सरकारें बदल जाती है, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलती। चुनावी मुलम्मा खड़ा किया जाता है, लेकिन जनतंत्र की आवाज़ को क्यों अनसुना कर दिया जाता है। सामाजिक पैरोकार बनने की बात होती है, लेकिन हकीकत से व्यवस्था मुँह क्यों मोड़ लेती है। तो क्या अब समय आ गया है, कि जनता उग्र हो