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आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती

16 जुलाई 2022

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आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती

article-imageदयानंद सरस्वती

आर्य समाज के संस्थापक और हिन्दू धर्म को पुनः जागृत करने वाले भारत के महँ ऋषि दिग्दर्शक और समाज सुधारक श्री दयानंद सरस्वती भारत के एक अनमोल रत्न थे जिनका सम्पूर्ण जीवन मानव और समस्त जीवधारियों  के जीवन को सरल और आनन्दमय बनाने के में ही व्यतीत हुआ प्रस्तुत है इन महान संत के जीवन के बारे में कुछ अद्भुत जानकारियां 

जीवन परिचय 

श्री दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा मोर्वी के पास कठियाबाडा जिला राजकोट गुजरात में हुआ था  इनके पिटा का नाम करशनजी लाल जी तिवारी और माता का नाम यशोदा बाई था इनके पिता कर कलेक्टर थे इनके पिता काफी प्रभावशील ब्राह्मण थे इनका परिवार काफी समृद्ध था इनके पिता ने इनका नाम मूलशंकर रखा बचपन से ही मूल शंकर काफी बुद्धिमान और जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे आरम्भिक जीवन काफी आराम से व्यतीत हुआ बाद में इनके पिता ने इन्हें वेद, संकृति, व एनी धार्मिक पुस्तकों का अध्यन कराया कुशाग्र वुद्धि के होने के कारण 14 वर्ष की उम्र तक इन्होने बहुत से शास्त्रों को कंठस्थ कर लिया था 

बचपन में एक महत्वपूर्ण घटना से इनके जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ इनके क्षेत्र में हैजे का प्रकोप हो गया जिससे इनके चाचा और बड़ी बहन की हैजे से मृत्यु हो गयी जिससे इनका मन जीवन और मरण की गहराई के वारे में जानने के लिए विचलित हो गया और इनके बारे में सोचने लगे अपनी जिगयासू प्रवृत्ति के कारण जीवन मरण के बारे में अपने पिता और जानने बालों से प्रश्न पूछने लगे जिससे इनके पिता चिंतित रहने लगे तथा किशोरावस्था में ही सांसारिक जीवन में इनका ध्यान भटकाने के लिए इनका विवाह करने का निर्णय लिया किन्तु यह घर से भाग गए 

ज्ञान की उत्पत्ति

इनके जीवन एक विलक्ष्ण घटना घटी आमतौर पर ऐसी घटना सभी के साथ घटती है किन्तु विलक्ष्ण प्रतिभा के लोग ही ऐसी घटना पर अपना ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं जैसे पेड़ से सेव गिरने की घटना को न्यूटन ने ही विशेष तौर पर जानने की की थी हालांकि सेव रोज ही और पता नहीं कब से पेड़ से जमीन पर गिरता होगा ठीक ऐसी ही घटना इनके साथ भी हुई फाल्गुन कृष्ण पक्ष की शिवरात्रि को जब इनके परिवार ने शिव व्रत रखा तो इन्होने भी शिव व्रत रखा रात्रि को जब सभी लोग सो रहे थे तब यह जग रहे थे रात्रि में इन्होने देखा कि एक चूहा इनके द्वारा चढाये गए मिस्ठान आदि को खरह है यह देख कर यह विस्मित हो गए और इनके मन में तरह तरह के प्रश्न जन्म लेने लगे और इसके बाद में यह उस घटना से सम्बन्धित प्रश्न अपने माता पिता और सम्बंधित लोगों से पूछने लगे जैसे यदि यह सम्पूर्ण संसार की रक्षा करने वाले है तो अपनी और अपने उन वस्तुओं की रक्षा क्यों नहीं कर सकता है जिन्हें हमने इन्हें अर्पण किया था 

 इस घटना के बाद यह मूर्ति पूजा से विरक्त हों लगे और अपनी संका के समाधान के लिए गायनी पुरुषों और असाधु सन्यासियों से प्रश्न पूछने लगे किन्तु इनकी शंका का समाधान नहीं हो पाया 

ज्ञान की खोज 

इसी समय इनके विवाह की बात चली इनके पिता इनका विवाह करना चाहते थे किन्तु इनके मन में तो कुछ और ही था इस लिए यह अपने घर से भाग गए और अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए जगह जगह विद्वानों से मिलने लगे और अपने प्रश्न पूछने लगे लेकिन किसी ने इनके प्रश्नों का संतोष जनका जबाब नहीं दिया इसके बा दिनकी मुलाक़ात 1860 में मथुरा (उप्र) में स्वामी विरजानंद जी से हुई जिन्हें इन्होने अपना गुरु बनाया उन्होंने इन्हें आर्ष ग्रंथों के अध्यन करने की शिक्षा दी और अनआर्ष ग्रंथों को जमुना में प्रभावित कराया स्वामी विरजानंद ने इन्हें अष्टाध्यायी, महाभाष्य आदि व्याकरण ग्रंथों के अतिरिक्त सभी आर्ष ग्रंथों सहित कई अन्य आर्ष ग्रंथों का अध्यन कराया जब इनकी शिक्षा स्वामी विरजानंद के समक्ष पूर्ण हुई तो इन्होने गुरु दक्षिणा लेने के लिए अपने गुरु के आमने प्रस्ताव किया जिसमे उनके गुरु ने इनसे वचन लिया कि आप देश और समूर्ण जगत के मानव के कल्याण के लिए आजीवन कार्य करोगे इसके आलावा आप समूर्ण जगत को शुद्ध गायन को प्रसारित करोगे तथा झूठे मतो को बढ़ावा देते हैं उनका खंडन करोगे इस कार्य के लिए यदि तुम्हें अपना जीवन भी दांव पर लगाना पड़े तो लगाओगे मुझे बस यही गुरु दखिना है 

इन्होने अपने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य किया इसके बाद स्वामी विरजानंद ने इनका नाम मूलशंकर की जगह पर दयानंद सरस्वती रखा इसके बाद इन्होने ने वैदिक धर्म को स्वीकार किया और स्थान स्थान पर शास्त्रार्थ अपने स्वरचित ग्रन्थों वक्तव्य आदि से झूठे मतों का खंडन किया इसके आलावा स्वराज्य का नारा सबसे पहले दयानन्द सरस्वती ने दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने अपनाया 

1869 में यह बनारस गए वहां धर्माब्लाम्बियों से इनका वृहत शास्त्रार्थ हुआ जहाँ इन्होने विभिन्न धर्मों के आडम्बरों की पुष्टि की और उनका खंडन करते हुए तथा वैदिक धर्म का प्रचार किया 

1875 में यह बम्बई (आधुनिक मुम्बई) पहुंचे वहां इन्होने आर्य धर्म की स्थापना की और दस नियमों की स्थापना की जो निम्न प्रकार हैं 


  1. सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।
  2. ईश्वर, सच्चिदानंद स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अमर, अज, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता हैं, उसी की उपासना करने योग्य है।
  3. वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है, वेद पढ़ना, पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
  4. सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
  5. सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।
  6. समाज का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
  7. सबसे प्रीतिपूर्वक यथायोग्य वर्तना चाहिए।
  8. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
  9. प्रत्येक को अपनी उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिए, किंतु उसकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
  10. सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र रहेंइन नियमों का मुख्यत: उद्देश्य सम्पूर्ण मानव को झूठे आडम्बरों रुढियों, अन्धविश्वाशों से मुक्त कराना तथा  वैदिक रीतियों की ओर अग्रसर करना था 

स्वामी जी ने सिर्फ मुस्लिम ईसाई आदि धर्मों के आडम्बरों के सम्बद्ध में युक्ति सांगत आलोचना की बल्कि अन्य धर्म जो उस समय अपने झूठे आडम्बरों को प्रचारित प्रसारित कर रहे थे उनके भी झूठे आडम्बरों के भी आलोचना की जैसे जैन धर और बौध धर्म आदि इसके आलावा हिन्दू धर्म के भी झूठे आडम्बर जैसे मूर्ति पूजा सती प्रथा आदि रीतियों की खुली आलोचना की इन्होने सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें इन्होने युक्ति सांगत तरीके से तथा उदाहरन देते हुए भारत देश में तत्कालीन प्रचलित मुख्य धर्मों की झूठी आडम्बरों वाले शिक्षाओं और नियमों के बारे में जानकारी दी तथा उनका खंडन भी किया 

मार्टिन लूथर के नारे बाइबिल की और वापस जाओ के विरोध में वेदों की ओर वापस जाओ का नारा दिया 

इन्होने जातिवाद, मूर्ति पूजा, बाल विवाह, सती प्रथा, छुआछुत आदि प्रथा को युक्ति सांगत तरीके से वेद विरुद्ध सिद्ध किया इन्होने हिन्दी भाषा को जन जीवन में अपनाने के लिए भी प्रयास किये 

स्त्रियों के लिए किये गए कार्य 

स्त्रियों के लिए इन्हों स्त्रियों की शिक्षा, विधबा विवाह, सतीप्रथा का खंडन, बाल विवाह आदि समाज की स्त्रियों से सम्न्धित समस्यायों पर समाज का ध्यान आकर्षित किया और उन्हें समाज में कार्यन्वित किया 

स्वामी जी की हत्या करने की अनेक कोशिशे की गयी कई बार इन्हें जहर दिया गया किन्तु स्वामी जी योग के भी जानकार थे अत: उनपर जहर से मारने की कोशिशें व्यर्थ साबित हुई बाद में इन्हें खाने में जहर दे दिया गया और 1833 में इनकी मृत्य हो गयी 

वास्तव में स्वामी जी एक राष्ट्र पुरुष थे उन्होंने भारतीय जीवन को सुव्यवस्थित बनाने में एक महत्वपूर्ण कार्य किया इनका मानना था कि राजनितिक स्वतन्त्रा के बिना देश का उत्थान असम्भव है इन्होने सर्व प्रथम स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया सर्व प्रथम इन्होने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया तथा स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग पर जोर दिया  

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