मनुष्य वह है जो दूसरों के सुख-दुख और विषम परिस्थितियों में उसका साथ दे। हर मनुष्य सुविधासंपन्न हो, यह जरूरी नहीं है । समाज में बहुत ऐसे लोग हैं जिनको दूसरों के सहयोग की जरूरत होती है। जरूरत के समय दूसरों के काम आना ही परोपकार कहलाता है। हर मनुष्य के हृदय में परोपकार की भावना होनी चाहिए। समाज की परिस्थितियों पर गौर करें तो यह निष्कर्ष निकलता है कि समाज में रहने वाले हर व्यक्ति, वर्ग और समुदाय के लोगों का जीवन समरूप नहीं है । जीवन जीने के लिए जीवनोपयोगी वस्तुओं का होना आवश्यक है और जीवनोपयोगी वस्तुओं के संचय के लिए मनुष्य के पास जीविका का साधन मौजूद होना भी जरूरी है। समाज के संपन्न व्यक्तियों का जीवन यापन कुशलतापूर्वक संभव है क्योंकि उनके पास सुविधा के सर साधन मौजूद है। परंतु समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनके पास खाने-पीने के साधन मौजूद नहीं है, ऐसे लोगों का जीवन प्रतिदिन कुंआ खोदना और प्रतिदिन पानी पीने जैसा है अर्थात इन लोगों के में सुबह-शाम का चूल्हा तब जलता है जब ये लोग दिनभर जी-तोड़ मेहनत करते हैं । समाज के ऐसे लोगों को देखकर मन से कोमल लोगों का हृदय द्रवित होना लाजिमी है।
जब मन में दूसरों के दुखों को देखकर दिल में संवेदनाएं प्रकट होती हैं तो मन में परोपकार की भावना जागृत होती है और जब परोपकार की धुन मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर सवार होती है तो वह दूसरों के हित के लिए खुद को समर्पित कर देता है। मनुष्यता भी यही कहती है कि वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो अपना जीवन दूसरों के लिए समर्पित कर दे। मनुष्य का जीवन तब सार्थक होता है जब वह अपने संसाधनों से दूसरों का दुख दूर करता अथवा उसकी परेशानियों को दूर करने में मदद करता है । *"मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए जिए"* यह प्रेरणादायक उद्धरण यह संकेत देता है कि मनुष्य को परोपकारी होना चाहिए । परोपकारिता पर महर्षि वेदव्यास ने कीर्ति स्वरूप अठारह पुराणों के सार के रुप में कहा है : *परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्* अर्थात, दूसरों का उपकार करने से पुण्य होता है और दुःख देने से पाप । इस संदर्भ में एक प्रचलित कहावत भी है: *परहित सरिस धरम नहिं भाई* अर्थात, दूसरों की भलाई करने से अच्छा कोई धर्म नहीं है।
मनुष्य इस सृष्टि की अनमोल कृति है। मनुष्य जगत का सबसे संवेदनशील प्राणी है, उसके पास अपनी चेतना है इसलिए वह अपने विचारों का सृजन कर उसका आदान-प्रदान कर सकता है। उसके विशाल हृदय में परोपकार की भावना भी होती है। इसलिए मनुष्य को अपने जीवन का कुछ अंश दूसरों के लिए समर्पित कर देना चाहिए। याद रखिए, दूसरों के चेहरे पर मुस्कान लाने से अच्छा और कोई पुण्य कार्य नहीं है । दूसरों के चेहरे पर मुस्कान वहीं ला सकता है जो दूसरों की पीड़ा को महसूस करता है । दूसरों की पीड़ा समझने के लिए खुद का सुख और ऐश्वर्य का त्याग कर एक सामान्य जीवन जीना होगा, साधारण कपड़े पहनना होगा और सुख के साधनों का उपयोग न करते हुए अपने खान-पान और जीवनशैली को भी बदलना होगा , तब जाकर दूसरों के दुख दर्द का एहसास होगा । बहुत से ऐसे समाजसेवी हैं जो प्रतिदिन नियमित रूप से मंदिरों और मठों के आसपास और स्लम एरिया में रहने वाले लोगों को भोजन उपलब्ध कराते हैं। यह भी उनकी संवेदना है जो गरिबों के लिए जागृत होती है । स्लम एरिया में रहने वाले स्कूली बच्चों के पास ना तो संसाधन उपलब्ध होता है और न ही उनकी शैक्षणिक सहायता के लिए कोई मददगार होता है , ऐसे में स्वयंसेवी संगठनों के पदाधिकारी और कार्यकर्ता स्लम एरिया के बच्चों को शिक्षित करने का संकल्प लेकर उनकी मदद करते हैं ।
समाजसेवा और परोपकारी जीवन के लिए यह जरूरी नहीं कि व्यक्ति हर जगह और हर समय उपलब्ध ही हो, बहुत से ऐसे समाजसेवी संगठन हैं जो दूसरों के आर्थिक सहयोग से ही संचालित होते हैं। ऐसे समाजसेवी संगठनों को आर्थिक सहायता राशि देकर भी समाजसेवा की जा सकती है । पिछले दो वर्षों से कोरोनावायरस की चपेट में आने वाले लोगों की परेशानियों से हम सब वाकिफ हैं , जनमानस ने यह भी देखा कि बहुत से लोग अपनी जान की परवाह किए बिना दूसरों की जान बचाने में लगे रहे । अपने दम पर दवाइयां और ऑक्सीजन सिलेंडर उपलब्ध कराने और अस्पतालों में इलाज के लिए भर्ती प्रक्रिया में सहयोग कर कुछ लोगों परोपकारिता की अद्भुत मिसाल कायम की। ऐसे लोग दिव्य गुणों से भरपूर हैं और वंदनीय भी। सच पूछिए तो समाजसेवा एक ईश्वरीय गुण है , जो हर किसी व्यक्ति में नहीं हो सकता । जिस किसी ने भी इस गुण को आत्मसात कर लिया उसका नाम युगों-युगों तक लोगों के मन-मस्तिष्क में छा गया और वह अमर हो गया।
परोपकार के लिए अत्यधिक धन-दौलत की आवश्यकता नहीं है , समय की भी पाबंदी नहीं है । यदि आपके अंदर दूसरों के प्रति संवेदना है तो आप अपने अंदर परोपकार का जज्बा पैदा कर सकते हैं । मसलन आप सरकारी योजनाओं के बारे में गरीब लोगों को जागरूक कर के भी उनकी मदद कर सकते हैं और यदि आप इस योग्य हैं कि आप गरीब लोगों को स्वरोजगार उपलब्ध क्या सकते हैं तो यह सोने पर सुहागा वाली बात हो जाती है । यकिन मानिए, दूसरों को सुख पहुंचाने के पश्चात खुद को सुख की जो अनुभूति प्राप्त होगी उसका कोई मोल नहीं है और आत्मसंतुष्टि ही सबसे उत्तम सुख है। जो व्यक्ति दूसरों की मदद करता है , दूसरों के दुखों और परेशानियों में उसकी मदद करता है वह ईश्वर तुल्य और पूजनीय और पूजनीय होता है । मनुष्य को अपने जीवन का एक ध्येय यह भी होना चाहिए कि उसके संसाधनों का कुछ अंश जरूरतमंद लोगों के काम आए । सेवाभाव से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उसके द्वारा किया गया कार्य वाहवाही लूटने के लिए नहीं बल्कि दूसरों की पीड़ा को महसूस करने और उसे दूर करने के लिए है । जिस दिन मनुष्य ने दूसरों की पीड़ा महसूस कर लिया उसी दिन से ही उसका जीवन एक परोपकारी जीवन के रुप में अवतरित हो गया ।