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मन का भेद क्यों खोलूँ मैं ?

7 जून 2016

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मन का भेद क्यों खोलूँ मैं ?

विचलित होते ह्रदय भाव 

आज कहो क्यों बोलूं मैं ?

द्वन्द छिड़ रहा मेरे मन में 

कहो ज़रा क्या बोलूँ मैं 


मन में उठती उमंग लहरों में 

क्यों न आज मैं  गोते खाऊँ ?

जीतने भी विचार उठे मन में 

क्यों ना उनको सत्य बनाऊं ?

पर सोचता हूँ मैं ये भी 

क्यों भेद जग में जाहिर  करवाऊं ?

क्यों दूसरों को परिचित 

अपनी सोच से करवाऊं  ?

जब तक ना जीतूँ अपनी मंज़िल 

विजयी ढोल क्यों पीटू मैं 

मन का भेद क्यों खोलूँ मैं ?


वैसे भी कौन है सुनाने को 

जो भेद मेरे मन का जाने 

वैसे भी कौन है इस जग में 

जो मेरी बात का लोहा  माने 

संसार तो उसको ही माने 

हैं लोग तो उसको ही जाने 

जग जीत सके जो अपने दम पर 

कहे नहीं बखान खुद का 

सिर्फ लड़े जीवन समर 

तो क्यों न अपनी करनी कर 

युद्ध पलों को जी लूँ  मैं 

बीना कोई प्रयास किए 

क्यों हर्षित अब हो लूँ मैं ?

मन का भेद क्यों खोलूँ मैं ?


भय तो सब को ही होता है 

डरा हुआ मन सबका रहता है 

कोई भी  नहीं है इस जग में 

जो सदा  यहां  वीर रहता है 

पराक्रमी वीर विजेता भी 

अपने मन से ये कहता है,

तू डरा हुआ है  मैं जानूँ 

पर विजयी शंखनाद होगा  

गर साहस करले एक बार  तू 

तो कदमों में ये जग होगा 

बस ये एक भाव है  साहस का 

जिससे  कोई वीर कहाता है 

हर दुविधा को हर बाधा  को 

हर कोई पार पाता है 


तो आखिर जब मैं जीत सकूँ 

तो क्यों रोना अपना गाऊँ  मैं ?

सिखलाया मेरे वीर पीता ने 

तो क्यों ना समर वीर कहलाऊँ मैं ?

जो जननी ने है ये जीवन दान दीया 

उसे क्यों अब व्यर्थ गवाऊँ मैं ?

अपने भाई बहनों का 

वीर भ्राता कहलाऊँ मैं 

क्यों मन का भेद बताऊँ  मैं ?


अब मन तो मेरा चंचल है 

किसी अनजाने के सपने देख रहा 

किसी सुंदर अपने साथी को 

बंजारा मन ये खोज रहा

जाने कब वो कहाँ मिले 

जो साथी बन जाये मेरा 

पर ये मन का एक भाव  

है अभी भी कमज़ोर ज़रा 

जब तक न सीखूँ ये खेल नया 

क्यों बाज़ी अपनी लगाऊँ मैं ?

मन में क्यों अरमान जगाऊँ  मैं ?


-रजत द्विवेदी 

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