तक़रार क्या करूं...
जो कुछ कहो क़ुबूल है तक़रार क्या करूं, शर्मिंदा अब तुम्हें सर-ए-बाज़ार क्या करूं, मालूम है की प्यार खुला आसमान है, छूटते नहीं हैं ये दर-ओ-दीवार क्या करूं, इस हाल मे भी सांस लिये जा रहा हूँ मैं, जाता नहीं हैं आस का आज़ार क्या करूं, फिर एक बार वो रुख-ए-मासूम देखता, खुलती नहीं है चश्म-ए-गुनाहगार क्या क