकरण ही इस पुस्तक का आधार है।
मोदी और इतर राजनैतिक पेचों का बेबाकी से जिक्र करना और इसकी विसंगतियों की सारी सच्चाईयॉं परत-दर-परत खोल देना यह विवेक और चिंतन की उॅंचाईयों का परिणाम है, तथा इन्हीं उॅंचाईयों को छूने का प्रयास संजय जी की इस पुस्तक में किया गया है। वे अपनी इस पुस्तक के माध्यम से सरकार को नए उत्साह और समय को सकारात्मक ढंग से लेेने की सलाह देते हैं न कि शासन के कंधों को कमजोर करना चाहते हैं।
संजय जी की यह पुस्तक लेखन की कई शर्तों को अपने साथ लेकर चली है। इसमें सबसे प्रमुख शर्त है सपाट बयानी। इसी के चलते संजय जी ने जो कहा है वह बड़ी बेबकी से कहा, चाहे वह सरकार के पक्ष में हो या विपक्ष में। इस पुस्तक में एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल की सफलता है, वहीं दूसरी तरफ कई गलतियों के प्रति सचेत रहने का आग्रह भी है, वहीं विपक्ष की बेचैनी, जद्दोज़हद और किंकर्तव्यविमूढ़ता का भी बड़ी ही निर्भीकता से विवेचन किया है। कुल मिलाकर कई अनेक रंगों को अपनी इस एक पुस्तक में पिरोने का साहस संजय द्विवेदी जी ने किया है। इनका लेखकीय कैनवास काफी बड़ा है। इनके लेखों में मोदी युग की हरेक आहट के नए-नए दृष्यों को तलासा और तरासा गया है, जिसमें सिकुड़ते राष्ट्रीय दलों के जनाधार, भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग, चुनावों में मीडिया की भूमिका, मोदी युगीन आलोचक और उनकी आलोचना में हड़बड़ाहट, वचनीयता से कर्मणीयता की ओर जाती भाजपा, शिक्षा और राजनीति से मोदी के सरोकार, जहरीली जुबान से घायल लोकतंत्र के स्पष्टीकरण के माध्यम से इस पुस्तक में भोर की पहली किरण के साथ हसीन उजालों की सुगबुगाहट मिलती है। किसी एक कौने में पड़ा हुआ असफलता और आलोचना का एक छटपटाता हुआ पन्ना भी खुलता है, और इस पन्ने पर बड़े ही सलीके से मोदी युगीन दासतॉं लिखी जाती है। इस पुस्तक में कश्मीर भी अछूता नहीं रहा है। इस पुस्तक का एक लेख ‘कश्मीर: इतिहास में अटकी सुईयॉं‘‘ सामासिकता और सामयिकता से परिपूर्ण है। हम जानते हैं कष्मीर में चाहे पनपता आतंकबाद हो या उससे जनित एक विशेष जन-समुदाय के ‘विस्थापन‘ की विवशता या धारा 370, यह कश्मीर की ही नहीं सम्पूर्ण भारत वर्ष की समस्या रूप में आज सामने है, और बड़े ही लम्बे विमर्श का विषय है, लेकिन इस समस्या को सुलझाने हेतु भाजपा के सार्थक प्रयास, और आलोचना करने के लिए आलोचना करने वाली विपक्षी पार्टियों की मनःस्थिति का उल्लेख बड़े ही प्रभाव पूर्ण ढंग से किया है। कुल मिलाकर ‘मोदी संस्कृति को केन्द्र में रखकर जो बिम्ब इस किताब में उकेरे गये हैं, वे प्रभावपूर्ण तो हैं ही साथ ही राजनीति जनित आक्रोश और आकुलता को बड़े ही सजीव तरीके से रूपयित भी करते हैं। अनूभूयमान यथार्थ के माध्यम से नरेन्द्र मोदी के पिछले तीन वर्ष के कार्यकाल और उनकी स्थिति को समझने-देखने की क्षमता संजय जी की अद्भुत प्रतिभा/मनस्विता का परिचय देती है।
विरोधाभासी शैली इस्तेमाल इस पुस्तक की खास पहचान है। व्यंग्य के नुकीले बाणों, कैक्टस के नुकीले कांटों की तरह पाठक के अन्तर्मन को छूते हुए उसके मस्तिष्क में एक कौंध जगाना यो एक सरल कार्य तो नहीं है, लेकिन इस किताब में यह ‘खूबी‘ बखूबी देखने को मिलती है। जो पाठक को ही नहीं झिंझोड़ती बल्कि सत्तासीन और सत्ताच्युत को भी बहुत-कुछ सोचने और विमर्श करने पर मजबूर कर देती है।
भारतीय राजनीति के इस त्रासदीय युग में मोदी की प्रतिष्ठा ने विपक्ष के ही नहीं बल्कि अन्य शत्रु देशो के शासनाध्यक्षों के मन-मस्तिष्क को बहुत गहरे तक आक्रांत कर दिया है। मोदी पीड़ा उनके रोम-रोम में समा गई है। क्यों कि जो वह सोच भी नहीं पाये वह मोदी ने कर डाला। मोदी युग की त्रिवर्षीय सफल स्मृतियों से लेकर, संघ की वास्तविक स्थिति और विपक्ष के दावपेच इस पुस्तक के लेखों में उभर-उभर कर सामने आते हैं।
बहुज्ञता और वैविध्य ‘मोदी युग‘ में देखने को मिलता है। इसमें कहीं विपक्ष की बेबसी है तो कहीं मोदी सरकार का कर्मोत्साह है। कहीं सरकार की दीनता है तो अकर्मण्यों का आक्रोश। कहीं कश्मीर की चीख है तो, कहीं जनता का मूक संगीत। कुल मिलाकर इस पुस्तक में मोदी युगीन हर अनुभूति का समायोजन इस पुस्तक के विभिन्न लेखों में बड़ी कुशलता और सटीकता से हुआ है। इसीलिए इस पुस्तक को पढ़ने के बाद फणीश्वर नाथ रेणु का ‘मैला आंचल‘ में निहित वह कथन याद आ जाता है, जो इस पुस्तक पर भी सार्थक होता है‘ कि इसमें ‘‘फूल भी हैं, शूल भी हैं, धूल भी हैं, गुलाब भी, कीचड़ भी, चन्दन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी, संजय जी किसी से भी दामन बचा के निकल नहीं पाए।‘‘ वैसे देखा जाए तो सच का उत्साह, आदमी को किरदार की आईनसाजी का हुनर सिखाता है। यह हुनर द्विवेदी जी लेखन का आत्मबल है अतः कहा जा सकता है कि संजय जी की यह पुस्तक ‘मोदी युग‘ एक प्रकार की युगध्वनि है, जो मोदी जी की लोकप्रियता को समझने के इच्छुकों को सचमुच एक तोहफे के समान है। अपनी विशिष्ट भावाभिव्यक्ति तथा मोदी युगीन विषय-वस्तु की दृष्टि से यह पुस्तक न केवल पठनीय बन पड़ी है, अपितु मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करने वाला एक सुचिन्त्य एवं संग्रहणीय दस्तावेज भी बन पड़ा है।
डॉ0 भूपेन्द्र हरदेनिया