shabd-logo

अध्याय-२

15 नवम्बर 2021

16 बार देखा गया 16

   “ बेटा, भगवान ने हमें कई सारे वरदान दिये हैं, भूलना भी उनमें से एक है। ऐसे तो लगता है कि भूलना एक रोग है पर अगर आदमी को सारी बातें याद रह जाये तो वह एक पल भी सुकून से जीवित नहीं रह सकता। समय का सबसे बडा उपकार यही है कि यह बडे-से-बडे आघातों के स्मरण को भी अवचेतन में धकेल देता है। गाहे-बगाहे चोट उभरती तो है, पर जीवन का पहिया घूमता जाता है और हम पुन: एक सामान्य जीवन की तरफ लौटने लगते हैं।“

भुवन बूढे की दार्शनिकता पर विचारमग्न हो गया। उसका अधिकांश जीवन गाँव से बाहर ही बीता था, उसे गाँव के लोगों की निरक्षरता का तो बोध था, पर उसे गाँव में बहते ज्ञान की धारा का जरा भी अनुभव नहीं था। बूढे का यह आत्मबोध किंचित उसके मन को छू गया था शायद, इसलिये वह ज्यादा ध्यान से बूढे की बातें सुनने लगा।

“हमलोग भी अपने-अपने शोक को विस्मृत कर सामान्य जीवन में लौटने लगे। मैं बार-बार ईश्वर को धन्यवाद देता कि उसने हमें एक नन्हा जीवन देकर हमारे इतने गहरे संताप को क्षीण कर दिया था। इसलिये मैंने अपने पोते का नाम भी नवजीवन ही रखा था। नवजीवन की किलकारियों में ना कोई विषाद था और ना ही कुछ खो जाने की अनुभूति। उसकी निश्छल खिलखिलाहट हमें सबकुछ विस्मृत करा देती। उसकी खिलखिलाहट से हमेशा गुम और उदास रहने वाली उसकी माँ...मेरी बहू सुमन भी फिर से मुस्कुराने लगी थी। जीवन की कलियाँ पुन: प्रस्फुटित हो रही थीं। मेरे बूढे शरीर में फिर से खेतों में हल चलाने की शक्ति-साहस का संचार हो गया था और सुमन भी दिन भर घर के कामों और नब्बू में खुद को व्यस्त रखने लगी थी।“

गर्मी के दिन थे। दोपहर ढल चुकी थी, पर गर्मी की ताप अभी भी बनी हुई थी। बूढे की बहू कुएँ से बाल्टी भरकर पानी लाकर पूरे आँगन में छिडक कर अब झाडू लगा रही थी। तपी हुई धरती पर पानी की बूँदें गिरकर ऐसी सौंधी महक दे रही थीं कि भुवन कुछ देर के लिये उस महक में खो गया। उसने वर्षों से मिट्टी की इस सौंधी खुशबू का अनुभव नहीं किया था। यह खुशबू उसकी नासिका से हृदय तक उतरती चली गयी। पानी और मिट्टी के इस असाधारण मेल को देखकर अकारण ही उसकी पानी पीने की इच्छा हुई।

“काका, एक गिलास पानी मिल सकता है?”

रामछवि ने अपनी बहू को आवाज दी और सुमन झाडू वहीं आँगन मे ही रखकर बाल्टी लेकर कुएँ पर चली गयी।

बूढे को आभास हुआ कि उसकी बातों में आगंतुक की दिलचस्पी थोडी कम हो गयी थी, सो वह भी चुप हो गया। भुवन चुपचाप बैठकर पानी का इंतजार करता रहा। कुछ ही देर में सुमन काँसे के लोटे में और एक स्टील के गिलास में पानी भरकर ले आयी। उसने आहिस्ते से गिलास और लोटे को वहीं जमीन पर रख दिया और तत्क्षण अपने काम में जुट गयी। उसने कुछ कहा तो नहीं परंतु शायद उसका लोटा दे जाना इस बात का संकेत था कि आगे प्यास लगने पर लोटे से पानी लेकर पी लिया जाये। भुवन मन-ही-मन मुस्कुराया पर उसे ग्लानि भी हुई।  अकेली विधवा औरत जिसके जीवन में बस एक बूढा ससुर और ग्यारह वर्ष का एक अपाहिज बेटा हो,उसकी पीडा को समझ पाना भुवन के वश की बात ना थी। उसके अंदर दया का भाव आया, सहानुभूति का भाव आया, पर वो अन्तर्दृष्टि नही आ सकी  जिसमें वह स्वयं को उस बेचारी विधवा के स्थान पर रखकर देख सकता। उस बेचारी का किसी भी पुरूष के सामने छद्म सख्त खोल बना लेना आवश्यक था । उसके मन या हृदय में कहीं, कोई गाँठ ना थी, पर वह किसी पुरूष के सामने अपने बेगाँठ मन को कैसे रख सकती थी! उसका स्त्रीत्व अब मातृत्व में बदल चुका था और वह पुन: स्त्री बनकर अपने कमजोर मनोभावों को किसी पुरूष आगंतुक के समक्ष प्रकट करने की किंचित अभिलाषी ना थी। कठोरता का यह स्वांग ही अब उसका सर्वश्रेष्ठ आभूषण था।

 

  भुवन पानी लेकर गट-गट पी गया मानो कितनी देर से उसने अपनी प्यास रोक रखी थी। सूरज पश्चिम की तरफ झुक रहा था। भुवन ने एक बार अपनी घडी देखी। पाँच बजने वाले थे। यद्यपि उसे कोई हडबडी ना थी, पर किसी के घर में इतनी देर तक बैठना उसे उचित ना जान पडा। उसने रामछवि को संबोधित करते हुये कहा–

“काका, मैं कल सुबह आऊंगा, चाय आपके साथ ही पिऊंगा। मैं जान रहा हूँ कि अभी आपके संध्या-वंदन का समय हो रहा है।“

रामछवि ने बहुत ही सरलता से कहा – “अतिथि देवो भव। तुम्हारी सेवा कर ली तो समझो ईश्वर की वंदना भी कर ली। अब इतनी शाम गये कहाँ जाओगे? तुम्हारे घर में तो पिछले पंद्रह-बीस साल से झाडू-पौंछा नहीं हुआ होगा, घर भी टूट-फूट गया है, कल दिन में साफ-सफाई कर लेना, तब ही वहाँ रूकना। क्या पता कोई साँप-वाँप कुंडली मारे बैठा हो!”यूँ तो यह बात बूढे ने सहज हास्य-भाव से ही कही थी, पर साँप की बात कहते-कहते बूढे की आँखों का भाव बदल गया, अतीत की कडवी यादों का धुंधला सा बादल उसकी आँखों में दिखा। फिर तो भुवन के सारे प्रयास निष्फल हो गये।  बूढे ने उसे जाने नहीं दिया और भुवन को रूकने के लिये हामी भरनी ही पडी।

(क्रमश:)

‌‌‌‌‌‌‌‌_______ब्रजेश कुमार । 27 जून 2021©


6
रचनाएँ
नवजीवन
0.0
जीवन सभी उलझनों और मुश्किलों के बावजूद खूबसूरत है। जब हम बहुत सरलता से किसी जीवन को संवारने की ईमानदार कोशिश करते हैं तो प्रतिफल के रूप में हमें संतोष और सुख प्राप्त होता है। जीवन के इसी दर्शन को उकेरने का प्रयास करती एक कहानी।

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए