बोलने की कला (आर्ट ऑफ टॉकिंग) Rule of Speaking
बोलना और प्रभावशाली बोलना, एक कला है। इस कला में माहिर होने के लिए कुछ प्रयास करने पड़ते हैं। यह भी सही है कि कई लोगों को बोलने में जन्मजात महारत हासिल होती है। लेकिन जरूरी नहीं है कि संवाद कला में जन्मजात महारत हासिल लोग ही अपना प्रभाव जमा सके।जब प्रतिभाशाली और मेहनती लोगों के मन में प्रभावी बातचीत या भाषण की कला न होने से हीनभावना आ जाती है और उनकी तरक्की की राह में बाधा बन जाती है तो मुझे बेहद दु:ख होता है। अफसोस इस बात का है कि लाखों लोग इस कमी की वजह से मन में निराशा और कुंठा पाले बैठे हैं और अपने भविष्य के साथ अन्याय कर रहे हैं।
यदि आप समझते हैं कि आपको जीवन में कभी समूह के सामने या मंच पर कोई भी प्रस्तुत देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी तो आप गलत सोचते हैं कि भाषण या बातचीत की कला सीखी नहीं जा सकती तो आप भारी भूल कर रहे हैं। रिसर्च द्वारा यह प्रमाणित हो गया है कि कोई भी व्यक्ति प्रभावशाली संबोधन और बातचीत की कला सीखकर आत्मविश्वास से भरा वक्ता बन सकता है।इसको लिखने का प्रमुख उद्देश्य यही है कि सामान्य और सहज तकनीकों से हर व्यक्ति में ऐसा गुण पैदा कर सकूं कि वह कहीं भी और कैसी भी परिस्थिति में आत्मविश्वास से अपनी बात रखे और सफलता पाए। वकृतव्य कला, मंच या माइक के डर से मेरे पाठक कभी हताश न हों। आपका भय, झिझक और तनाव जरूर हटा देंगे।
मन में आए विचारों को दूसरे तक पहुंचाने का माध्यम शब्द ही हैं। ऐसा नहीं है कि मन में जो-जो बातें आती हैं, हम उन सबको बोलते जाते हैं। उसके लिए बुद्धि तय करती है कि क्या बोलना है और क्या नहीं। किसी पागल व्यक्ति और हमारे बीच बस इतना ही अंतर होता है कि हम सोच कर बोलते हैं, जबकि वह मन में आ रही हर बात बोलता है, क्योंकि उसकी बुद्धि निष्क्रिय हो गई है।
जब हम बोलते हैं तो हमारे शब्द हमारे मन की अवस्था व विषय पर हमारी पकड़ को बता देते हैं। यही वाणी व्यक्ति को छोटा या बड़ा बनाती है। व्यक्ति कितना भी बुद्धिमान हो पर बोलने की कला न जानता हो, या अपनी बात को ठीक प्रकार से पेश न कर पाता हो तो आज के समय में उसका अपने क्षेत्र में आगे बढ़ना मुश्किल सा हो जाता है। क्योंकि वाणी हमेशा दूसरे के लिए होती है और वही हमारी बात न समझ पाए तो इसका मतलब है कि हमें बोलने की कला (आर्ट ऑफ टॉकिंग) नहीं आती।
हर भाषा के बोलने का अपना-अपना तरीका होता है। जैसे इंग्लिश जल्दी-जल्दी बोली जाती है और हिंदी धीरे-धीरे बोली जाती है। यदि हम इंग्लिश को धीरे और हिंदी को जल्दी बोलने लगें, तो भाषा अपने मूल सिद्धांत से थोड़ा हट जाती है, जिससे उसका प्रभाव सामने वाले व्यक्ति पर कम पड़ता है। कई लोग मन में जल्दी-जल्दी सोच लेने के कारण जल्दी-जल्दी बोलने लगते हैं, जिससे कई बार उनके शब्द के ऊ पर शब्द चढ़ जाते हैं और सुनने वाले को बात समझ में नहीं आती। लेकिन बोलने वाले को लगता है कि उसने अपनी बात समझा दी है। कई बार व्यक्ति के शब्द की ध्वनि इतनी कम होती है कि सामने वाला सुन ही नहीं पाता। जिस तरह से लिखने में कोमा, पूर्ण विराम आदि का ध्यान रखा जाता है, उसी प्रकार बोलने में भी यदि इन बातों का ध्यान रखा जाए तो बोलने की कला में निखार आता है। हर शब्द अपने आप में महत्वपूर्ण होता है, इसलिए बोलते समय हर शब्द का उच्चारण ठीक प्रकार से होना चाहिए। बोलते समय हमारे वाक्य पूरे होने चाहिए क्योंकि अक्सर हम आधे-अधूरे वाक्य बोलते हैं और सोचते हैं कि सामने वाला समझ जाएगा।
जिस व्यक्ति से हम बात कर रहे हैं , उसके मानसिक स्तर को भी ध्यान में रखना चाहिए। इसके बिना हम अच्छे वक्ता नहीं हो सकते। हम जब बोलें तो हमारा हर शब्द अर्थपूर्ण हो , हमारी बातों में वजन हो और वह सामने वाले को उसकी मानसिक अवस्था से ऊपर उठाने वाला हो , उसको खुश करने वाला हो , ज्ञान देने वाला हो , समस्या का निदान करने वाला हो। जब जरूरत हो तब अवश्य बोलना चाहिए , लेकिन जब जरूरत नहीं हो या आप विषय से अनभिज्ञ हों तो नहीं बोलना चाहिए। हमारे शब्द सदा सुगंध जैसे महकने चाहिए।
ध्यान रखें कि समूह में बोलने और दो लोगों के आपस में बोलने की शैली में थोड़ा अंतर होता है। वाणी में निखार के लिए बोलने का अभ्यास बड़ा जरूरी है। बोल - बोल कर ही हमारे पास अच्छे शब्द इकट्ठे होते हैं। इसलिए यह सोचना सही नहीं है कि नहीं बोलना आता तो चुप रहो। जिसको अच्छी तरह बोलना नहीं आता , उसके लिए मौन नहीं होता , यह तो जिसको बोलना आता है , उसके लिए होता है। जैसे व्रत भिखारी के लिए नहीं , बल्कि जिसके पास भोजन है उसके लिए होता है। हम जो खाते - पीते हैं , उसका असर भी हमारी वाणी पर होता है। वही सूक्ष्म ऊर्जा के रूप में वाणी को जन्म देता है।
आपके पास बेहतरीन मौलिक विचार है लेकिन अन्य लोग आपके विचारों को महत्त्व नहीं देते। जब आप समूह में अपनी बात कहते हैं, अक्सर दूसरे उस पर ध्यान नहीं देते परन्तु जब एक दूसरा व्यक्ति वही बात कहता है तो उसका जबर्दस्त असर होता है। आप समाज में और संस्थान में मंच पर जाना चाहते हैं, परन्तु भय आपको रोक देता है। आप एक लीडर के रूप में उभरने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं परन्तु अन्य लोग आपके नेतृत्व को स्वीकार नहीं करते। आप सच्चे दिल से दूसरों के हित की बात कहते हैं परन्तु आपकी बातों का अक्सर गलत मतलब निकाला जाता है। आप आत्मविश्वास की कमी से बेहतरीन अवसर हाथ से निकल जाता है और आपको उतनी तरक्की व प्रसिद्धि नहीं मिलती जिसके आप हकदार हैं।
सफल वक्ता, सफल व्यक्ति आपको शतप्रतिशत प्रैक्टिकल तरीके बताएगी जिससे आप अपनी बातों से दूसरों का दिल जीत सकेंगे, मंच और माइक का बिना किसी भय के सामना कर सकेंगे, आपकी बातों को दूसरे महत्त्व देंगे एवं आप आत्मविश्वास से समूह और भीड़ में अपनी बात रख सकेंगे । बोलने की कला (आर्ट ऑफ टॉकिंग) के नियम हैं
-1. भाषा का निर्माण और प्रस्तुति की कला। 2. स्टेज, माइक व भीड़ का भय कैसे हटाएँ । 3. बातचीत में लोकप्रियता। 4. श्रोताओं को जीतने की कला। 5. एंकरिंग से समाज व संस्थान में प्रसिद्धि। 6. इंटरव्यू, ग्रुप डिस्कशन व मीटिंग में आत्मविश्वास। 7. दूसरों को अपने विचारों से सहमत कैसे करें।8.सेमिनार व रिपोर्ट प्रस्तुति में तकनीकों का उपयोग । 9.बोलने की कला से लीडर के रूप में कैसे उभरें।
मोहक मुस्कराहट दोस्ताना और खुले नज़रिये तथा संवाद की इच्छा का प्रबल संकेत होती है। यह एक दोस्ताना अशाब्दिक संकेत है, जो इस आशा के साथ भेजा जाता है कि जवाब में सामने वाला भी मुस्कराएगा। जब आप मुस्कराते हैं, तो आप यह प्रदर्शित करते हैं कि सामने वाले के प्रति आपका नज़रिया सकारात्मक है। दूसरा इसे अपनी तारीफ़ के रूप में लेता है और सामान्यतः उसे अच्छा लगता है। परिणाम ? आम तौर पर आपकी मुस्कान के जवाब में सामने वाला भी मुस्कराएगा। मुस्कराहट का अर्थ यह नहीं है कि आपको बनावटी चेहरा बनाए रखना है या यह दिखावा करना है कि आप हर समय ख़ुश रहते हैं। लेकिन जब आप किसी ऐसे व्यक्ति को देखें, जिसे आप जानते हैं या जिससे आप चर्चा करना चाहते हैं, तो ज़रूर मुस्कराएँ। मुस्कराकर आप प्रदर्शित करते हैं कि आप मिलनसार हैं और बातचीत करना चाहते हैं। इंसान का चेहरा बहुत से शाब्दिक और अशाब्दिक संकेत प्रेषित करता है। यदि आप दोस्ताना संदेश भेजते हैं, तो आपको इसका जवाब भी दोस्ताना ही मिलेगा। जब आप गर्मजोशी मुस्कराहट के साथ दोस्ताना हलो कहेंगे, तो वैसी ही प्रतिक्रिया पाकर आपको आश्चर्यजनक ख़ुशी होगी। मुस्कराहट व्यक्ति को यह बताने का सबसे सरल और श्रेष्ठ तरीक़ा है कि आप उस पर ध्यान दे रहे हैं। यह दर्शाती है कि आप सामने वाले के महत्व को स्वीकार कर रहे हैं। इससे दूसरा व्यक्ति आपसे बातचीत करने के लिए और अधिक खुलता है।
यूं तो शिशु जन्म से बहुत बाद में बोलना सीखता है, मगर उसके द्वारा भाषा को सीखने की प्रक्रिया गर्भावस्था के दौरान ही शुरू हो जाती है और जन्म के बाद उसके रोने की ध्वनि में उसके माता-पिता की मातृभाषा का असर देखा जा सकता है. ऐसा हम नहीं कह रहे, बल्कि एक नया शोध कहता है. वास्तव में बालक गर्भ में मां की आवाज़ के साथ-साथ आसपास हो रही बातचीत को भी सुनता है. भावनाओं को व्यक्त करते समय ध्वनियों में जो परिवर्तन वह सुनता है, उसे जन्म के बाद नकल करने की कोशिश करता है. शिशु मां के गर्भ में बाहरी आवाज़ों को सुनता है, यह एक स्थापित तथ्य है, लेकिन उन आवाज़ों की पहचान कर वह बोलने का अभ्यास भी कर लेता है, यह नई खोज है. इस खोज का श्रेय जाता है कैथेलीन वर्म्क को, जो जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ वर्ज़बर्ग की एंथ्रोपोलोजिस्ट हैं. कैथेरीन और उनकी टीम ने अपने अभ्यास में पाया कि नवजात शिशुओं के रोने का पैटर्न अपने अभिभावकों द्वारा बोली जा रही भाषा के आधार पर तैयार होता है. आज तक वैज्ञानिक यही मानते आए थे कि बोलने की कला जन्म के तीन महीने बाद सीखी जानी शुरू होती है, लेकिन कैथेरीन और उनकी टीम ने साबित कर दिया कि यह प्रक्रिया जन्म के पहले से ही शुरू हो जाती है. हर भाषा को बोलने का अपना एक तरीक़ा होता है. उदाहरण के लिए अंग्रेजी बोलते समय वाक्य के अंत में जोर दिया जाता है, लेकिन हिंदी में यह उल्टा होता है. यानी हिंदी में कोई वाक्य बोलते समय शुरू में जोर दिया जाता है और वाक्य का अंत थोड़ी धीमी आवाज़ में होता है. यही पैटर्न शिशु अपने रोने की आवाज़ में भी अपना लेता है. इस शोध के लिए उन्होंने 60 स्वस्थ नवजात शिशुओं का चयन किया. इनमें से 30 फ्रेंच थे और 30 जर्मन. इनके रोने के अलग-अलग 500 पैटर्न रिकॉर्ड किए गए. जैसे डायपर बदलते समय रोना, खाने के समय रोना, बात करते समय रोना आदि. शोधकर्ताओं ने पाया कि जर्मन नवजात शिशु रोते समय शुरुआत तेज़ आवाज़ हाई पिच से करते हैं और फिर उसे धीमा करते हैं, जबकि फ्रेंच बच्चे धीमी आवाज़ लो पिच पर रोना शुरू कर तेज आवाज़ तक जाते हैं. जर्मन और फ्रेंच भाषा इसी पैटर्न के आधार पर बोली जाती है. शिशु मां द्वारा बोली जा रही भाषा में से ध्वनि संरचना की पहचान कर लेते हैं और अपने रोने में उसका इस्तेमाल करते हैं. अब ज़रा सोचिए कि आप किस भाषा में रोए थे!
भाषण एक शक्तिशाली उपकरण है कि बनाने के लिए या एक रिश्ते, पालक या कि यह कैसे वितरित किया जाता है पर निर्भर करता है दुश्मनी दोस्ती बिगाड़ सकता है. प्रसिद्ध राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों उनके लिए सार्वजनिक रूप से शक्तिशाली बात करने की क्षमता की वजह से चुनाव जीता. हालांकि, एक अच्छी तरह से तैयार भाषण की उपयोगिता चुनाव जीतने से परे है. एक संभावित हथियार के रूप में, भाषण क्रांति और परिवर्तन की राह में बड़े पैमाने पर प्रेरित कर सकते हैं. कुछ लोगों को एक सहज करने के लिए एक शक्तिशाली भाषण देने प्रतिभा है, जबकि अन्य यह अभ्यास द्वारा मालिक कर सकते हैं. वहाँ चार बुनियादी कदम है कि एक को धीरे धीरे शक्तिशाली बोलने की कला विकसित सीखने में मदद कर सकते हैं.
अपने भाषण लिखें - अपने भाषण लेखन अपने विचारों को concisely और ठीक संगठित में मदद करता है. समकालीन तेजी से paced कारोबारी माहौल में, कोई नहीं के लिए लंबी और अस्पष्ट कहानियाँ सुनने के लिए समय है.को शक्तिशाली बात करते हैं, तो आप अपने उप वर्गों, जो जब आप बोल सकते हैं के साथ विस्तृत भाषण की एक रूपरेखा लिखना चाहिए. कुछ शोध कर रहा है और एक प्रसिद्ध उद्धरण शामिल दर्शकों का ध्यान खींचता है. वे अच्छी तरह से शुरू हो गया जीत का कहना है कि आधी लड़ाई है. दर्शकों को आप संबोधित कर रहे हैं के बावजूद, एक संभावित उद्घाटन मदद कर सकते हैं रखने के लिए अपने दर्शकों को अपने भाषण में अपने शब्दों के लिए सरेस से जोड़ा हुआ.
अभ्यास आईने के सामने - अभ्यास के बिना प्रतिभा बनाता है, लेकिन आधे कलाकार. कोई भी अभ्यास के बिना एक कठिन काम जीत सकते हैं. कई शुरुआती दर्शकों के सामने बोलने का डर है. करने के लिए मंच भय पर काबू पाने, यह सबसे अच्छा है एक दर्पण के सामने भाषण अभ्यास. जैसा कि आप को आईने में अपने चेहरे का भाव निरीक्षण, आप शक्तिशाली मुख्य बिंदुओं पर बल द्वारा बोल सकता है. तनाव है कि आप मुख्य बिंदुओं पर रखा दर्शकों द्वारा देखा जाता है. अपने संभावित गलतियों तुम बना रही हो सकता है के लिए आईने में देखो. अपने दर्शकों के एक भाग के रूप में न्यायाधीश के रूप में यदि आप दूर और दूसरा एक भाषण देने वक्ता मंच पर देखो से बैठे थे. यह आपको बाहर समस्याओं जो मदद कर सकता है आप एक असली दर्शकों से पहले भाषण में सुधार आंकड़ा मदद कर सकते हैं.
बोलने से पहले अपने दोस्त - आईने के सामने अभ्यास करने के बाद, आप अपने दोस्त के अनुरोध करने के लिए अपने भाषण सुन सकते हैं. दोस्तों के एक बहुत मदद कर रहे हैं क्योंकि वे आप शक्तिशाली अपनी ताकत और अपनी कमजोरियों को उजागर करने से पार पाते हुए बात करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. अगर आप एक व्यक्ति जो भाषण के बारे में एक सा जानता है, वे चुन सकते हैं महत्वपूर्ण मुद्दों कि महत्वपूर्ण हैं आप पर काम करने के लिए नोटिस कर सकते हैं. एक अनुभवी व्यक्ति से पहले बोलते हुए भी मदद करता है तुम पर काफी हद तक भय और घबराहट मिलता है. श्रोतागण पहले - अपने लेखन और अभ्यास भाषण की कड़ी मेहनत के लिए अपने परिणाम दिखाने के रूप में आप एक अज्ञात दर्शकों के लिए एक उत्साही, सूचनात्मक, और ऊर्जावान भाषण देने के लिए तैयार है. जब दर्शक तालियों की, तो आप अपने भाषण में एक विराम देकर विनम्रता के साथ यह स्वीकार करना चाहिए. आप पूरे दर्शकों के साथ एक आँख से संपर्क करें आगे की पंक्ति में लोगों को, मध्य पंक्ति है, और अंतिम पंक्ति सहित बनाए रखनी चाहिए. इसलिए, आप शक्तिशाली क्रमिक अभ्यास,, लगन और समर्पण से बोल सकता है.बोल-चाल में शब्दों का सही चयन करें और नीचे लिखे गुरुमंत्रों पर ध्यान दें-
• आपको महत्वपूर्ण शब्दों को चुनना होगा और महत्वहीन शब्दों को छोड़ना होगा, क्योंकि शब्द ही आपके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।
• यदि आप अपने आप में सुधार लाना चाहते हैं, तब आपको सबसे पहले यह पता करना होगा कि बोल-चाल में आपकी स्थिति कैसी है?
• दुनिया मे एक जुबान ऐसी भी है, जिसे विश्व का हर आदमी समझता है। और वह जुबान है उत्साह और उमंग की, मेहनत और कर्म की।
• बोलने की आदत डालिए, क्योंकि बोलने से आत्मविश्वास पैदा होता है, लेकिन बोलने से पहले अपने शब्दों को रचनात्मक विचारों की तराजू में अवश्व तोलिए।
• जब आप एक झूठ बोलते हैं तब आपको यह नहीं पता होता कि आप कितनी बड़ी मुसीबत में फंसने वाले हैं, क्योंकि एक झूठ को सच में बदलने के लिए बीस झूठ और बोलते हैं।
• यदि आप एक शब्द बोलने से पहले दो बार सोच लेंगे, तब आप हमेशा अच्छा बोलेंगे।
• जिन्हें बातचीत करना नहीं आता, वही लोग सबसे अधिक बोलते हैं। लेकिन जिन्हें बातचीत करनी आती है, वे कम बोलते हैं।
• कृपया और धन्यवाद ऐसे साधारण शिष्टाचार के शब्द हैं, जो आपको और सामने वाले को प्रसन्नता प्रदान करते हैं।
• लोगों के पास बात करने की कला तो होती है, लेकिन वे यह नहीं जानते हैं कि उस बात को समाप्त कैसे किया जाए।
प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक सुकरात के पास एक युवक भाषण कला सीखने के उद्देश्य से आया। सुकरात ने स्वीकृति तो दी किंतु दुगुने शुल्क की मांग की। युवक आश्चर्य से बोला-‘मैं तो पहले से ही बोलने का अभ्यस्त हूं, फिर भी आप मुझसे दूने शुल्क की मांग कर रहे हैं ?‘ तब सुकरात ने कहा-‘तुम्हें बोलना नहीं बल्कि चुप रहना सिखाने में दूना श्रम करना पड़ेगा।’बोलने और चुप रहने के ताने-बाने में मनुष्य सदैव ही उलझता आया है। मनुष्य के जीवन में सुख और दुख के जो प्रमुख कारण हैं, उनमें वाणी भी एक है।
संत कबीर कहते हैं- एक शब्द सुखरास है, एक शब्द दुखरास।/ एक शब्द बंधन करै, एक शब्द गलफांस।। वाणी की इस द्वैधी प्रकृति को संतों ने बड़ी गहनता से अनुभूत किया था इसलिए उन्होंने वाणी के संयमित उपयोग के प्रति लोगों को सदैव सचेत किया। संत कबीर ने एक पद में बताया है कि कब, किससे, क्या बोलना चाहिए-बोलत बोलत बाढ़ विकारा, सो बोलिए जो पड़े विचारा।/ मिलहिं संत वचन दुइ कहिए, मिलहिं असंत मौन होय रहिए।/पंडित सों बोलिए हितकारी, मूरख सों रहिए झखमारी।
कन्फ्यूसियस ने कहा है-‘शब्दों को नाप तौल कर बोलो, जिससे तुम्हारी सज्जनता टपके।‘ कबीर ने भी यही कहा है- बोली तो अनमोल है, जो कोई बोले जान। / हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आन।।
वाणी का अत्यधिक उपयोग प्रायः विकार उत्पन्न करता है। इसलिए संयमित वाणी को विद्वानों ने अधिक महत्व दिया है। ऋषि नैषध कहते हैं-‘मितं च सार वचो हि वाग्मिता‘ अर्थात, थोड़ा और सारयुक्त बोलना ही पाण्डित्य है। जैन और बौद्ध धर्मों में वाक्संयम का महत्वपूर्ण स्थान है।कहावत है, ‘बात बात में बात बढ़ जाती है‘, इसी संदर्भ में तुलसीदास जी की यह व्यंग्योक्ति बहुत बड़ी सीख देती है- पेट न फूलत बिनु कहे, कहत न लागत देर। / सुमति विचारे बोलिए, समझि कुफेर सुफेर।।
भारतीय दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा है-‘कम बोलो, तब बोलो जब यह विश्वास हो जाए कि जो बोलने जा रहे हो उससे सत्य, न्याय और नम्रता का व्यतिक्रम न होगा।‘ इसलिए बोलते समय सतर्क रहना चाहिए। कबीर साहब के अनुसार-शब्द संभारे बोलिए, शब्द के हाथ न पांव,/ एक शब्द औषध करे, एक शब्द करे घाव। फ्रांसीसी लेखक कार्लाइल ने कहा है कि मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाक्शक्ति है। गांधीजी ने भी मौन को सर्वोत्तम भाषण कहा है। सुकरात कहा करते थे-‘ईश्वर ने हमें दो कान दिए हैं और मुंह एक, इसलिए कि हम सुनें अधिक और बोलें कम।‘किंतु व्यावहारिक जीवन में सदा मौन रहना संभव नहीं है इसलिए संत कबीर ने बोलते समय मध्यम मार्ग अपनाने का सुझाव दिया है-अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।/अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
इन दिनों जितना बोला जा रहा है, उतना शायद इतिहास में कभी नहीं बोला गया. कौन बोल रहा है, क्यों बोल रहा है, क्या बोल रहा है, समझ में नहीं आ रहा. बोला जाना चीखे जाने में तब्दील हो चुका है. लोग इतनी ताक़त से माइक में चिल्ला रहे हैं कि बोला जाना शोर मचाने की श्रेणी में आ गया है. कोई खास वजह नहीं है, फिर भी बोला जा रहा है. कोई सुनने वाला नहीं है, फिर भी बोला जा रहा है. मंदिरों, मस्जिदों, बाज़ारों, स्कूलों, गोष्ठियों एवं सभाओं में बोलने की होड़ मची है. हर आदमी इसी कोशिश में है कि बस एक बार माइक हाथ में आ जाए. जिसके हाथ में माइक है, वह छोड़ने को तैयार नहीं और जिसके हाथ में माइक नहीं है, वह पीछे हटने को तैयार नहीं. जिनके पास बोलने को कुछ नहीं है, वे भी बोलने की लाइन में हैं. जिनके पास बोलने का सलीका नहीं है, वे भी बोलने पर आमादा हैं. यह तय करने वाला कोई नहीं है कि कब किसे कहां और क्या बोलना है. जिसे श और स में अंतर नहीं मालूम, वह भी बोल रहा है. कक्षा में जो हर प्रश्न के उत्तर में स़िर्फ चुप रहा, वह सवाल पर सवाल कर रहा है. शब्दों की इतनी फ़िज़ूलख़र्ची कभी नहीं की गई, जितनी आज की जा रही है. पूरे देश में बोलने के वायरस फैल गए हैं, बीमारी लग गई है. एक आदमी बोलता है, फिर उसके बोलने पर पांच और फिर उनके बोलने पर पच्चीस आदमी बोलते हैं. ज्ञानी को छोड़कर हर आदमी बोल रहा है.चुनावी सभाओं में खिलाड़ी और अभिनेता बोल रहे हैं, साहित्यिक गोष्ठियों में नेता बोल रहे हैं, पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम में उद्योगपति बोल रहे हैं… यह क्या गड़बड़ घोटाला है? मतलब बोलना मज़ाक बनकर रह गया है. क्या अब समय नहीं आ गया है कि जब एक आम आदमी सुनने से इंकार कर दे? क्या कोई ऐसा सिस्टम तैयार करने की आवश्यकता नहीं है, जिसके तहत केवल मान्यताप्राप्त लोग ही सार्वजनिक तौर पर बोल सकें. बोलना चल रही व्यवस्था में दख़ल देना होता है और इतना महत्वपूर्ण काम हर ऐरा-गैरा कैसे कर सकता है?
अचानक इतना बोलने की ज़रूरत क्यों पड़ गई? क्या यह नहीं हो सकता कि एक आदमी बोले और बहुत से उसे ध्यानपूर्वक सुनें. वह एक बोलने वाला भी कोई ज्ञानी-ध्यानी होना चाहिए. यह कौन सा मापदंड हुआ कि कल तुमने बोला था, इसलिए आज हम बोलेंगे. गोष्ठियों में लोग सुनने नहीं, स़िर्फ बोलने जाते हैं. महत्वपूर्ण बातें महत्वहीन बातों के शोर में दबी जा रही हैं. हर दूसरा आदमी भाषण देने की मुद्रा में है. आठवीं फेल आदमी केंद्रीय बजट पर टिप्पणी कर रहा है, वित्त मंत्री की आलोचना कर रहा है. मंच अयोग्य आदमी की मुट्ठी में है, योग्य आदमी को नेपथ्य में धकेल दिया गया है. योग्यता अल्पमत में है. बोलने का नशा इस कदर चढ़ा है कि यह भी होश नहीं कि क्या बोला जा रहा है, क्यों बोला जा रहा है? बस एक बार माइक हाथ में आ भर जाए, पूरे माहौल का सत्यानाश तय समझिए. कुछ नहीं बोल पाएंगे तो यही शोर मचाते रहेंगे, कृपया शांति बनाए रखें. विचार गायब हैं, भाषा लुप्त है, फिर भी बोला जा रहा है. बोलने वाला बोलता है कि यही विचार है, यही भाषा है तो वह ऐसा बोलने के लिए स्वतंत्र है. वह इस बकबक को विचार बोल सकता है. शायद उसे मालूम न हो कि विचारधारा जैसी कोई चीज़ होती भी है. बिन भाषा और बिन शब्द के बोलने वाले बोले जा रहे हैं. उनके भेजे में बुद्धि नहीं है तो क्या हुआ, मुट्ठी में पैसा तो है. विचारहीन और विचारवान दोनों बोलते हैं, लेकिन समाचारपत्र के मुख्य पृष्ठ पर कौन होता है और तीसरे पेज पर कौन, सर्वविदित है. अनाप-शनाप बोले जाने से आएदिन बड़ी विचित्र स्थिति निर्मित हो जाती है, जब कोई कहता है कि मेरे बोलने का अभिप्राय यह नहीं था, ग़लत अर्थ निकाला जा रहा है. अरे भैया, पहले ही अर्थवान बोलो, ताकि अर्थ ढूंढने की आवश्यकता ही न पड़े. पहले बोलना कठिन और सुनना आसान होता था, लेकिन आज बोलना सरल और सुनना कठिन है.
पहले चुनिंदा लोग बोलते थे और हज़ारों सुनते थे, आनंद लेते थे, तालियां बजाते थे, वाह-वाह करते थे, क्योंकि जो बोला जाता था, वह सार्थक होता था, तर्कसंगत होता था, देश-समाज और व्यक्ति के लिए वैसा बोला जाना आवश्यक था. बोलने की कला पर नहीं, विषय पर ध्यान दिया जाता था. अब बोला नहीं, बका जा रहा है. चिंता की बात यह कि ऐसा बोला क्यों जा रहा है, लेकिन उससे ज़्यादा चिंता की बात यह कि ऐसा सुना क्यों जा रहा है? पहले सुनने का अवसर नहीं मिलता था तो लोग नाराज़ हो जाते थे कि हम सुनने से वंचित रह गए, लेकिन अब बोलने का अवसर नहीं मिलता है तो लोग नाराज़ हो जाते हैं. लाइट-माइक-कुर्सी का पैसा देकर बोलने का अवसर ख़रीदा जा रहा है. बोला जाना समस्या बनता जा रहा है. हमें ध्यान देना होगा कि चारों तरफ़ इतना बोला क्यों जा रहा है? इसकी वजह क्या है, आवश्यकता क्या है, उपयोगिता क्या है, लाभ क्या है और अगर नहीं बोला जाएगा तो क्या नुक़सान होगा? जो भाषण, प्रवचन, समीक्षा एवं उद्घोषणा कर रहा है, उसमें ऐसा क्या गुण है? कुछ ऐसा करना होगा कि इस अनावश्यक बोले जाने में कमी आए. बोलने वाले से पूछा जाना चाहिए कि उसने पिछली बार जो बोला था, उस पर कितना अमल हुआ? यदि इस स्वतंत्र देश में कोई बोलने के लिए आज़ाद है तो हम भी तो सुनने के लिए बाध्य नहीं हैं. हमें अनुपस्थित रहकर ऐसे कार्यक्रमों को असफल कर देना चाहिए. अगर हम बोलने वाले से उसके बोलने का हिसाब नहीं ले सकते, तो कम से कम उसकी कथनी और करनी का हिसाब तो लगा सकते हैं, जांच-परख तो सकते हैं.
चुनावी सभाओं में खिलाड़ी और अभिनेता बोल रहे हैं, साहित्यिक गोष्ठियों में नेता बोल रहे हैं, पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम में उद्योगपति बोल रहे हैं… यह क्या गड़बड़ घोटाला है? मतलब बोलना मज़ाक बनकर रह गया है. क्या अब समय नहीं आ गया है कि जब एक आम आदमी सुनने से इंकार कर दे? क्या कोई ऐसा सिस्टम तैयार करने की आवश्यकता नहीं है, जिसके तहत केवल मान्यताप्राप्त लोग ही सार्वजनिक तौर पर बोल सकें. बोलना चल रही व्यवस्था में दख़ल देना होता है और इतना महत्वपूर्ण काम हर ऐरा-गैरा कैसे कर सकता है? बोलना, कम बोलना और न बोलना, तीनों अलग-अलग चीज़ें हैं और तीनों का अपना महत्व है. मैं बोलने के खिलाफ़ नहीं हूं, कम बोलने का हिमायती नहीं हूं और चुप रहने का समर्थक भी नहीं. ये चीज़ें औजार और हथियार हैं, इनका इस्तेमाल सोच-समझ कर करना होगा. अगर बहुत बोलने की ज़रूरत है तो वहां कम क्यों बोलना? चुप रहने से काम बन सकता है तो थोड़ा सा क्यों बोलना? हमें बोलने को हस्तक्षेप मानना चाहिए, इसलिए कहीं भी किसी का भी बोलना गंभीर और आवश्यक होना चाहिए.
जोश में बोले गए को बोलना न माना जाए, स़िर्फ होश में बोलने वालों को ही सुना जाना चाहिए. ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि हर किसी को बोलने का अधिकार न मिले. बोलने की न्यूनतम योग्यता होनी चाहिए, मापदंड़ होने चाहिए. जो नेता चुनाव हार जाए, उसे बोलने का हक नहीं होना चाहिए. जिस उद्योगपति ने समय पर टैक्स न भरा हो, उसे बोलने का हक़ नहीं. बोलने वाले के पिछले रिकार्ड देखे जाने चाहिए कि वह अपनी पहले कही गई बातों पर अड़िग है कि नहीं. मैं यह नहीं कहता कि बोलने पर पूरी तरह पाबंदी लगा देनी चाहिए. कमज़ोरी-ख़राबी के ख़िलाफ़ यदि बोला नहीं जाएगा तो देश में कानून व्यवस्था नामक कोई चीज़ ही नहीं रहेगी. मैं जिसका विरोध कर रहा हूं, वह अनावश्यक बोला जाना है, गैर ज़िम्मेदाराना बोला जाना है, चर्चा में रहने के लिए बोला जाना है और अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए बोला जाता है. बोलने के लिए स़िर्फ ज़ुबान ही नहीं, दिमाग भी होना चाहिए.
बोलना एक आवश्यक प्रतिक्र्र्रिया है, इसके बिना दुनिया का काम चल ही नहीं सकता. भोजन भी एक आवश्यकता है, लेकिन उसकी भी सीमा होती है. अधिक खाने से नुकसान है. नींद भी आवश्यक है, लेकिन सिर्फ सोते रहना सब कुछ समाप्त कर देगा. परिश्रम बहुत जरूरी है, लेकिन विश्राम नहीं करेंगे तो क्या होगा? यही फार्मूला बोलने पर भी लागू होता है. बोलने वालों से निवेदन है कि वे अपने बोलने पर नियंत्रण रखें, पहले स्वयं की पड़ताल करें, ख़ुद की खबर लें, ख़ुद को मुजरिम मानकर ख़ुद की अदालत में पेश करें और फैसला सुनाएं. सुनने वालों से कहना है कि सार्थक बोलने वालों को ध्यानपूर्वक सुनकर उनका समर्थन करें और अनावश्यक बोलने वालों का बहिष्कार किया जाए.