shabd-logo

जरा देखिये

6 अगस्त 2015

234 बार देखा गया 234
ज़माने का कैंसा चलन है निराला जरा देखिये | उन्होंने ही काटा जिन्हे मैंने पला जरा देखिये || वो करते रहे हैं दुआ मेरे मरने की खातिर सदा | दिया है जिन्हे मैंने मूं का निवाला जरा देखिये || मिलेगा तुम्हे जितना बहार से सुंदर सलोना बदन | वो अंदर से उतना ही निकलेगा काला जरा देखिये || कैंसे कहुँ उन दरख्तों ने कितना सताया मुझे | जिन्हे पानी दे दे के सींचा सम्हाला जरा देखिये || मेरी आबरू के निगहवान बन कर रहे जो सदा | उन्होंने बड़े शौक से बेच डाला जरा देखिये || कई रातें गोदी में ले करके जिनको सिसकता रहा | मुझे आज उनने ही घर से निकाला जरा देखिये ||
1

सीख

25 जुलाई 2015
0
1
2

त्वरित करो तय जो करना है। अ-निर्णय की आशंका से, कर्महीन बन क्यों मरना है । असमंजस में समय गॅवाया, हाथ न कुछ आने वाला । पछतावा ही साथ रहेगा, फिरा न पल जाने वाला । निज जीवन के स्वप्न सुहाने व्यर्थ में फिर किससे डरना है.....। अपनी अनुभव की झोली में, चुन चुन कर मोती भर लो । मग के कंटक बीन परे क

2

मेघ

28 जुलाई 2015
0
1
1

प्यासी धरती पर बारिश की, बूॅदे बरसाने वाले । ओ आकाश बिहारी, काले- मेघ तुम्हारा अभिनंदन ।। सघन ग्रीष्म से व्याकुल होते, तप्त धरा के सब प्राणी । जग की तपन मिटाने वाले, मेघ तुम्हारा अभिनंदन ।। यत्र तत्र सर्वत्र बिखेरे, बीज प्रकृति ने उगने को मोहक सृष्टि रचाने वाले, मेघ तुम्हारा अभिनंदन । ग्रीष्म तपन

3

जरा देखिये

6 अगस्त 2015
0
2
0

ज़माने का कैंसा चलन है निराला जरा देखिये | उन्होंने ही काटा जिन्हे मैंने पला जरा देखिये || वो करते रहे हैं दुआ मेरे मरने की खातिर सदा | दिया है जिन्हे मैंने मूं का निवाला जरा देखिये || मिलेगा तुम्हे जितना बहार से सुंदर सलोना बदन | वो अंदर से उतना ही निकलेगा काला जरा देखिये || कैंसे कहुँ उन दरख

4

गीत

7 अगस्त 2015
0
0
4

रेत पर लिखना मिटाना अब नया अंदाज है ।इस समंदर के हृदय में क्या कहें क्या राज हैं ॥सब रिवाजों को परे रख सीपियों का निकलना ।मोतियों के अवतरण हित हर कदम पर नाज है ॥अँधेरों से छिड़ गई अब दीपकों की जंग है ।कोशिशें जारी रखो यह जीत का आगाज है ॥घुल गया आवो हवा में जहर तीखा दोस्तो ।समझदारों की गुमानी से गई

5

आ गया सावन सुहाना |

20 अगस्त 2015
0
0
0

आ गया सावन सुहाना ।मेघ वृष्टि से धरा का ,लगे करने मृदुल सिंचन ।मोर हर्षित नृत्य रत हैं, गा रहे दादुर मुदित मन ।नहाकर वसुधा ने तन पर ,ओढ़ लीन्हा हरित बाना ….| क्षीण सरिताओं की काया , पा गई फिर से जवानी । भरे सूखे ताल वापी,

6

अनुभूति

21 अगस्त 2015
0
3
0

दीवारों से रहित झोंपड़ी , आवाजें आती तो हैं ।रस्सी के झूले पर लोरी ,माताएं गाती तो हैं ॥दो टुकड़े रोटी के लेकर दोनों भाई झगड़ पड़े ।फिर मिलजुलकर बड़े प्रेम से, संतानें खाती तो हैं ॥साँझ ढले सारंगी के स्वर ,मंद पवन में बिखर रहे । उर जर्जर सी व्यथित जिंदगियां , चिर शांति पाती तो हैं || तपती दोपहरी में सर

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए