चाँद पर सैर को जा रहीं बेटियाँ जीतकर ट्रॉफियाँ ला रहीं बेटियाँ कोख में मारते हो भला क्यूँ इन्हें ज़ुर्म क्या जो सज़ा पा रहीं बेटियाँ अस्मतें जो सरेराह लुटतीं कहीं मौत बेमौत अपना रहीं बेटियाँ बैठ डोली चलीं जब पिया की गली क्यूँ दहेजी खिज़ां खा रहीं बेटियाँ बदनसीबी जहाँ बेटियाँ ही न हों खुशनसीबी लिए आ रहीं बेटियाँ कम नहीं हम जहां में किसी से सुनो ये सबक सबको सिखला रहीं बेटियाँ फूल सी खुशबुएँ बेटियों से मिलें घर के गुलशन को महका रहीं बेटियाँ फख़्र माँ -बाप को इनपे होने लगा काम वो करके दिखला रहीं बेटियाँ बावरी हैं बराबर ही बेटों के अब ये ज़माने को समझा रहीं बेटियाँ -दीक्षा सारस्वत बावरी §