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बेग़म छुट्टी पर हैं

4 मार्च 2016

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इतवार की मोहक सुबह। लम्‍बी नींद से अलसाये हुए हमने अंगड़ाई ली तब घड़ी ने नौ बजा दिये थे। खिड़की से आती सुबह की धूप से तन-मन खिल उठा था। इतवारी सुबह से आनन्‍दित हमने एक-दो-तीन ..................... करके पूरे सात बार शुक्रिया दे डाला उनको, जिन्‍होंने सप्‍ताह में एक दिन छुट्‌टी का बनाया। यह इतवार ना होता तो शायद इतनी खुशगवार सुबह कभी ना होती।

तकिये को सीधा रख हम बैठने को हुए तो सिरहाने टेबिल पर चाय का प्‍याला ना पाकर चौंक उठे। पंद्रह साल की परम्‍परा को टूटता देख हमारे मन में शंका घर करने लगी। हर इतवार को सुबह उठते ही चाय का प्‍याला तैयार मिलता था। बेगम इस बात का खास ख्‍याल रखा करती थी कि हमें उठते ही चाय मिल जाये। किन्‍तु आज .....................! किसी तरह चाय की तलब पर नियंत्रण रखते हुए हम इन्‍तजार करने लगे कि बेगम अभी चाय ला रही होंगी।

पूरे तीस मिनिट गुजर जाने पर भी चाय ना मिली तो हम झल्‍ला कर उठे और सीधे रसोई को लपके। हम चिल्‍लाकर बेगम पर गुस्‍सा जताने को थे कि रसोई का दरवाजा बन्‍द देखकर ठिठक गये। हर इतवार को बेगम सुबह से ही विभिन्‍न पकवानों की रेसीपी लिये रसोई घर में मशगूल रहा करती हैं, फिर आज रसोई बन्‍द क्‍यों ......!

यह दूसरी विपरीत स्‍थिति देख हम विचलित मन से बेगम के कमरे में गये तो पाया कि बेगम तल्‍लीनता से आराम फरमा रही हैं। चाय की तलब से खिन्‍न हमें क्रोध तो आया पर चिन्‍ता भी हुई। हमने पहले बेगम के सिर पर हाथ रखकर तापमान आंका, फिर नब्‍ज टटोली। सब कुछ नार्मल पाकर हमने बेगम को जगाया-‘‘ बेगम, क्‍या हुआ है तुम्‍हें। सर दर्द कर रहा हो तो बाम लगा दूं।‘‘

बेगम नींद में खलल पड़ने पर झल्‍लाई- ‘‘ क्‍यू तंग करते हो। कुछ नहीं हुआ है। मुझे सोने दो अभी।‘‘

‘‘ मगर बेगम, मेरी चाय का क्‍या होगा और फिर नाश्‍ता भी तो बनाना है।‘‘ - हमारी आवाज में तेजी आई।

बेगम ने करवट ली- ‘‘ आज छुट्‌टी है।‘‘

‘‘ सो तो है बेगम। तभी तो हमें चाय के साथ समोसे की भी इच्‍छा हो रही है। चलो फटाफट बना डालो।‘‘- हमने आदेश दिया तो बेगम तुनकीं- ‘‘आज मैं कुछ नहीं बनाऊंगी। आज मेरी भी छुट्‌टी है।‘‘

‘‘ तुम्‍हारी छुट्‌टी .................. ! ‘‘- हमें आश्‍चर्य हुआ।

‘‘ जी हां। जैसे इतवार को तुम्‍हारी आफिस के काम से छुट्‌टी, वैसे ही अब मेरी भी सप्‍ताह में एक दिन घर के काम-काज से छुट्‌टी रहेगी।‘‘- बेगम की घोषणा ने हमें स्‍तब्‍ध कर दिया। इसका सीधा मतलब था कि आज चाय भी नहीं मिलेगी और नाश्‍ता भी।

मामले की गंभीरता को समझते हुए हम बच्‍चों के कमरे में पहुंचे। बच्‍चों के लटके चेहरे बता रहे थे कि उन्‍हें स्‍थिति की पूरी जानकारी थी। मेरे कुछ कहने से पहले ही उन्‍होंने इसे पति-पत्‍नी का आपसी मामला बताते हुए घरेलू काम में मदद से स्‍पष्‍ट इन्‍कार कर दिया। मैंने अनुनय-विनय से लेकर आदेश देने तक के सारे हथकण्‍डे अपना लिए, किन्‍तु कोई भी टस से मस नहीं हुआ।

हमने मन ही मन बेगम को ढेर सारी उलाहना देते हुए कि क्‍या हुआ अगर बेगम काम नहीं करती, हम भी सब काम कर सकते हैं...........और स्‍वयं ही चाय- नाश्‍ता बनाने का प्रण लिए रसोई में जा पहुंचे। कुछ देर तो हम बौखलाये खड़े रहे कि कहां से शुरू करें। पर कहते हैं ना जहाँ चाह वहां राह, सो काफी ढूंढ़ा-ढ़ांढ़ी के बाद हमने चाय-शक्‍कर के डिब्‍बे पा ही लिए।

चाय बनाकर हमें ऐसा महसूस हुआ मानो कोई किला फतह कर लिया हो, किन्‍तु इत्‍मीनान से सोफे पर बैठकर चाय की चुस्‍की लेते ही हमारा गर्व से तना सीना हवा निकले गुब्‍बारे की तरह पिचक गया। चाय में इतनी चीनी थी कि पूरी पी लो तो शायद डायबिटीज की शिकायत होने लगे। चाय का हश्र देखकर हमारी नाश्‍ता बनाने की इच्‍छा ही मर गयी। खाना बनाने का काम अब पहाड़ सा प्रतीत होने लगा था।

ग्‍यारह बज चुके थे। पेट की कुलबुलाहट हमें रसोई में जाने को विवश कर रही थी। किसी तरह हिम्‍मत बना हम फिर रसोई में पहुंचे। आलू-प्‍याज के अलावा कोई सब्‍जी वहां नहीं थी। आलू काटने लगे तो ऊंगली काट ली और प्‍याज ने तो जैसे हमें अपनी दुर्दशा पर सौ-सौ आंसू बहाने का बहाना दे दिया था। हम कोस रहे थे उस पल को जब हमने महिला-पुरूष बराबरी की वकालत में लम्‍बे-लम्‍बे भाषण दे डाले थे। बराबरी के साईड इफेक्‍ट्‌स का अहसास तब हमें नहीं था। खैर, अब पछताये क्‍या होत ..................!

जो-जैसा सूझा मिर्च-मसाला मिलाकर हमने सब्‍जी के लिए कूकर चढ़ा दिया और तब आटा तलाशने लगे। अनुभव विहीन अंदाज से थोडा आटा,थोड़ा पानी लिया और लगे आटा गूंथने। अब मुसीबत यह कि कभी आटा पतला तो कभी पानी कम। कभी आटा और कभी पानी मिलाते-मिलाते हम इतना थक गये कि सिर चकराने लगा। कूकर की सीटी ने चौंकाया तो आटा सने हाथों से कूकर उतार कर देखा सब्‍जी जलकर काली हो चुकी थी। कूकर में पानी डालना तो हम भूल ही गये थे। अपनी सारी मेहनत को जाया होते देख हमारी धड़कन बढ़ने लगी, सिर से पसीने की बूंदे टपकने लगी थी। पानी पीने को कदम बढ़ाया तो गश खाकर गिर पड़े।

होश आया तब स्‍वयं को बेगम व बच्‍चों से घिरा पाया। बेगम हमारा सिर दबा रही थी और बच्‍चे पैरों की मालिश कर रहे थे। हमें अब यह अहसास हो रहा था कि घरेलू काम-काज आफिस के काम से अधिक दूभर है। यह बेगम का ही हुनर है कि सुबह की चाय से लेकर डिनर तक का सारा काम कितनी सरलता से निपटा लेती हैं। बेगम बेशक हमसे गुलामी करवा ले, पर तोबा ! रसोई का काम करने को कभी ना कहे।

इस निष्‍कर्ष से हमारी धड़कनें अब नियंत्रित होने लगी थीं। हमने अनुनय भरी निगाहें बेगम की ओर घुमायी, तो बेगम को मन्‍द-मन्‍द मुस्‍कुराते पाया। शायद, बेगम ने हमारी मनःस्‍थिति को जान लिया था।


प्रियंका शर्मा

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