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अध्याय-१

15 नवम्बर 2021

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“ईश्वर ने उसके साथ बडा अन्याय किया है बेटा। वह जाने कैसा भाग्य लेकर इस संसार में आया है1 जन्म के समय ही बाप का साया माथे से उठ गया था और जब पाँच साल का हुआ तो एक हादसे में उसके दोनों पैर चले गये। उसको घिसट-घिसट कर चलते देखता हूँ तो कलेजा मुँह को आता है, पर मेरी बदकिस्मती देखो, उसके सामने रो भी नहीं सकता। रात के अंधेरे में सबसे छिपकर दो आँसू बहा लेता हूँ। जवान बेटे को खोकर भी कलेजा पत्थर का नहीं हुआ था, पर पोते के दु:ख ने मेरी सारी इच्छाओं को कुंद कर दिया है। मैं तो इसके कष्टो को देखता हूँ तो कभी-कभी सोचता हूँ कि इसे प्रभु ने जीवन-दान ही क्यों दिया था, क्यो नहीं उस हादसे में....” इतना कहते-कहते रामछवि फूट-फूट कर रो पडा।

बूढे के अचानक रो पडने से भुवन किंकर्त्तव्यविमूढ हो गया। उसे समझ में नहीं आया कि उसे अब क्या करना चाहिये। थोडा संभल कर उसने बूढे को दिलासा देते हुये कहा–“धीरज रखो काका, ऊपर वाले की मर्जी को कौन समझ पाया है?“ पर बच्चे की दशा देखकर उसके गले से बनावटी सहानुभूति के औपचारिक शब्द भी निकल नहीं पाये। थोडी देर तक तो वह समझ ही नहीं पाया कि बात बढायी कैसे जाये। दुविधा में वह कुछ देर तक चुपचाप बैठा रहा, फिर थोडे समय तक वह बूढे को टकटकी लगाकर देखता रहा। बूढा रामछवि अंगोछे से अपना चेहरा ढाँपे सुबक रहा था, भुवन की सहानुभूति ने उसके बैठे दर्द को जगा दिया था। बूढा रो रहा था, पर उसके आँसुओं के भाव शायद एक ना थे- कभी वह अपने पोते के कष्टपूर्ण जीवन की पीडा से रोता था, तो कभी वह अपने जवान बेटे की असमय मृत्यु के संताप और कभी उसके साथ बिताये वक्त की सुखद स्मृति से रोता था। अभी वह अपना चेहरा ढँक कर सुबक ही रहा था कि उसकी विधवा बहू अपने दोनों हाथों में स्टील के दो गिलासों में चाय लेकर वहाँ आयी। बूढे को रोता देख कर उसके चेहरे पर विषाद के भाव उभरे, पर एक अजनबी आगंतुक के समक्ष भावुक होना उसे उचित नहीं जान पडा। बूढे ने भी अपना अंगोछा झटपट कंधे पर रख लिया और उठकर ओसारे के दाहिने कोने पर रखी बाल्टी में से एक लोटा पानी निकाल कर अपना मुँह-हाथ धोने लगा। उसे भी अपनी बहू के सामने भावुक होना ठीक नहीं लगा था। वह भली-भाँति समझता था कि उसकी बहू के दु:ख के सामने उसका दु:ख तृणमात्र था। रामछवि जीवन के सत्तरवें साल में था। उसका जीवन उस अवस्था तक पहुँच चुका था जबकि आदमी जीवन के सर्वश्रेष्ठ दौर से गुजर चुका होता है, इसलिये वह जीवन को आगे नहीं वरन पीछे ढूँढता है। रामछवि के वर्त्तमान में यदि यह भीषण दु:ख ना भी होता, तब भी वह अपनी अतीत की स्मृतियों में ही जीवन की मिठास पाने की कोशिश करता, पर उसकी बहू के संबंध में यह बात सही नहीं थी। भले ही उसके विवाह को ग्यारह वर्ष बीत चुके थे, पर वह अभी भी चौबीस से अधिक की नहीं थी। हालांकि पति की असमय मृत्यु और बेटे के अपाहिज हो जाने की पीडा के कारण उसकी उम्र तीस-बत्तीस के आस-पास नजर आती थी। अभी उसके समक्ष पूरा जीवन पडा था। वह अपने सुख के दिनों में निश्चय ही सुन्दर रही होगी, पर अब उसके चेहरे पर झाईंयाँ पड चुकी थीं और पूरा चेहरा गहरे धब्बों से भरा नजर आता था। उसका शरीर भी उन गहरे सदमों के कारण कमजोर और वृद्ध मालूम पडता था। उसने एक सफेद धोती को साडी की तरह लपेट रखा था। भुवन ने सरसरी नजर से उस औरत को देखा। औरत ने अपना पल्लू खींच कर अपने चेहरे को छिपा लिया। उसे भुवन का उसकी ओर देखना पसंद नहीं आया था। भुवन भी उसके चेहरे पर पल्लू खींचने से झेंप-सा गया। उसका ध्यान फिर से बूढे की तरफ गया। बूढे ने अपनी चाय खत्म करके अपने गिलास को खाट के नीचे सरका दिया था। वह अब अपनी कमर से धोती में लपेटी हुई तम्बाकू की डिबिया निकाल रहा था। उसने डिबिया से थोडा-सा तंबाकू और चूना लेकर अपनी हथेली पर रखा और दूसरे हाथ के अंगूठे से मसलना शुरू कर दिया।  

“आपके बेटे के साथ क्या हुआ था?” भुवन ने बात का एक सिरा थामते हुये पूछा।  

बूढे ने तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसने अपनी हथेली पर पडे तंबाकू को गौर से देखा और सिर झुकाये कुछ देर वैसे ही देखता रहा।

“काका, आपके बेटे के साथ क्या हुआ था? कोई बीमारी थी क्या?” भुवन ने थोडे ऊँचे स्वर में दोहराया। प्रत्यक्षत: उसे यह महसूस हुआ कि बूढा शायद थोडा ऊँचा ही सुनता था।

“मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस दिन सुबह से ही जोरदार बारिश हो रही थी। शाम तक खेतों में पानी भर गया था। धान के पौधों की हरियाली खेतों में चारों ओर फैली थी। रघु...मेरे बेटे ने कहा कि वो मेडों को बाँधने खेत जा रहा था नहीं तो सारा पानी निकल जाता। वह छतरी लेकर चला गया। उसके उधर जाते ही इधर बहू की प्रसव-पीडा शुरू हो गयी। मैं भाग कर सत्तो काकी और आस-पास की औरतों को बुला लाया। मेरी पत्नी तो मेरे दूसरे पुत्र को जन्म देते ही चल बसी थी–दोनों माँ-बच्चा एकसाथ चले गये थे।“ बूढे रामछवि की आँखें अतीत में गुम मालूम पडती थीं। आवाज पत्थर की तरह सख्त और ठंडी....जीवन की कटु स्मृतियों ने बातों का सारा रस निचोड लिया था मानो। थोडी देर चुप रह कर उसने फिर से बोलना शुरू किया,” मैं अपनी बहू को गाँव की औरतों की देख-रेख में छोडकर रघु को बुलाने के लिये खेत की तरफ भागा। खेत पहुँचा तो देखा कि रघु खेत की मेड पर औंधे मुँह लेटा था, उसका चेहरा नीला पड रहा था और मुँह से झाग निकल रहा था। शायद किसी जहरीले सर्प ने उसे डस लिया था। हमने कोशिश की पर उसे बचा नहीं सके। पोते का जन्म और बेटे की मृत्यु की खबर साथ-साथ आयी थी। सुमन पर तो दु:खों का पहाड टूट पडा था। बेटे को कलेजे से चिपटा कर कई महिनों तक रात-दिन रोती रहती थी। उस समय बस वह सत्रह साल की ही थी। उसे समझाने-बुझाने की मुझमें हिम्मत ना थी। उसके मायके से उसके भाई और भाभी उसे ले जाने आये तो उसने मना कर दिया था– “मैं चली जाऊँगी तो बाबा बिल्कुल अकेले पड जायेंगे भाभी। मेरा बंधन केवल मेरे पति से नहीं था, मेरा बंधन इस घर से हुआ है, यह घर छोडकर मैं कहीं नहीं जाऊँगी।“ बहू का टका-सा जवाब पाकर वे लोग वापस लौट गये थे। 

भुवन ने गहरी साँस ली। सर्पदंश से रघु की जान चली गयी, किसे दोष दिया जाये? नियति के आगे किसका जोर चलता है? भुवन को कभी-कभी परमात्मा का विधान समझ नहीं आता है, वह ऐसे भले लोगों पर इतनी कडी चोट करता है जबकि बुरे और पापी लोगों की झोली भरता जाता है। अवचेतन में कहीं भुवन के मन में बूढे की बहू के प्रति श्रद्धा के भाव आये, जहाँ एक तरफ लोग अपनी छोटी-छोटी सुविधाओं को लेकर इतने सजग और स्वार्थी हैं कि भाई-भाई की पीठ में खंजर भोंकने में जरा भी देर नहीं लगाता, वर्षों के रिश्ते एक पल में टूट जाते हैं, वहीं एक नारी का ऐसा महान त्याग भुवन के मन को आर्द्र कर गया।

“तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है बेटा”, बूढे ने भुवन का ध्यान चाय के गिलास की ओर आकर्षित किया। भुवन ने गिलास उठा कर लंबे-लबे घूँट भरे और गिलास खाली कर नीचे जमीन पर रख दिया। फर्श मिट्टी की थी पर गोबर से लिपी-पुती और बिल्कुल साफ-सुथरी थी। भुवन का ध्यान पहली बार घर की तरफ गया। मिट्टी की दीवारें और फूस की छप्पर थी। चारों तरफ ईंट की चहारदीवारी थी, जिसके पूरब में घर में प्रवेश करने का दरवाजा था। घर के सामने बडा सा आँगन था। आँगन के ही एक छोर में बाँस और फूस से एक ओसारा बना हुआ था। घर के बायीं ओर लहसुन और प्याज की क्यारियाँ बनी थीं, जबकि चहारदीवारी पर कद्दू और करेले की लतायें चढी हुयी थीं। घर के दायीं ओर पीछे की तरफ गोशाला थी और उसके बगल में पुआल के गठ्ठर के पूँज लगे हुये थे। एक दरवाजा पीछे की तरफ भी था जो शायद कुएँ पर आने-जाने के लिये प्रयोग में लाया जाता था।

बूढे के खाँसने की आवाज ने भुवन का ध्यान भंग किया।

“फिर क्या हुआ काका?”

बूढे ने शून्य में देखते हुए आगे बताना शुरू किया।

(क्रमश:)

________ब्रजेश कुमार। 26 जून 2021©


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नवजीवन
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जीवन सभी उलझनों और मुश्किलों के बावजूद खूबसूरत है। जब हम बहुत सरलता से किसी जीवन को संवारने की ईमानदार कोशिश करते हैं तो प्रतिफल के रूप में हमें संतोष और सुख प्राप्त होता है। जीवन के इसी दर्शन को उकेरने का प्रयास करती एक कहानी।

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