आदर्शों का एक सबसे बड़ा उदाहरण हैं पुरुषोत्तम श्री राम । उनका जीवन चरित्र जब हम पढ़ते हैं तो हमें हर मोड़ पर एक नया आदर्श मिलता है। पिता, पुत्र , भाई , पति- पत्नी हर किरदार हमें एक सीख देता है। लेकिन हम में से कितने लोग हैं जो इन आदर्शों का पालन करते हैं ? अगर सच्चाई और ईमानदारी से आप स्वयं से ये प्रश्न करें तो आपको उत्तर मिलेगा कि क्यों हमारी आने वाली पीढ़ी हम पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देती है। दरअसल हम लोग उन्हें बड़े बड़े आदर्श और कीर्तिमान सिखाते तो हैं लेकिन जब उन्हें कर के दिखाने की बात आती है तो हम स्वयं को असमर्थ पाते हैं । यहां तक कि हम अपने बच्चों को भी वो करने से रोकते हैं , जाने अंजाने पर हां हम ऐसा करते हैं ।
राधा कृष्ण सा प्रेम हो या समाज में फैली कुरीतियों को खत्म करने की बात ये सारी बातें हमें तभी अच्छा लगता है जब तक ये किताबों और फिल्मों में होती हैं। लेकिन जब आपके अपने बच्चे या परिवार का कोई सदस्य इन्हे अपने जीवन में उतारना चाहता है तो आप परेशान है जाते हैं , और उन्हें ये सब करने नहीं देते। आपका डर कोई भी हो , लेकिन आप उन्हें आगे बढ़ने से रोक देते हैं।
वैसे भी भारतीय समाज में माता पिता अपने बच्चों बहुत सी उम्मीदें लगा कर रखते हैं। हालांकि यह गलत नहीं है लेकिन आपका यह मोह उन्हें आगे बढ़ने नहीं देता। आप उन्हें अपनी सोच के हिसाब से चलाते हैं और ये भूल जाते हैं कि उनका अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है। उनकी अपनी एक सोच है और अपना एक दृष्टिकोण है। आपकी नजर से समाज और दुनिया को देखते हुए उनकी अपनी नजर कहीं खो जाती है। आशाओं और उम्मीदों का बोझ उन्हें स्व विकास और आत्मज्ञान के रास्ते पर बढ़ने नहीं देता। माता पिता बेशक भगवान की तरह होते हैं , और अपने बच्चे से बेहद प्रेम करते हैं लेकिन प्रेम और मोह में फर्क हमें समझ नहीं आता। प्रेम उस कहते हैं जहां आप दूसरे को आगे ले जाने में उसकी सहायता करते हैं लेकिन अपने मोह को प्रेम का नाम देकर आप अपने बच्चों को बांध देते हैं और उनका जीवन कभी भी सार्थक नहीं बन पाता। इसलिए बच्चों का पालन करें अपना धर्म समझ कर और फिर उन्हें उनकी शिक्षा , संस्कार और समझ के अनुसार जीवन जीने दे , हां कहीं गलत लगे तो उन्हे रोके , समझाए लेकिन कभी भी उन पर अपना अधिकार ना जताएं।