गांव वह सुहानी सी पुरवाई , लहलहाते खेत, झूमती अमराई। क्या देखा है आपने गांव? जहां अल्हड़- सी प्रकृति, नव यौवना की भांति मुस्काई। दूर गायों की घंटियों की रुनझुन , लौटते ग्वाल ,उछलते जानवरो के निनाद , जैसे गाते कोई गीत- बधाई । जलते चुल्हो के उठते धुंध , उपलो की सोंधी महक , बाटी चोखा, बेसन और गुड़ की मिठाई। स्नेह पगे रिश्ते , भौजाइयों की चुहल , नंदोई की निष्पाप हंसी, अधपकी मूछों वाले पिता, वह अधेड़ युवती -सी माई। वह खास भोलापन , सोंधी मिट्टी, महकते खेत, बादलों की उमगाई । सुबह मंदिर के घंटियों की रुनझुन, छठ और कजरी के गीत , रोते बबुआ की ढिठाई। बगीचे में कुदती डोल- पात की टोलियां , आइस -पाइस,सटर्रो, अखाड़े की धूल, वह गाढ़े दूध की मलाई। पुआलों के ढेर पर फुदकते बच्चे , कउड़ों की सभा, बिन बात की बहस, और दद्दा की कविताई। आह समय में न जाने कैसे करवट ली! छूट गई हमारी वास्तविकता, मानसिकता यू पगलाई! हमने अपनी पहचान ही बिसराई । हां देखा था कभी गांव, वह देशी- पन, किलकती जिंदगी , अब तो बस ढोना है , एक लाश की मानिन्द , बस खुद की तन्हाई। --पीयूष" मोहन"