लक्ष्य के सोपान पर तू चढ़ बटाेही,
बढ़ बटोही ।।
व्योम को जा चूम ले,
जग ये सारा घूम ले।
कर दे विस्मृत हर व्यथा को,
मग्न होकर झूम ले।
जा विपिन में रास्तों को,
तू स्वयं ही गढ़ बटोही।
बढ़ बटोही........
गिरि नहीं है न्यून है,
है कि जैसे शून्य हैै।
कष्ट हैै भयभीत जिससे,
हाँँ वो तेरा खून है।
और लिख - लिख गीत पथ के,
खूब उनको पढ़ बटोही।
बढ़ बटोही.........
✒ प्रियांशु ' प्रिय '
सतना ( म. प्र. )