दीवारों से रहित झोंपड़ी , आवाजें आती तो हैं ।
रस्सी के झूले पर लोरी ,माताएं गाती तो हैं ॥
दो टुकड़े रोटी के लेकर दोनों भाई झगड़ पड़े ।
फिर मिलजुलकर बड़े प्रेम से, संतानें खाती तो हैं ॥
साँझ ढले सारंगी के स्वर ,मंद पवन में बिखर रहे ।
उर जर्जर सी व्यथित जिंदगियां , चिर शांति पाती तो हैं ||
तपती दोपहरी में सर पर धुप लिए खेतों तक की ।
चुनचुनकर बातें फसलों की ,खैर खबर लाती तो हैं ॥
सर पर चुनरी डाल नवेली वधुएँ पानी लेने को ।
दूर तलक घघरी ले ले कर पनघट तक जाती तो हैं ॥
आँगन के बिरछे के ऊपर ऋतू बसंत में गा - गा कर ।
मधुर कलापों से कोयलियां , मन भर मदमाती तो हैं ॥
लग जाती हैं बड़ी बैठकें, कुछ अनपढ़ से लोगों की ।
मिल जुलकर के कठिन समस्यायें ये सुलझाती तो हैं ॥
त्योहारों पर एक दूजे के दुखड़ों में सहभागी बन ।
प्रेमभाव से भर आँखें दो आंसू छलकाती तो हैं ||