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मेंढक का घर १

16 अक्टूबर 2021

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"जुलाई की पहली तारीख। महीने की तनख्वाह का बेसब्री से इंतज़ार। बारिश लगभग अपने रौद्र रूप में आने ही वाली थी। बदलो में कालिख, धरती पर नमी। नमी भी ऐसी की दलदल में फसी सारी जमी। सड़को में पानी का अड्डा और नालियों को खुद का आता पता नहीं।"

मै अंशी अपनी कुछ पंक्तियां इस सुहाने, पानी भरे मौसम को समर्पित करती हूं। हां माना की .... कि बारिश मूड में नहीं समझ आ रही पर जल्द ही बारिश अपना जलवा दिखाएगी।

हां मां, कहो क्या हुआ। अच्छा आ रही हूं।
ये मेरी मां भी ना हर दो मिनट में मुझे याद कर ही लेती है। कभी काम के बहाने तो कभी देखने के बहाने। पर जो भी करती है मुझे अच्छा लगता है।

ठहरना थोड़ा मै मां से मिलकर आती हूं।
मां - छोटी बारिश हो रही है, बाहर मत जाना वरना बरसात के पानी से तेरे तन पर दाने आ जाएंगे।
मै - क्या मां तुम भी ना। आज भी वैसी ही हो जैसी २ साल पहले थी। अब तो मुझे बारिश का लुफ्त उठाने दो मां। मै अब तुमसे थोड़ी तो बड़ी हो ही गई हूं।
          हां हां पद में ना सही पर कद ही सही। बड़ी तो हुई हूं ना। अब मुझे मत मना किया करो ना। तुम बहुत अच्छी हो पर मुझे भी थोड़ा अच्छे पल बारिश के संग बिताने का अवसर दे दो मां।
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हां तो मै कहा थी क्या कह रही थी। अच्छा हां बारिश की कुछ पंक्तियां अपनी डायरी पर संजो रही थी।

पापा बस आते ही होंगे पिछले महीने की तनख्वाह लेकर। हम भाई बहनों में बहुत उत्साह है। हमने बहुत कुछ सोच कर रखा है, क्या क्या खरीदना है वागैरह वगैरह..... ।।

मै - चलो भइया बाहर चलते हैं। सड़क पर खूब सारा पानी होगा। बहुत मजा आयेगा। चलो ना जल्दी....
भइया - रुक छोटी, तुझे याद है ना पिछली बार जब तू मेरे साथ गई थी तो क्या हुआ था तेरे साथ।
मै - हां भइया पर हर बार ऐसा ही थोड़े होगा।
भइया - मां इसे अब तुम ही समझाओ। मेरी तो सुनती ही नहीं।
मां - बेटा अब मै क्या समझाऊं। मै तो समझा समझा कर थक चुकी हूं तेरी छोटी को।
मै - भइया मां को बोलने दो चलो हम दोनों चलते है चुपके से। पापा के आने से पहले अा जाएंगे घूम कर।
भइया - तू नहीं सुधरेगी ना। किसी की बात तो अब माननी ही नहीं अब तुझे। बड़ी जो हो गई है।
मै - भइया जल्दी चलो वरना पापा आ जाएंगे हमें वापस भी तो लौटना है पापा के आने से पहले।
भइया - देख लो मां, अभी ये यह कह रही है हमें जल्दी आना है। अभी बाहर जाएगी तो मै कहते कहते थक जाऊंगा की चल घर चल पापा आते होंगे तो ना आयेगी। बाद में पापा कि डाट मुझे ही सुननी पड़ेगी। इसके हिस्से की भी। छोटी को तो पापा कुछ कहेंगे नहीं, मुझसे छोटी जो है।
मै - तो क्या हुआ भइया खा लेना मेरे हिस्से की डाट। अपनी छोटी के लिए इतना भी नहीं कर सकते क्या।

मैंने किसी तरह भइया को मना लिया अपने साथ बारिश में खेलने के लिए। बस अब जाने की देरी है।

मै वहां ये खेल खेलूंगी, ऐसे खेलूंगी, ये करूंगी वो करूंगी।
भइया मुझे हिलाते हुए - अब सपनो में ही सारे खेल खेलेगी क्या। या चलेगी भी।
मै - हां भइया चलो चलो।।

मैंने अपने पुराने जूते पहने और भइया के साथ चल दिया मैंने। रास्ते में बहुत पानी था। बहुत आनन्द आ रहा था पानी में छप छप करके चलने में।

भइया - जरा आराम से चल छोटी अब क्या पूरा पानी जूतों में ही भर लेगी क्या।
मै - भइया बहुत मजा आ रहा है। पर मेरे पैर में यह गुदगुदी कैसी?
भइया - अब तेरे पैरों में गुदगुदी भी होने लगी वाह रेे छोटी। बहुत नाटक करती है।
मै - नहीं भइया मै सच कह रही हूं। देखो ना मेरे जूतों में क्या है।

आगे की कहानी अगले भाग में......

Rivanshi Agrahari.....🙂

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मेंढक का घर
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यह एक बाल साहित्य है। इस किताब की अच्छी बात यह है कि इससे हम कुछ अच्छा और नया ज्ञान सीख सकते है। धन्यवाद।।

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