रात होने तक भुवन घर में सबसे घुल-मिल चुका था। घर में रात्रि-विश्राम करने वाले अतिथि खास होते हैं, यदि उम्र और रिश्तों की रूकावटें ना हो तो उन्हे घर के सदस्यों जैसा बर्ताव प्राप्त होता है। यद्यपि सुमन ने भुवन से कोई विशेष बात-चीत तो नहीं की थी, परंतु अब उसके चेहरे पर वैसी सख्ती के भाव नहीं थे। वह आँगन के ही कोने में लकडी के चूल्हे पर रोटियाँ बना रही थी। नवजीवन वहीं एक तरफ एक पीढे पर बैठा था। माँ गर्म-गर्म रोटियों में सरसों तेल और नमक लगा कर उन्हें गोल मोड कर उसे दे रही थी और वो हँस-हँस कर खाता जाता था। नवजीवन को देखकर ऐसा लगता था जैसे उसे संसार की कोई चिंता ही ना थी। भुवन को भी अपने मनोभावों पर हैरानी हुई कि वो ऐसा क्यों सोच रहा था–उस बच्चे को खुश क्यों नहीं रहना चाहिये, पैर चले गये तो क्या वो रोता ही रहे, उदास ही रहे–ना, ये बच्चा तो ऐसा नहीं जान पडता, वह पैर नहीं होने का शोक नहीं मनाता, बल्कि मुख होने का उत्सव मनाता हुआ जान पडता था–भुवन ने देखा कि उस ग्यारह साल के बच्चे ने चौथी रोटी खत्म की। माँ ने पाँचवी रोटी के लिये पूछा, नब्बू ने फूला हुआ पेट दिखाया। भुवन के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट उभरी। उसे वह माँ-बेटे का लाड़ बेहद सरस और प्राणवान जान पडा। उसके अंदर ऐसे भाव जगे कि उसका वश चलता तो वह उसी पल उठकर नवजीवन को गोद में उठा कर उसे अपने प्राणों से भींच कर लगा लेता। मनुष्य के जीवन में कभी-कभी वह अवस्था आती है जिसमें वह ईश्वरत्त्व को अनायास बिना किसी प्रयास के ही पा लेता है। अभी भुवन की वही अवस्था हो रही थी। उसके मन के अंदर यदि झाँक के देखा जा सकता तो वहाँ पवित्रतम विचार ही उमडते-घुमडते मिलते। उसके अंदर करूणा और प्रेम की वह धारा बह रही थी जिसमें वह अपना सर्वस्व लुटा देने को भी तैयार था।
भुवन को अपने बचपन के दिनों की कोई पक्की याद नहीं थी। जब वह नौ साल का था तो पिता का देहांत हो गया था और उसके ठीक अगले ही वर्ष माँ भी सदमे से चल बसी थी। वह कुछ दिनों तक वहीं रामछवि काका के घर रहा था, फिर एक दिन क्या जी में आया कि वह भाग कर दिल्ली चला गया था। जब भी उसने किसी बच्चे को उसके माता-पिता के साथ देखा था, उसके मन में कचोट उठी थी। पिताजी के साथ खेतों में काम करना और उनके कंधे पर बैठ कर घर लौटना भुवन की सबसे स्पष्ट बाल-स्मृतियों में से था। जब वे लोग घर लौटते तो माँ उनके भोजन के लिये जैसा उद्योग करती थी और तरह-तरह की सब्जियाँ उनकी थाली में ऐसे परोसती जाती कि भुवन आश्चर्यमिश्रित खुशी से माँ की गोद में बैठ जाया करता था। । भुवन को यह भी याद था कि वह हमेशा अपने पिताजी के साथ ही, एक ही थाली में खाया करता था। आज नवजीवन को ऐसे देख कर उसे अपने बचपन के दिनों का स्मरण हो आया था। गाँव छोडने की उस घटना को आज बाईस वर्ष बीत चुके थे। वह तो अभी बस गाँव के घर और जमीन को बेच कर हमेशा के लिये उस गाँव से संबंध तोडने आया था, परंतु उसके भीतर कुछ ऐसा घटित हो रहा था जो उसे अनिर्णय की अवस्था में डाल रहा था।
रात का खाना खाने के बाद वहीं ओसारे में दो खाट बिछी–एक रामछवि के लिये और दूसरी अतिथि के लिये। अतिथि की खाट पर नयी चादर बिछाई गयी थी, तकिये के गिलाफ पर फूलों की कढाई थी। भुवन लेट गया। सफर की थकान थी, रीढ सीधी हुई तो सुखद अनुभूति हुई। उसने दूसरी खाट की तरफ देखा। रामछवि खाट पर बैठ कर “प्रभु का सुमिरन” कर रहा था। थोडी देर बाद “हरिओम” की ध्वनि के साथ बूढे की प्रार्थना समाप्त हुई। बूढे के खाँसने से चारपाई चरमराई।
“काका, नींद आ रही है क्या?”, भुवन ने बडे आदर और अपनत्व से पूछा।
“नहीं बेटा, इतनी जल्दी सोने की आदत नहीं रही, जिम्मेदारियाँ जब मुझे मरने तक नहीं देती हैं, तो मैं सुकुन से सो कैसे सकता हूँ!”
भुवन ने एक पल बूढे की बात को ध्यान से सोचा। सही तो था, जिस उम्र में उन्हें घर में बैठ कर रामायण पाठ करना था, उस उम्र में वे खेतों में हल जोत रहे थे। जिस उम्र में उन्हें संसार का सारा सुख बैठे-बैठे मिलना था, वहीं आज छोटी-छोटी बातों के लिये भी उन्हें स्वयं ही उद्यम करना पडता था। भुवन के मन में वे विचार चल ही रहे थे कि ताड के पत्ते के हाथपंखे और पानी का लोटा लिये सुमन आयी।
“बाबा, मैं सोने जा रही हूँ, कुछ और चाहिये तो नहीं?”, सुमन ने हौले से रामछवि से पूछा।
ना बेटा, जाओ तुम आराम करो, तुम्हारे बिना नब्बू भी नहीं सोया होगा।“
“माँ, जल्दी आओ, यहाँ अकेले डर लग रहा है।“ भीतर कमरे से नवजीवन के चिल्लाने की आवाज आई।
“आ रही हूँ।“ कहते हुये सुमन तेज कदमों से अंदर चली गयी।
भुवन ने नेपथ्य में दरवाजा बंद होने की आवाज सुनी।
“काका? फिर क्या हुआ था?” भुवन ने बहुत गंभीर आवाज में रामछावि से पूछा।
“फिर........” रामछवि ने एक गहरी साँस ली, जैसे कि अतीत के उस पन्ने को वह पलटना ही नहीं चाहता था।
(क्रमश:)
_______ब्रजेश कुमार । 27 जून 2021©