कैसे खुद को आजा़द कहूँ?
मैं युगों से जीवित भारतवर्ष, मैं दीर्घकालिक आर्यावर्त
हूँ आज पडा़ असमंजस में, कैसे खुद को आजा़द कहूँ?
देखो मेरे इन पुत्रों को, देखो इनकी दुर्दशा हुई,
कैसे मुरख बन बैठे हैं, खुद आपस में ही भिड़ते हैं,
नाम,धरम, जाति खातिर, स्वयं की शान्ति हरते हैं |
ना पढी़ होगी किसी ने भी रामायण, महाभारत, कुरान
ना पढी़ होगी किसी ने भी बाइबिल या गुरुग्रंथ महान,
फिर भी खुद पर इतराते हैं, कहते खुद को सर्वस्व महान|
सोच रहा जो होता काल, तो क्या मै कहता तुलसी को,
क्या कहता मै वेदव्यास को, क्या कहता गुरु नानक को,
जो था उन ने प्रचार किया, सौहार्द शान्ति का जग में,
उसको ये मुरख भूल गए, हैं लड़ते लड़ते कट मरते,
भेड़चाल के मुरख ये कहलाते हैं मेरे ही लाल,
निजी स्वार्थ से लड़ते हैं, बहा रहे हैं रंग लहु लाल|
बर्बाद है होता नाम धर्म का, जग में मैं अब शर्मिंदा हूँ
कहो ज़रा कैसे कह दूं, कैसे खुद को आजा़द कहूँ?
फैली हुई है हर दिसि में ये हवा घृणा, अ ज्ञान ता की
अनपढ़ नेता हैं बने हुए, कतार है शिक्षित दासों की|
भूल के मेरे वीर सुभाष को, भूल के मेरे लाल भगत को,
क्यों अफज़ल नाम पर रोते हैं, क्या याकूब मरा तो खोते हैं?
आतंकी कहते अजा़द को, हत्यारों को हीरो कहते हैं |
जिसने छलनी किया मुझे, उनपर क्यों आँसू बहते हैं?
नहीं सहन होते ये द्रोही, पर कैसे अपनी बात कहूँ?
मैं अब भी बन्धी अज्ञानी का, कैसे खुद को आजा़द कहूँ?
-रजत द्विवेदी