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शहज़ादा -उर्दू अफ़साना – कृष्ण चन्द्र

10 जून 2015

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featured imageशहज़ादा कृष्ण चन्द्र सुधा ख़ूबसूरत थी ना बदसूरत, बस मामूली सी लड़की थी। सांवली रंगत, साफ़ सुथरे हाथ पांव, मिज़ाज की ठंडी मगर घरेलू, खाने पकाने में होशयार, सीने पिरोने में ताक़, पढ़ने लिखने की शौक़ीन, मगर ना ख़ूबसूरत थी ना अमीर, ना चंचल, दिल को लुभाने वाली कोई बात उस में ना थी। बस वो तो एक बेहद शर्मीली सी और ख़ामोश तबीयत वाली लड़की थी. बचपन ही से अकेली खेला करती, मिट्टी की गुड़िया बनाती और उन से बातें करती। उन्हें तिनकों की रसोई में बिठा देती और ख़ुद अपने हाथ से खेला करती। जब कोई दूसरी लड़की उस के क़रीब आती तो गढ़ियों से बातें करते करते चुप हो जाती। जब कोई शरीर बच्चा उस का घरौंदा बिगाड़ देता तो ख़ामोशी से रोने लगती। रो कर ख़ुद ही चुप हो जाती और थोड़ी देर के बाद दूसरा घरौंदा बनाने लगती। कॉलेज में भी उस की सहेलियां और दोस्त बहुत कम थे। वो शर्मीली तबीयत अभी तक उस के साथ चल रही थी, जैसे उस के माँ बाप की ग़रीबी ने बढ़ावा दे दिया हो।उस का बाप जीवन राम नाथु मिल वाच मरचैंट के यहां चांदनी चौक की दूकान पर तीस साल से सेल्ज़ मैन चला आ रहा था। उस की हैसियत ऐसी ना थी कि वो अपनी बेटी को कॉलेज की तालीम दे सके। इस पर भी जो उस ने अपनी बेटी को कॉलेज में भेजा था, महिज़ इस ख़्याल से कि शायद इस तरीक़ा से उस की लड़की को कोई अच्छा ख़ावींद मिल जाएगा। कभी कभी उस के दिल में ये ख़्याल भी आता था, मुम्किन है कॉलेज का कोई अच्छा लड़का ही उस पर आशिक़ हो जाये। मगर जब वो सुधा की सूरत देखता, झक्की हुई गर्दन, सिकुड़ा हुआ सीना, ख़ामोश निगाहें ,और उस की कम गोई का अंदाज़ा करता तो एक आह भर कर चुप हो जाता और अपना हुक़्क़ा गड़ गढ़ाने लगता। सुधा के लिए तो कोई बर घेर घार कर ही लाना होगा। मगर मुसीबत ये है कि इस तरह के बर बड़ा जहेज़ मांगते थे और उस की हैसियत ऐसी ना थी कि वो बड़ा तो क्या छोटा सा भी जहेज़ दे सके। ज़हन के बहाओ में बहते बहते उस ने ये भी सोचा कि आजकल मुहब्बत की शादी बड़ी सस्ती रहती है। अब मालिक राम की बेटी गोपी को ही देखो, बाप हैल्थ मिनिस्ट्री में तीसरे दर्जे का क्लर्क है मगर बेटी ने एक लख पती ठेकेदार से शादी कर ली है। जो उस के साथ कॉलेज में पढ़ता था। बाप क्वार्टरों में रहता है। मगर लड़की एयर कंडीशंड मोटरकार में बैठ कर अपने मैके वालों से मिलने आती है। हाँ मगर गोपी तो बहुत ख़ूबसूरत है और हमारी सुधा तो बस ऐसी है जैसे उस की माँ। इस के लिए तो किसी बर को घेरना ही पड़ेगा। जिस तरह सुधा की माँ और उस के रिश्ते वालों ने मुझे घेरा था। दो तीन जगह सुधा की माँ ने बात चलाई थी। मगर वो बात आगे ना बढ़ सकी, मगर एक बार तो उस ने बंद इतना मज़बूत बांधा कि लड़का ख़ुद घर चल कर सुधा को देखने आ गया। मगर सुधा उसे पसंद ना आई। लड़का ख़ुद भी कौन सा अच्छा था? मोह चेचक मारा, ठन्गना सा, उस पर हकलाता था, जामुन का सा रंग, मगर गोरी लड़की चाहता था और जहेज़ में एक स्कूटर मांगता था। यहां सुधा का बाप एक साईकल तक ना दे सकता था। इस लिए मुआमला आगे चलता भी तो कैसे चलता? पुरी कहानी यहाँ` पढ़े
नुकूश

नुकूश

धन्यवाद !

11 जून 2015

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

सुन्दर लेखन, अति सुन्दर कहानी...बधाई !

11 जून 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

चन्द्र कान्त जी, कहानी बहुत ही खूबसूरत है...बधाई !

11 जून 2015

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शहज़ादा -उर्दू अफ़साना – कृष्ण चन्द्र

10 जून 2015
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शहज़ादा कृष्ण चन्द्र सुधा ख़ूबसूरत थी ना बदसूरत, बस मामूली सी लड़की थी। सांवली रंगत, साफ़ सुथरे हाथ पांव, मिज़ाज की ठंडी मगर घरेलू, खाने पकाने में होशयार, सीने पिरोने में ताक़, पढ़ने लिखने की शौक़ीन, मगर ना ख़ूबसूरत थी ना अमीर, ना चंचल, दिल को लुभाने वाली कोई बात उस में ना थी। बस वो तो एक बेहद शर्मीली

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मोहसिन नकवी का एक शेर

11 जून 2015
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ए दोस्त! झूट आम था दुनिया में इस क़दर तू ने भी सच्च कहा तो फ़साना लगा मुझे

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मुहब्बत की तबीयत में

11 जून 2015
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मुहब्बत की तबीयत में ये कैसा बचपना क़ुदरत ने रखा है Amjad Islam Amjad कि ये जितनी पुरानी जितनी भी मज़बूत हो जाये उसे ताईद-ए-ताज़ा की ज़रूरत फिर भी रहती है यकीं की आख़िरी हद तक दिलों में लहलहाती हो हज़ारों तरह के दिलकश हसीं हाले बनाती हो उसे इज़हार के लफ़्ज़ों की हाजत फिर भी रहती है मुहब्बत मां

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