अलविदा दिल्ली...एक बार फिर से । ये तीन महीनें में दूसरी बार है कि मुझे दिल्ली आना पड़ा... लेकिन दिल्ली ने नहीं बुलाया था...अगर बुलाया होता तो यूँ छोड़ कर थोड़े ही चला आता ।
दिल्ली से तो वैसे काफी पुराना रिश्ता रहा है । बहुत सी यादें जिंदगी के इस उथल-पुथल में कहीं दफन सी हो गयी... बहुत सी यादें अब भी ताज़ा है - या शायद हमेशा ही ताज़ा ही रहेंगी ।
पहली बार यहाँ आया था पापा के साथ...घूमने । तब हमेशा से लाल किले और इंडिया गेट की तस्वीरें जेहन में कैद सी थी ,किताबों के माध्यम से ,टीवी में देखा था... । हमेशा से जिज्ञाशा रही दिल्ली को जानने की , समझने की , देखने की । ट्रेन में पूरे रास्ते एक तस्वीर बुनता रहा जेहन में । मैं सवाल पर सवाल किए जाता और पापा मेरे पूछे हर सवाल का जवाब भरसक कोशिश करते रहे देने की ,लेकिन मेरे सवाल कहाँ खत्म होने वाले थे । वैसे तो काफी कम दिन ही रहा तो शायद काम ही समझ पाया दिल्ली को...।
तीन-चार साल बाद फरवरी के वो महीना था जब दुबारा जाना हुआ । इस बार पहले से ज्यादा रोमांच था , इतने सालों में दिल्ली को थोड़ा और जाना...किताबों में पढ़ा ।
एक दिन सुबह मैं बालकोनी में ऐसे ही खड़ा था...धूप का आनंद ले रहा था । तभी सामने नज़र पड़ी , मेरे ही हमउम्र की एक लड़की शायद अपने बालों को सुखा रही थी । दो-तीन बार तो अनदेखा कर दिया , फिर पता नहीं क्यों मैं बड़ी गहराई से उसे देखने लगा । एक अप्रत्याशित सी खूबसूरती देखी उसमें । मुझे लगा शायद सुबह में हर चीज़ खूबसूरत ही दिखती है...दुबारा देखा , पहले से भी ज्यादा खूबसूरत दिखी...देखते-देखते पता नहीं कब "मैं वहीं दिल्ली"का हो गया ।
फिर क्या था अब तो हर सुबह दिन वहीं से शुरू होता...उसी कहानी से । सिलसिला चलता रहा...। एक दिन उसने पूछ ही लिया " आप इसमें नए किरायेदार आये हैं क्या ?" मैनें बोला "किरायेदार का तो पता नहीं , लेकिन यहां परमानेंट रहने का वजह ज़रूर मिल गया "वो थोड़ा मुस्कुराई लेकिन उसके दुबारा बोलने से पहले ही बोल बैठा "आप यहाँ ऐसे रोज ही आती हो क्या "? वो थोड़ा सा झेंपते हुए बोली " हाँ ,जो ही आती हूँ , और शाम को भी छत पर ही रहती हूँ " मन ही मन सोचने लगा "लो , अब उधर से भी शायद ग्रीन सिग्नल आने लगा "...फिर मैंने बोला " रोज मत आया करो सुबह...एक तो सुबह इतनी खूबसूरत और ऊपर से आप...आफत ही हो जाती है "...। इसके बाद तो कहानी ही शुरू हो गयी...हमारी...हमदोनों की..🙂
कल शाम को वहीं...उसे गली में गया था । जाते ही सालों से धूल फांकते यादों के पन्ने परत-दर-परत खुलने लगे । वो सुबह , वो शाम , वो गली में मोड़ पर गोलगप्पे की रेड़ी , वो अंकल की रिचार्ज की दुकान...याद सबकुछ आ रहा था...पर सामने सब बदल चुका था ।
वो घर अब बड़ा हो गया है...गली पूरी तरह से बदल गयी है...ना अब अंकल है न वो गोलगप्पे वाला...😑
समय भी कितना अजीब होता है न...एक बार तो सबकुछ जैसे छीन लेता है...फिर सालों बाद वहीं लाकर छोड़ देता है...अनगिनत सवालों के साथ...जवाब ढूंढने में जैसे उम्र ही बीत जाए...।
आज सुबह जब वापस आ रहा था तो पीछे मुड़ के देखा तो लगा शायद उसी बालकोनी के कोई देख रहा है...जब नज़रें घुमाईं तो गायब...। ये याद ऐसी होती ही है...कभी हम यादों से लुकाछिपी खेलते तो कभी यादें हमसे लुकाछिपी खेलती...इसी लुकाछिपी में ही तो ये उम्र काट रही है...!
आज सुबह जब उस गली का जब आखिरी कदम रखा तो लगा जैसे सबकुछ छोड़ कर जा रहा हूँ...एक अनजान से रास्ते पर...बेवजह...जैसे सालों पहले छोड़ के गया था...!
Param...✍️✍️✍️