मेरा नाम केशव है। पेशे मनोचिकित्सक हूँ। स्वभाव से आध्यात्मिक होने के कारण मुझमें लोगों के मनो विकार दूर करने का जुनून है। मुझे लगता है कि यदि मै एक भी शख्स के मनोविकार को दूर कर सका तो मेरा मनोचिकित्सक होना सार्थक हो जायेगा। लेकिन ऐसा हो पायेगा यह तो ईश्वर ही जानता है पर मेरा कर्म है अपना कार्य पूरी निष्ठा के साथ करते जाना।
आज मै जोधपुर की यात्रा पर था। वहां मुझे एक सीएमई में शामिल होना है। मुझे ड्राईविंग का काफी शौक है इसलिये अधिकतर यात्रा मै निजी कार द्धारा ही करता हूँ। मै अपने शहर से दिल्ली पहुंचा। दिल्ली से निकलते–निकलते मेरी नजर एक ढाबे पर पडी मैने कार वहीं रोक दी। पांच घन्टे से ड्राईव कर रहा था। शरीर थोडा विश्राम मांग रहा था। ढाबा ठीक ठाक था। ज्यादा भीड भाड नहीं थी। मुझे कम भीड पसंद थी। और यह मेरे मन के अनुरूप ही नजर आया था। वाशरूम आदि से निबट कर मै कुर्सी पर बैठ गया। ढाबे पर काम करने वाला लडका आर्डर लेने के लिये मेरे पास आया। मैने उसे एक पानी की बोतल और दाल रोटी के लिये कहा। लडके के जाने के बाद मै यूं ही ढाबे के चारों ओर अपनी नजर दौडाने लगा। अचानक मेरी नजर एक बुर्कानशीन को बाईपास करते गुजरी फिर न जाने क्यों वापस उसकी तरफ नजर फोकस की। उसकी भी नजरें मेरी तरफ ही केन्द्रित थी। शायद इसी लिये मेरी नजर उस पर गुजरने के बाद लौटी थी। उसकी बडी बडी झील सी काली आंखों में अजीब सी तलाश नजर आयी। मैने अनदेखा करना चाहा लेकिन अन्दर से महसूस हुआ जैसे वह पूर्व परिचित है। वह निरंतर मुझे देखे जा रही थी। मैने उसे नजरों के इशारे से ही अपने पास बुलाया। वह जैसे इसी इंतजार में थी। वह मेरे पास आई और बोली–" जी कहिए"। मैने उसे अपने सामने बैठने का इशारा किया। वह बिना किसी हिचकिचाहट के बैठ गयी। मैने देखा उसका पूरा शरीर काले लबादे में ढका हुआ था। चेहरे पर नकाब था केवल नजरें ही नुमायां थी। उसकी हथेली बेहद गोरी थी। बुर्के में ढके शरीर का गठाव यह बताने के लिये काफी था कि वह एक नपे तुले गठीले सांचे में ढली हुई बेहद खूबशूरत महिला थी। "खाने में क्या लेंगी आप" मैने उससे पूँछा।
"आप मुझे खाना क्यों खिलाना चाहते है‚ जबकि हम एक दूसरे को जानते तक नहीं।"
"पता नहीं पर आपको देख कर मुझे ऐसा लगा कि जैसे मै वर्षों से आपको जानता हूँ।"
"ऐसा तो मुझे भी लगा लेकिन सच्चाई तो यह है कि मै आपको नहीं जानती पर अजनबी होते हुए भी आपके बुलाने पर लगा कि मुझे आप पर भरोसा कर लेना चाहिए।"
"आप यहीं दिल्ली में रहती है।"
"नहींǃ यहां मै अपनी एक दोस्त के पास आई थी। मुझे अपने एक रिश्तेदार के यहां जोधपुर जाना था। जिसके साथ जा रही थी वह नहीं आये इसलिये अब अपने शहर के लिये किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट से निकलूंगी।"
"आपका शहर कौन सा हैॽ"
"मेरठ।"
"कमाल है मै भी मेरठ का ही हूँ। इस समय जोधपुर ही जा रहा हूँ। पेशे से मनोचिकित्सक हूँ। जोधपुर में मेरी मेडिकल काँफ्रेस है। यदि आपका जोधपुर जाना जरूरी हो तो मेरे साथ चल सकती है।"
"आप सोच रहे होगें की एक अनजान महिला कहां गले पड रही।"
"मै दिमाग का प्रयोग केवल इलाज के बारे में सोचने पर करता हूँ इसके अलावा मेरा दिल जो कहता है वहीं करता हूँ। मैने पहले ही बताया कि आपसे नजरें मिलते ही मुझे लगा कि जैसे आप वर्षों से परिचित हो। अब यह अकारण तो हो नहीं सकता। शायद ईश्वर ही आपको और हमें किसी खास मकसद के लिये मिलाना चाह रहा हो।"
"आपकी शादी हो गई।"
"हां एक साल हो चुके मै मेरी शादी हुए पर आपने यह सवाल ही पहले क्यों पूँछाॽ"
"चलो एक मकसद तो क्लीयर हुआ कि हम दोनों शादी के लिये तो नहीं मिले होगें।"
"तो आपकी शादी अभी नहीं हुई हैॽ"
"मै शादी के दौर से गुजर चुकी हूँ लेकिन अब सिंगल हूँ।"
"ओह‚ सो सैड।"
"किस्मत और वक्त में जो तय होता है वह तो होना ही होता है‚ मेरा डाईवोर्स हो चुका है।"
तभी ढाबे पर सर्विस देने वाला लडका टेबल पर भोजन लगाने लगा। मैने उसे दो थाली और दो कटोरी लाने को कहा।
"हम दोनों दोस्त तो बन ही सकते है। शायद हमें मिलाने का यह मकसद रहा हो।" मैने बात को पुनः जारी रखते हुए कहा।
"दो जवां पुरूष और औरत में दोस्ती..... क्या यह मजाक नहीं........ǃ" उसने फीकी मुस्कान के साथ प्रतिप्रश्न किया।
"हां आज के माहौल को देखें तो यह सबसे बडा मजाक हो सकता है लेकिन असंभव कुछ भी नहीं। डगर कठिन जरूर होगी पनघट की लेकिन प्रयास करना तो जारी रखना चाहीए।"
"औरत तो फिर भी उसूलों की कसौटी पर चलने में सफल हो जाती है परन्तु पुरूष........।" उस अजनबी युवती ने अपनी बात जानबूझ कर अधूरी छोडी।
शेष अगले अंक में जारी...........................