सरकारें बदल जाती है, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलती। चुनावी मुलम्मा खड़ा किया जाता है, लेकिन जनतंत्र की आवाज़ को क्यों अनसुना कर दिया जाता है। सामाजिक पैरोकार बनने की बात होती है, लेकिन हकीकत से व्यवस्था मुँह क्यों मोड़ लेती है। तो क्या अब समय आ गया है, कि जनता उग्र हो जाए, अपने अधिकारों के लिए, कि बहुत हुई वादों की बरसात, अब करो तुम जनता के हित की बात। दुःखद स्थिति शायद यहीं है, जो अधिकार जनता को मिलते भी है, उनका सकल प्रयोग आवाम करती नहीं। इसलिए लोकतांत्रिक व्यवस्था जनता के साथ फ़रेब और छलावा करना सीख गई ही नहीं। इस कला में लोकशाही व्यवस्था शत- प्रतिशत निपुण और पारंगत हो गई है। ऐसे में व्यवस्था परिवर्तन सिर्फ़ और सिर्फ़ सत्ता के केंद्र में
राजनीति क दल और राजनीतिक रंग में परिवर्तन भर का नाम निरीक्षण करने पर पता चलता है। देश का दुर्भाग्य तो देखिए व्यवस्था ने लोगों की समस्याओं को हरने से पहले अपने हितोउद्देश्य के लिए राजनीतिक दल को भी रंगों के फ़ेर में उलझा दिया है। संवैधानिक शब्द हम की भावना भ्रष्टाचार और राजनीतिक हित के लिए मैं की अवधारणा से प्रेरित दिखने लगी है। राजनीति पर चुनावी रणनीति हावी हो रहीं है।
व्यवस्था शायद अपाहिज हो चली है, लेकिन सुधार की बात न होकर सारी बात जांच और न्याय दिलाने पर आकर अटक जाती है, यह तरीका सियासतदानों और प्रशासनिक सिपहसलारों को आसान इसलिए लगता है, क्योंकि न्याय दिलवाने और जांच का अंजाम लोकतंत्र के नाक तले किस हश्र तक पहुँचता है, उससे अनभिज्ञ कोई है नहीं। जब समस्याओं को हर लेने की संजीवनी हाथ मे होने का दावा करके कोई सत्ता में आता है, तो जनतंत्र की अपेक्षाओं की आस भी बढ़ जाती है, लेकिन अगर परिणाम ढाक के तीन पात ही हो, फ़िर दूर के ढ़ोल सुहावने वाली कहावत ही सटीक लगती है। आज लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन का असर उतना ही दिखता है, जितना कोई आदमी नया चोला ओढ़ लेता है। सियासतदां के चोले बदल जाते हैं, लेकिन नीतियों और व्यवस्था में परिवर्तन शायद दिखता नहीं। रही बात सुधार की तो वह कोई चांद से तारे तोड़ने जितना मुश्किल भी नहीं, लेकिन जब दिल्ली में कोई सरकार आम आदमी के नाम से आए, औऱ तमाम जुमलों और चुनावी वादों की बरसात करके आए, फ़िर पानी के दामों में फेरबदल की बात साबित करती है, सरकारे जरूर लोकतंत्र में बदल रहीं हैं, लेकिन कार्यप्रणाली उसी ढ़र्रे पर रेंगने को मजबूर है। जब देश की आज़ादी के सत्तर साल बीत गए, और राजनीति अपने लिए सत्ता की जुगत में करोड़ों- अरबों रुपए फूंक सकती है। ऐसे में यह नौबत क्यों आती है, कि डॉक्टर को टॉर्च की रोशनी में ऑपरेशन करना पड़ता है?
क्यों भूख के कारण बच्चों की मौत हो जाती है? ग़रीब की मौत पर उसका शव उठाने के लिए विकसित अवस्था की तरफ़ बढ़ते देश में एम्बुलेंस उपलब्ध क्यों नहीं हो पाती? पीने के लिए स्वच्छ पानी रहनुमाई व्यवस्था उपलब्ध क्यों नहीं करा पाती? इन समस्याओं के लिए दोषी कोई एक राजनीतिक परिपाटी नहीं है। जन महत्वकांक्षाओं से ज़ुड़े मुद्दों पर कार्य करने की नीति और साफ़ नियत की कमी लोकतंत्र का हिस्सा बन चुकी है, वरना इन मुसीबतों से टक्कर लिया जा सकता है, और शायद व्यवस्था इससे उभर भी जाती। पर फ़िक्र तो मंदिर मस्जिद औऱ जाति-धर्म से आगे बढ़ पाती नहीं। बात किसी भी सियासी रंग की हो, वह चाहें भगवा, लाल सलाम औऱ अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने की फ़िक्र रखने वालों की हो, शायद सभी ने अपने लिए एक सुरक्षित जोन चुनने की कोशिश है, जिससे जनतंत्र में मत को साधा जा सकें, फ़िर ऐसे में भले ही जनता अभी तक इस व्यवस्था के रहते हुए अपने जीवन को सुरक्षित जोन उपलब्ध न करा सकी हो।
किसी के पास रहने के लिए घर नहीं, कोई दाने के लिए मोहताज है, फ़िर भी सियासतदानों को नाज लोकतंत्र पर है। सभी के वादे जनता को सुविधाएं दिलवाने के रहता है, उस परिस्थितियों में अगर बाज़ार में नमक भी लगभग सौ रुपए की कीमत का आ जाएं, और पानी भी ख़रीदकर पीने की नौबत आ जाएं, फ़िर स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है, जनतंत्र और लोकतंत्र की आड़ में चुनावी तंत्र आवाम की भलाई के लिए किस स्तर तक सक्रिय है। जिस बिजली, पानी को मुद्दा बनाकर आम आदमी की सरकार दिल्ली में आई थी, उसी दिल्ली में जल बोर्ड ने पानी की दरों में बढ़ोतरी को पारित कर दिया है। अब इस फैसले के बाद एक महीने में 20 हजार लीटर से ऊपर पानी के इस्तेमाल पर 20 प्रतिशत बढ़ा हुआ मूल्य जनता को चुकाना होगा। इसके अलावा अगर उन्नाव जिले की नवाबगंज सीएचसी में 32 मरीजों की आंख का ऑपरेशन टार्च की रोशनी में करने का मामला सामने आया है। साथ में ऑपरेशन के बाद मरीजों को बेड की बजाय जमीन पर लिटा दिया गया और उन्हें दवाइयां भी नसीब नहीं हुई। फ़िर सुधार की कैसी रवायत देश मे पनप रहीं है। उसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
ऐसे में प्रश्न यही, इस तरीक़े की दिल दहला देने वाली स्थिति उत्पन्न ही क्यों होती है, कि डॉक्टर्स को टॉर्च की रोशनी में ऑपरेशन करने पड़ें। सरकारें बदल रहीं हैं, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदल रही? ऐसे बदलावों से आखिर बदल क्या रहा है। सिर्फ चेहरे, तो इन चेहरों में बदलाव से तो देश का भला होना नहीं, अगर काम करने की नीयत नहीं बदली। तो कोई निष्कर्ष निकलने वाला नहीं। देश में नारों से सरकारें बदल जाती हैं , लेकिन सरकारी व्यवस्था नही। तभी तो कहीं सरकारी एम्बुलेंस में शराब मंगवाई जाती है , तो कहीं एम्बुलेंस और सुविधाओं के अभाव में प्रसूता सड़क पर बच्चें को जन्म देने को विवश हो जाती हैं। डॉक्टर को मोटी फ़ीस चाहिए, और तीमारदार लाश कंधो पर ढोता है। जिसे भगवान का दर्जा दिया जाता है, वहीं शैतान का रूप तब धारण कर लेता है, जब उसके हड़ताल की वजह से मरीज दम तोड़ता है। शायद यहीं बदलते हिन्दुस्तान का सच है। इस स्थिति में बदलाव तभी आएगा, जब सियासतदारों की सोच और कार्यप्रणाली में आएगा, जो बेहतर लोकतंत्र और जनतंत्र की भलाई के लिए आवश्यक है। रहीं बात अगर पैसों की कमी की वजह से देश की आवाम के साथ खिलवाड़ हो रहा है, तो क्यों न चुनावी ख़र्च और अन्य सरकारी ख़र्च पर नीति-नियंत्रणकर्ता कटौती करके समुदायिक व्यवस्था में सुधार की दिशा में निवेश किया जाए।