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ग्रहण - एक सारांश

31 जुलाई 2017

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बहुत तेज बारिश हो रही है... आज गलियों मे गुठनो तक पानी भी लगा हुआ है...मोहत्सिमगंज का ये नजारा तो बारिश मे आम है... अब तक रात के 11.00 बज चुके है। मन मे कई सवाल है क्या मां राह देख रही होगी? कही उसकी आंख न लग गयी हो ? पिता जी उठ गये तो क्या जवाब दूंगा?...इतनी रात मे सबको जगाना.. आज तो शामत ही है...सहसा तेज रोशनी आंखों पर पड़ी शायद कोई एक्सप्रेश ट्रेन है। तेज हॉर्न की आवाज ओह ...बरीश मे हॉर्न की आवाज कुछ अलग ही तर्राती है...मेरे ख्याल से बम्बई मेल है, आज लेट हो गयी है शायद....

मोड़ पर पहुंचते ही जीने पर बना कमरा, मेरा अशियाना नजर आने लगा उसके बाहर लटकता हुआ 60 वाट का टिमटिमाता बल्ब अभी तक मेरी राह देख रहा है।पूरे घर मे, शायद वो ही है जो अब तक जाग रहा है । झिंगुरों के आवाज की खनखनाहट पास रेलवे लाईन के करीब की झाड़ीयों मे सरसराहट खतरे का आभास ही नही एहसास भी करा रही है । सहसा ही किसी के करीब आने के एहसास से मेरे कदम खुद ही तेज हो चले है...अरे ये क्या? ये तो मेरा प्यारेलाल है मेरे मोहल्ले का या यूं कहूं तो एक दिलफेंक आवारा कुत्ता जिसकी खातिर हर चौखट अपना है नही तो सब के सब पराये....इतनी रात मे भी उसका एक ही सवाल है मुझसे, मेरा ग्लूकोज वाला बिस्कुट कहां है भाई...

अब बारिश भी कुछ हल्की होने लगी है। गेट अंदर से बंद है..क्या करूं? क्या करूं? लगातार ये सवाल मेरे मन मे खुद-ब-खुद दोहरा जा रहा है...गेट लांघ कर ही जाना बेहतरी है पर गेट की उंचाई व उस पर लगे कांटो के चक्रव्यूह को तोड़ना बहुत ही मुश्किल है पर शायद उस मुश्किल से आसान जो घर के अंदर खर्राटे ले रहा है... पिता के लिये ऐसा सोचना ठीक नही पर वक्त और हालात ही कुछ ऐसे है की ख्याल की नौका खुद ही हिचकोले ले रही है । चलो राम जी का नाम लो और कर दो लंका मे चढ़ाई....च्रर्रर्रर्र..ये क्या? लगता है कमीज गयी कुछ खुरच भी गया है उफ्फ...धप्प आखिर हो ही गया गृहप्रवेश...कमरे की कुंडी खोल अंदर आया तब लगा जान मे जान आई...सुराही का ठंडा पानी तो मानो स्वर्ग का एहसास करा रहा हो...नींद भी आ रही है भूख भी लगी है चलिये आज स्वर्ग का एहसास ही पी कर सोते है...

दिवाकर.... अरे ओ दिवाकर...हे भगवान इतनी तेज आवाज मे मां किसको बुला रही अपने बेटे दिवाकर को जो मुर्झाया सा चादर मे लिपटा है या उस दिवाकर को जो घड़ी मे 9 बजे के आसापास की स्थितिनुसार आसमान के अपने स्थान पर तैनात है...अरे उठता क्यूं नही नालायक सोता ही रहेगा क्या? ओह तो ये मां मुझे ही बुला रही है.. उठ गया हूं मां आ रहा हूं...शायद मां चाय पीने को आवज लगा रही है। आधी बाजू वाली सैण्डो बनियान और पैजामे से खुद को सजाये जैसे ही जीने पर पहुचां तो एक रिक्शा जो की खाली हो चुका था फिर दूसरे रिक्शे पर कुछ और लोगों को आता देखा,, मोहल्ले मे शायद नए है क्योंकि कभी मुहल्ले मे न तो देखा है न ही किसी के रिस्तेदार लगते है,प्यारेलाल भी नही पहचान रहा तब तो यकीनन नए ही है...नीचे मां गेट पर खड़ी कुछ समझ रही है यदि मै गलत नही तो बहुत कुछ समझ भी चुकी है। मेरा मतलब की वो लोग कौन है और कहां से आये है....

मां, कौन है ये लोग? क्यूं आवाज लगा रही थी मुझे? दोनो ही सवाल सुन मां ये न समझ पायी कि किसका जवाब पहले दे...ये हमारे नए पड़ोसी है चक्रवर्ती बाबू...बगल वाले घर मे रहेंगे, ओह.. अच्छा...मेरा रूझान भी कुछ खास न रहा उन चक्रवर्ती बाबू के आने मे जब तक कि.....ये क्या..............अरे... कोई तो रोक लो इस सादगी को, इस सुंदरता को, इतना मोहक रूप, यौवन की दहलीज पर उतरी चांदनी की छ्टा ओढ़े...हाय...अचानक मां की मोहक-कर्कस आवाज ने सारे श्रृंगार रस की ऐसी-तैसी कर दी,” पिता जी बुला रहे है बैठक मे, जा.. जा कर मिल आ और हां रसोईघर मे चाय गरम कर रखी है पी लेना...समझना मुश्किल हो रहा था कि पिता जी की डांट पहले खाई जाए या मां के हांथों की चाय पहले पी जाए....निश्चय हुआ कि पिता जी से ही पहले निपटा जाये...


इत्तेफाकन आज पिता जी की छुट्टी भी है...बैठक मे आराम कुर्सी पर बैठे पेपर मे आंखे गड़ाये जाने कौन सी खबर ढ़ूड़ रहे है। खैर जाने दीजिये...मैंने सहज-भाव से पूछा पिता जी, आपने बुलाया क्या?

हां...भारी आवाज के साथ गम्भीर मुद्रा मे मेरी ओर देखते हुए...कल कितनी रात गये घर वापस आना हुआ? प्रश्न तो एक ही पूछा मगर उसके पीछे छुपे तमाम प्रश्नों को केवल मै ही समझ सकता था जैसे कि; कहां थे? किसके साथ थे? इतनी देरी का कारण? कब तक ऐसा चलेगा? इत्यादी...मगर इस वक्त मुझे कुछ समझ नही आ रहा.... सिवाए उसके जिसके कारण मेरे दिमाग ने मेरे दिल की अधीनता स्वीकार कर रखी है। पिता जी का सवाल अब भी वही है । मगर ये क्या मेरे कानों ने तो जैसे उसे स्वीकार न करने की ठान ही ली है या यूं कहूं तो मै पिता जी से बस इतना कहना चाहता हूं की मुझे यहां से जाने दें बस... किसी तरह निकल ही आया। शुक्र हो... “भगवान का”.. जिन्होने पिता जी का ध्यान किसी और ही चीज मे लगा रखा है..अंतिम चेतावनी स्वरूप कुछ बुद्बुदा कर बोले तो, मगर क्या? मुझे नही पता, अभी तो बस यहां से निकलना था । कमरे से निकलते ही वायु गति से ऊपर अपने कमरे की ओर दौड़ा,, न जाने क्या हुआ था आज मुझे? या यूं समझ लीजिये की एक अलग ही उमंग थी आज मुझ मे... बस किसी भी तरह उसे देखना चाहता हूं... काश...काश की वो एक बार और दिख जाती। बेचैन,,,,गर्मी की धूप मे छ्त पर इस तरह घूमते हुए...यदि इस वक्त मां ने या किसी और ने मुझे देख लिया होता न,, तो कसम से उसे समझने मे तनिक भी समय न लगता की मै क्या करना चाह रहा हूं, पर गनीमत है कि गर्मी बहुत होने के कारण कोई भी बाहर नही निकलना चाह रहा (बारिश के बाद की धूप तो होती भी है बेहद तकलीफ-देय)।

आप लोगों से एक बात कहना चाहता हूं, पता है कई बार मुझे, सपने मे एक ही लड़की बार-बार दिखा करती है...शक्ल तो ठीक से याद नही... पर इतना जरूर है कि जब भी उसे सपने मे देखता हूं तो एक अजीब सी खुशी का एहसास हुआ करता है...ठीक वैसा ही एहसास आज मै महसूस कर रहा हूं क्यूकि ये एक ऐसी अनुभूति है जो केवल वही महसूस कर सकता है जिसने उसे जीया हो जैसे कहते है न जल का मूल्य केवल प्यासा ही जान सकता है। खैर,, दिन चढ़ चुका है तमाम कोशिशों के बावजूद अभी तक निराशा ही हांथ आयी है। दोपहर का खाना मां ने लगा दिया और पिता जी भी खाने के लिये आ चुके है। हम सब अक्सर एक साथ ही खाया करते है (यदि पिता जी घर पर हो तो)। खाने के दौरान मां ने हमारे नए पड़ोसी के बारे मे पिता जी को बताया पर पिता जी का ज्यादा उत्साह न देख मां ने बात वही खत्म कर दी। मगर मेरी तो जिज्ञासा अभी भी बहाल थी...खैर मेरे चाहने से क्या होता है... पर मैंने भी बात को जिंदा रखने खातिर धीरे से बोल ही दिया , “मां लगता है कि वे लोग बंगाली है“। हां पता है मुझे, ’’ मां ने जवाब दिया “.... वैसे पता तो मुझे भी था,,, “मां ने ही बताया था”। पर अच्छा है की मां का ध्यान मेरी कही बातों पर नही रहा...अब बस दिल मे यही दरकार हर पल होती रही की कोई तो बात करे उस घर की, पर ये बेचैनी सिर्फ मेरी थी औरों का इससे कोई सरोकार न था। शाम हो चली है जैसे तैसे दिन कट ही गया । कभी जीने पर टहल कर तो कभी कमरे की खिड़की से झांक कर (जो चक्रवर्ती दादा के घर की ओर ही खुलती है...)।

शाम को अक्सर सभी लोग अपने घरों के बाहर पानी डाला करते है। मुझे लगा वो भी निकलेगी..इसी लालच मे मैं आज मां से बोल उठा लाओ मां मैं पानी डाले देता हूं...इस वक्त मेरी इन बातों से मां का स्तबध होना स्वभाविक था । क्योंकि आज तक ऐसा कभी नही हुआ था। अचानक उनके गेट की आवाज सुनाई पड़ी । उसी वक्त मन मे मानों हाजारों सावन खिल उठे हो। मैंने भी अंजान बनते हुए गेट से झांका,, मगर ये क्या? कोई मध्यम आयु की औरत दिख रही है, शायद चक्रवर्ती दादा की पत्नी होंगी... धरा...ओ धारा “एशो दोरजा बोंदो कोरे नाव”...बस इतने शब्दों के बाद तो कुछ भी न सुनाई दिया मुझे..। उसका नाम धरा था शायद,,,,”धरा चक्रवर्ती”...उस नाम को सुनते ही ऐसा लगा जैसे किसी ने हजारों मन मिश्री मेरे कानों मे घोल दी हो...उत्सुक्ता वश मैं गेट पर खड़ा उसके आने की प्रतिक्षा करने लगा मगर इंतजार अभी और बाकी था शायद....


माफ कीजियेगा, मैंने अपना परिचय तो कराया ही नही, मेरा नाम “दिवाकर मिश्रा” है। मैंने इसी साल बी.कॉम फाइनल की परिक्षा दी है। उम्मीद है की रिजल्ट भी दो-एक दिन मे या हफ्ते मे आ ही जायेगा...देखने मे भी ठीक-ठाक हूं। आप लोग मुझे थोड़ा आवारा भी समझ सकते है मगर सिर्फ “थोड़ा सा” । पिता जी आई.टी.आई मे अधिकारी है... “मां” एक शुशील गृहणी है... जो घर का पूरा ख्याल रखती है। मुझसे थोड़ा सख्त रहती है मगर प्यार भी बहुत करती है...

आज सुबह-सुबह प्यारे लाल को क्या हो गया ? अचानक उसके भौंकने से मेरी आंखें खुल गयी,, अभी भी भौके जा रहा है...ये एक इशारा मेरे गेट पर किसी के होने का भी है....मैं देखने के लिये उठा,,,,अर्ररे ये क्या ? ये तो वो ही है। आज भी मैं अपने बादशाही लिबास मे ही था .... हे भगवान वो घर भी आयी तो इस वक्त जब मै इस लिबास मे हूं,,, गेट पर जाऊं तो कैसे जाऊं?...अरररे ये तो ऊपर देखने लगी....मैंने तपाक से खुद को बाउंडरी के बगल मे छुपा लिया...। सांसे तेज होने लगी,,, उसे देखने की ख्वाहिश भी होती रही,,और बाते करने की इच्छा भी...पर अभी ऐसा कुछ कर पाना संभव न हो सका ...। मां से कुछ बाते कर वो गेट से ही अपने घर लौट गयी, मुझे ये बात तब पता चली जब मां ने मुझे आवाज लगा कर नीचे आने को बोला...

क्या हुआ मां? कौन आया था? “अंजान बनते हुए..

अरे कुछ नही, ’ वो हमारे नए पड़ोसी आए है न, वो क्या नाम है हां चक्रवर्ती जी..। उन्ही की बेटी आयी थी, आज का अखबार पूछने…

आज मां के मुंह से अपने पड़ोसी के लिये “हमारे” शब्द का प्रयोग सच मे दिल को भा गया, जैसे मैं खुद भी यही सुनना चाहता था...

दो दिन ऐसे ही गुजरने पर...

आज, दिन मे कुछ दोस्तों के साथ पिक्चर देखने का प्लान हुआ, 12 से 3 का शो, “गौतम सिनेमा हॉल मे” । मै तैयार हो कर बस निकल ही रहा,,कि....

अ..अ..आप..

‘जी’....उसने धीमे से जवाब दिया और बोला... वो आंटीजी को मां ने बुलाया है...कुछ काम है...।

मगर मै तो बुत बना उसे एक टक दिवानों सा देखता रहा.... हाय...वो आंखो मे चंचलता,, अनगिनत कलीयों की कोमलता ओढ़े होंठो पर नट्खट मुस्कान, रूख्सार से पिघलति शाम की ललिमा....उफ्फ...

आंटीजी घर पर नही है क्या? उसने चुटकी लेते हुए तपाक से पूछा.. नही..अ..अ… मेरा मतलब.. ह....हां अंदर है ।

वो...मेरी बेचैनी को भांपते हुए नटखट मुस्कान के साथ अंदर चली गयी... मगर अब ये समझ नही आ रहा,, की मै अंदर जाऊं, यहीं रहूं या फिर सिनेमा जाऊं जहां मेरे दोस्त मेरा इंतजार कर रहे है...

इधर मेरी मन:स्थिति या यू कहूं कि मेरे उतावलेपन को शायद धरा ने कुछ-कुछ भांप लिया था...

शाम को घर आते-आते 5 बज चुके है...चक्रवर्ती बाबू के यहां गेट खुला है। पानी भी डल चुका है.....खैर मैंने जैसे ही अपने घर का गेट खोला.. अचानक पीछे से आवाज आयी,”सुनिए”...

मैं भी अन्जान बना पीछे मुड़ा...” कौन मै” सहसा ही पूछ पड़ा..

हां “आप” आपसे एक काम है क्या आप मेरी मदद करेंगे?

जी, हां बोलिए...

“यहां का कौन सा सिनेमा घर अच्छा है”...ये सिर्फ बात करने का बहाना है या कोई व्यंग मै ये न समझ सका और बिना जवाब दिये ही अंदर जाने लगा...

अररे..सुनो तो, “बताओ न” कौन सा सिनेमा अच्छा है..उसने थोड़ा उखड़े शब्दो मे पूछा, शायद मेरा उसे यूं जवाब दिये बगैर जाना खल गया..

हम्म.., ”गौतम अच्छा है”।

आप ले चलोगे मुझे, “बेहद प्यार से पूछा..

नही म..मै..,कैसे? थोड़ा हिचकते हुए।

क्यों नही चल सकते क्या मेरे साथ, “ दोहराते हुए मासूमियत से पूछा..

” अब कैसे कहूं ये उससे,” की चलना तो बहुत दूर तक चाहता हूं तुम्हारे साथ, आज क्या अजीवन “सिर्फ तुम्हारे साथ”...मगर इतना बोलने का साहस न कर पाया..

अच्छा ये बताओ, तुम मुझे संगम तो ले चल सकते हो न?

सवाल का प्रारूप बदला मगर जवाब अभी भी वही है। मै कहता भी तो क्या कहता मेरे हद की सीमा ने मुझे कोई भी वादा करने से रोके जो रखा है... हम्म्म.. बताता हूं, कह कर अंदर चला आया...मगर ये क्या? दिल तो वही ठहरा रहा.. मै अब खुद को रोक न पाया और वापस गेट को दौड़ा जहां,….वो अब भी खड़ी थी..मैने बोला ठीक है कल 3 बजे..

पिता जी रोजाना की तरह 8.30 पर इण्डियन गर्ल्स के पास अपने ऑफिस की बस पकड़ने निकल चुके है...

मां...ओ मां,, कहां हो? मैंने रसोई घर के पास जा कर आवाज लगाई।

हां, बोलो क्या हुआ? आंगन से आवाज आई...

मां, कुछ पैसे दे दो न, घुमने जाना है...

मां ने कल का हवाला देते हुए बोला, “कल ही तो लिये थे न पैसे, खर्च हो गये?

हां, मां दे दो न...फिर न देना । मैंने जिद्द करते हुए कहा...

अच्छा देती हूं, पर जाना कहां है? मां ने पूछा..

बता दूंगा लौटने के बाद और चल पड़ा अपने आशियाने मे,,अब भी 6 घंटे से ज्यादा समय बचा है, कैसे काटूं ये समझना मुश्किल है... जैसे तैसे 3 बज गये मैं गेट से निकला और कुछ दूर जा कर मोड़ से उसकी राह देखने लगा,,, आज मौसम भी बदरी सा हुआ है...हल्के हरे रंग का सूट पहने उसे आते देखा...दिल की रफ्तार अचानक से बढ़ने लगी...उसके मोड़ तक पहुंचते ही उसने मुझे भी देख लिया... हम साथ निकले और कुछ दूर जा कर इंडियन गर्ल्स के पास से रिक्शा किया और चल दिये...

धरा का यूं पहली बार मेरे साथ और इतना करीब होना मेरे लिये कतिपय ही सपने से अलग न था...कुछ सवाल अनायास ही मेरे मन मे आने लगे जैसे की; वो मेरे साथ क्यों जा रही? क्या वो भी मेरे प्रति आकर्षित है? क्या वो भी उतनी ही उतावली है जितना की मै उसके प्रति ? ऐसे ही कई और सवाल है,,,फिर लगा शायद मै उसका हमउम्र हूं, उसके घर के पास रहता हूं...वो इस शहर मे नई है इसलिए भी...

अचानक उसकी आवाज ने मेरे सवालों के चक्रों को भेद कर मेरा ध्यान अपनी ओर खीचा... कितनी दूर है संगम यहां से ?,,ये महज बात शुरू करने वाली बात हुई... बातों का सिलसिला चल निकला और हम रामबाग होते हुए संगम पहुंच गये।

यहां मौसम भी कुछ बदल रहा है,, जी हां यदि आप मेरे और धरा के बारे मे सोच रहे तो बेशक मै उसी की बात कर रहा हूं...

हम दोनो घाट के किनारे जा कर बैठ गये, ठंडी-ठंडी हवा चल रही है और गंगा मे मचलती जल तरंगे इस प्रकार क्रिड़ा कर रही जैसे इस मौके पर उत्सव सक्ष्य प्रस्तुत कर रही हों...

तुम यहां ही क्यों आना चाहती थी? मैंने जिज्ञासावश पूछा...

यूं, ही मुझे नदी के किनारे अच्छा लगता है...”रेत पर कुछ लिखते-मिटाते हुए उसने वो अधूरी बात कही जिसका मुझे बहुत बाद मे पता चला कि वो यही क्यों आना चाहती थी..

मैने थोड़ी हिम्मत जुटाई और पूछा, ‘ क्या तुम मेरे साथ यहां रोज आओगी?

‘ रोज कैसे, ‘ उसने अपनी असमर्थता दर्शाते हुए धीमे से कहा..

मुझे तुम्हारे साथ अच्छा लगता है..मैने उसकी ओर देखते हुए कहा..

नजरे झुकी थी उसकी, शायद वो भी यही सुनना चाहती थी या इससे भी ज्यादा कुछ...

मैंने आग्रहवस पूछा क्या मैं तुमसे मिल सकता हूं ?...”तुम्हारी छत पर”..(जो कि मेरे छत से लगी हुई थी...)

“हां“ मे जवाब धीरे से सिर को हिला कर दिया... उस पल मे लगने लगा की मै पूरा गया .... मारे खुशी के क्या कर डालू, क्या कुछ लुटा दू अपनी धरा के खातिर...समझ नही आ रहा ,,, जी करने लगा की चिल्ला चिल्ला कर धरा के प्रति अपने प्यार अपने स्नेह को सारे जहां से कह दूं,,,


कुछ देर ठहर कर सहसा ही मेरे मुंह से निकल गया की “मै हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा...


धरा कुछ न कह सकी बस रेत पर उसके लिखने की रफ्तार और बढ़ गयी...अचानक उसकी आंखो से आंसू छलक कर रेत पर गिरता हुआ मुझे महसूस हुआ....ये देख मै कुछ समझ न सका...


फिर धरा ने अपने हांथो को रेत पर स्थिर कर....मेरी ओर देखते हुए कहा....क्या ये सब तुम्हारे लिये सहज हो सकेगा? भीगी आंखो मे लाखो सवाल लिये धीमे से कहते हुए वो उठ खड़ी हुई..


हल्की फुल्की बूंदे पड़ने लगी है...बारिश होने की सम्भावना भी पूर्ण है..बिना भीगे समय से घर पहुंचने के लिये हम दोनो को वहां से चल देना ही उचित लगा...


रिक्से पर अब हमारे बीच कम बाते हुई...एक अजीब सा सन्नाटा घिर गया हमारे बीच... मेरी कही बातों के लिये धरा के मन मे दुविधा का होना जायज है या नाजायज ? यह समझ नही आया...कैसे समझाऊं? उसे कैसे विश्वास दिलाऊं की मैं उसे कितना प्रेम करता हूं... इसी उहा-पोह मे कब इंडियन गर्ल्स आ गया पता ही न चला। वहां पहुंचते ही हम दोनो ने रिक्सा छोड़ दिया और पैदल ही घर की ओर चल दिये...


कुछ देर घर मे इधर उधर समय काटने का प्रयत्न किया मगर मन अब भी धरा के ही इर्द-गिर्द ही है...मैंने आज प्यारेलाल को भी बहुत दुलारा..मगर मेरा ऐसा करना प्यारेलाल के मन मे सिर्फ और सिर्फमोड़ पर पहुंचते ही हम अलग हो गये...


कुछ देर घर मे इधर उधर समय काटने का प्रयत्न किया मगर मन अब भी धरा के ही इर्द-गिर्द ही है...मैंने आज प्यारेलाल को भी बहुत दुलारा..मगर मेरा ऐसा करना प्यारेलाल के मन मे सिर्फ और सिर्फ ग्लूकोज बिस्कुट मिलने की उम्मीद के सिवा कुछ न था... अब अंधेरा हो चला है...करीब शाम के 7 बज चुके है...मै भागता हुआ छत पर पहुंचा...मुझे लगा धरा से मुलाकात हो सकेगी...यकीनन वो भी आज मेरे साथ वक्त बिता कर इतना ही उत्साहित होगी...और कहेनुसार मुझसे मिलने छत पर आयी होगी...पर ऐसा सोचना मेरे लिए स्वभाविक तो था मगर इस वक्त पूर्णत: अप्रत्याशित है...क्यूंकि अभी घर पहुंचे कुछ ही देर हुए है और मै उसके छत पर आने की प्रतिक्षा करने लगा हूं...ये भूल गया की वो एक लड़की है जिसके लिये परिवार (समाज) ने कई दायरे बना रखे है...जिसे लांघना उसके लिये इतना आसान नही... मै काफी देर उसकी राह जोहता रहा..मगर वो न आयी...मै मन ही मन मुरझा गया ठीक वैसे ही जैसे कमरे के पास गमले मे लगी रात-रानी..(आज उसमे एक भी फूल नहीं लगे है)। सुबह नींद जल्दी खुल गयी..रात मे भी काफी देर तक न सो सका.... और नींद कब लगी याद भी नही है...मैने कहा था न कि मौसम अब कुछ बदल ने लगा है..ये बदले मौसम का ही नतीजा है...जिसकी वजह भी एकदम साफ है... कुछ देर बिस्तर पर पड़े कल की मुलाकात को सोचता रहा..और फिर बाहर निकल कर जीने पर टहलने लगा...प्यारेलाल भी जगा हुआ झाड़ी मे कुछ ढ़ूढ़ने का जुगाड़ कर रहा है..उसको देख कर मैंने एक सीटी मारी...जानी आवाज सुनकर प्यारेलाल ने मुझे ऐसे आंखे तरेर कर देखा जैसे की मैं उसके कार्य मे विध्न डालने का प्रयत्न कर रहा हूं... मां, उठ चुकी थी,, पिता जी भी टहलने निकल चुके थे...क्या करूं ? क्या करूं ? कुछ समझ ही नही आ रहा...क्योंकि दिल एक ही बात दोहराये जा रहा...वो है ”धरा”..धरा का नाम, उससे कब मिल सकूंगा? क्या वो आज मुझसे मिलने आयेगी? ...क्या वो भी इतनी बेचैन होगी जितना की मै? ऐसे ही तमाम प्रश्न आते रहे.. पिता जी आ चुके है, आज मुझे जल्दी उठा देख उनका आश्चर्यचकित होना भी स्वभाविक था..इससे पहले की ये सब देखकर वो कुछ कहते, मैंने मोर्चा छोड़ देने मे ही अपना भला समझा और पहुंच गया गेट पर...कोई भी नहीं दिख रहा सब सो रहे होंगे शायद... ऊपर कमरे मे पहुँच कर कुछ देर लेटा रहा फिर अचानक महसूस हुआ की बगल की छत पर कोई है...मै तुरंत मौका-मुआयना करने पहुंच गया...ये तो धरा है...उसे देख मारे खुशी के मै गद्गद हो गया...जी चाहा की उसकी छ्त पर जा कर उसे बांहों मे भर लू और कभी न जाने दूं अपने से दूर... मैंने धीरे से आवाज लगाई...धरा..धरा....उसने मुड़ कर देखा और दूर से ही प्यारी सी मुस्कान दी..मगर मेरे पास न आ सकी शायद दूसरी तरफ कोई था..और फिर तुरंत ही चली भी गयी... उसका इस तरह का थोड़ी देर के लिये दिखना मेरे लिये उस दवा समान था जो मेरे प्रेम-रोग का उपचार कम दर्द ज्यादा बढ़ा गया... शाम होने लगी लगभग 7.15 पर वो छत पर आयी...मैने उसे देखते ही इशारों मे आने का प्रश्न किया, उत्तर हां मे मिलने पर मै धीरे से छलांग लगा कर उसकी छत पर चला गया...और छत पर बनी टंकी की आड़ मे हम बैठ गये...कुछ देर शान्त रहने पर उसने ही पूछा, कैसे हो? “बहुत अच्छा” , मैंने जवाब दिया। तुम कैसी हो? आज सुबह-सुबह तुम छत पर कैसे आ गयी? मै तो हमेशा ही आती हूं। तुम्हारा ही आना आज नया थ। अच्छा बोलो तो, जब मै छत पर आया तो तुम मेरे पास क्यों नही आयी और तुरंत चली भी गयी। मेरा आना तुम्हे अच्छा नही लगा था क्या? नही..नही ऐसी बात नही है। उसने मेरी मन:स्थिति को समझते हुए बोला... मां थी, वही सीढ़ी के पास इसलिये नही आ सकी... ओ..अच्छा..। जानती हो मैं कब से शाम डूबने का इंतजार कर रहा था ताकि तुमसे मिल सकूं... अच्छा..झूठ..एकदम झूठ बोल रहे हो...तुम । अच्छा तुम्हे लगता है की मै झूठा हूं...। नाराजगी के साथ मैंने उसकी ओर देखते हुए पूछा.. वह झट से बोली नही बाबा...मै तो तुम्हे छेड़ने के लिये ऐसा बोल रही.. . तुम्हे एक बात बोलूं,,,,मैंने धरा की ओर देखते हुए बोला.. हां..बोलो न... वो देख रही हो मेरे कमरे के बगल मे जो रात-रानी का पौधा है... हां...” उसने जवाब दिया। पता है तुम भी वैसी ही हो, पूरा दिन नही दिखती और जब रात होती है तब आती हो...इसके महक की तरह ही मुझे पूरा दिन तुम्हारा इंतजार करना पड़ता है... तो नही कर सकते क्या? इठलाते हुए कहा.. हम्म...कर सकता हूं,,हमेशा करूंगा। दृढ़ दावे के साथ उसकी आंखो मे आंखे डाल कर बोला.. कुछ देर और हमने बाते की... अच्छा मै जा रही हूं...बहुत देर हो गयी है...कल मिलती हूं,,। और वो जाने लगी.. सुनों, “कल संगम चलोगी शाम को” मैंने आग्रहपूर्ण ढंग से पूछा.. हां, मे जवाब देकर वो चली गयी... हम अगले दिन संगम गये उसी किनारे बैठे जो कि धरा की पसंदीदा जगह थी...काफी कुछ बाते हुयी...और हम ऐसे ही अक्सर मिलने लगे...हमारे बीच हंसी-मजाक, छेड़-छाड़ शुरू हो चुका था। हम दोनो को एक दूसरे का साथ बहुत पसंद था,,, मेरे साथ होने पर धरा के अंदर मै एक अलग ही उमंग महसूस करता था। उसकी चंचलता,उसका बचपना उसका यूं नाक चढ़ा कर मुझे चिढ़ाना और जाने क्या क्या मुझे सब बहुत प्यारे लगते थे.... कुछ दिनो बाद, “ आज शाम को मैं हमेशा की तरह धरा का इंतजार करते हुए छत पर घूम रहा...मेरे कमरे के पास की रात-रानी आज बहुत ज्यादा खिली हुयी है... धरा आज बहुत देर करके आयी। “इशारों मे कान पकड़ कर माफी मांगते हुए उसने तपाक से मुझे खुश करने को बोला.. देखो तो, " आज रात-रानी कितनी खिली है न"... मै, एक-टक उसे देखता रहा, और बोला हां सच मे आज मेरी रात-रानी बहुत खिली है...। मेरे ऐसे देखने से वो कुछ शर्मा गयी और बात बदलते हुए कहा आओ यहां बैठो पहले... हम अपने निर्धारित जगह पर जा बैठे...” और मै सोचने लगा की आज वक्त आ गया है। अब मुझे धरा का हांथ पकड़ कर उसे यह विश्वास दिला देना चाहिये की मैं आजीवन उसके साथ रहूंगा... मैंने कुछ सकुचाते हुए उसके हांथ पर अपना हांथ रख दिया,” वो थोड़ा सा चौंकी मगर अपना हांथ मेरे हांथ से अलग न कर सकी...जैसे उसे भी उस पल का कब से इंतजार हो...औपचारिक तौर पर ना सही मगर हम दोनो ने एक दूसरे को अपने प्यार का एहसास तो करा ही दिया है...क्योंकि धरा के लिए मेरी कही हर एक बात महत्व रखती है...और वो भी शायद इसलिये की वो मुझसे अटूट प्रेम करती है... जानते हो? कल मेरे बचपन का दोस्त जो मेरे दूर का रिस्तेदार भी है वो कलकत्ता से आ रहे है। चन्द्रकांत नाम है उनका... मैंने इस बारे मे कोई रूचि न दिखाते हुए इस बात को अनदेखा कर दिया... अब भी उसका हांथ मेरे हांथ मे ही है...”अब जाने दो” कल मिलते है कहकर उसने विदा लिया,,, मै भी अपनी छत पर आ गया.. “आज सच मे रात-रानी बहुत प्रसन्न और खिली हुई लगी... अगली सुबह सुबह एक रिक्सा आ कर हमारे गेट के सामने रूका, प्यारेलाल ने पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ जोरदार भौंक लगायी जिससे मै क्या लगभग आधा मोहल्ला जाग गया... ये कौन है इतनी सुबह सुबह मां बोलते हुए गेट की ओर चल पड़ी,” रिक्से मे कोई लड़का बैठा है..मगर कौन हो सकता है,,, मुझे बिल्कुल भी याद न रहा की हो ना हो ये चन्द्रकान्त ही है| जिसका जिक्र धरा ने कल रात मे किया था... धरा की मां भी गेट पर आ चुकी है... चंद्रकांत रिक्से से नीचे उतरा, मैंने भी देखा उसे, “ठीक-ठाक लम्बी कद-काठी का गोरा बंगाली लड़का...मगर उम्र मे धरा और मुझसे काफी बड़ा है शायद... प्यारेलाल ने मेहमान को उनका रास्ता दिखा कर पुन: गेट पर अपना मोर्चा कायम कर लिया... आज धरा से मिलने का तय हुआ था मगर वो न आ सकी... शायद चन्द्रकांत आया है इसलिये हो सकता है घर मे काम हो...मैंने भी उसे अन्यथा न लिया..। शाम को तो जरूर आयेगी ये यकीन है मुझे... दिन कब गुजरा पता न चला,,,बी.कॉम. पास करने के बाद एम.कॉम मे दाखिले के लिये पिता जी ने सख्त निर्देश दे रखा था सो आज का पूरा दिन उसी मे लग गया मेरा... एम.कॉम मे दाखिला तो मिल गया मगर,,आज शाम मे जब धरा छत पर भी ना आयी तो लगा जैसे धरा के दिल से मुझे बेदखल किया जा रहा है... मैं बहुत परेशान हो कर रात के 11 बजे तक उसकी राह देखता रहा मगर वो ना आयी... अगले दिन भी सुबह उसे छत पर देखने के लिये जल्दी उठा मगर ये क्या उसके सीढ़ी का दरवाजा तक नही खुला है । काफी देर तक इंतजार करता रहा,,धूप भी तेज लगने लगी...मै निराश होकर नीचे आ गया... कही मन नही लग रहा है मेरा बहुत बेचैनी हो रही है मुझे, क्या करू? कुछ समझ नही आ रहा...मन मे कई तरह के सवाल निरंतर आते रहे...कही उसकी तबियत तो खराब नही हो गयी है? कहीं उसके घर वालों को हमारे रिश्ते के बारे मे पता तो नही चल गया? ऐसे ही कई.... मां ने खाने के लिये पूछा, मगर भूख कहां गयी पता ही न चला...बस एक ही चीज याद है और वो है ‘धरा’ सिर्फ मेरी ‘धरा’। आज शाम को मैं काफी देर तक सोता रह गया...जाने कब आंख लग गयी थी...उठ चुका हूं। मगर कहीं जाने का मन नही कर रहा...एकाएक कुछ हंसने की आवाज आयी..शायद “धरा” है...मै जिज्ञासावश बाहर निकल कर छत पर आया... हां सच मे धरा ही है..और चन्द्राकांत भी... धरा ने मुझे देखकर भी अंदेखा कर दिया...इस वक्त चंद्रकांत के साथ वो बहुत खुश लग रही है...मुझे सच बताऊं तो ये दृश्य शूल सा चुभाने लगा... मैं थोड़ी देर रूका और वापस नीचे आ गया... तरह तरह के प्रश्न पुन: धरा को लेकर मन मे उठने लगे...क्या धरा और चंद्रकांत सिर्फ दोस्त है? या उससे भी ज्यादा कुछ? क्या धरा सच मे मुझसे प्यार करती है या मेरा दिल रखने के लिये ऐसा दिखावा करती है? और जाने क्या क्या…इसी खीज मे मैं आज कुछ न खाया और निकल गया घर से की शायद कही मन लग जाये और मैं कुछ देर मन मे उठ रहे सवालों से बच सकूं। मगर मेरा दिल धरा के प्यार मे इस कदर गिरफ्त हो चुका था की कही भी दिल लगाना मेरे बस के बाहर रहा... सिविल लाइंस मे दोस्तों के पास पहुंचा मगर वहां भी मन ना लग पाया और फिर मैं इधर से उधर भटक कर घर वापिस आ गया.... रात किसी तरह कट गयी अगले दिन शाम को धरा छत पर आयी...वो आज कुछ बदली-बदली सी लग रही है... मै कुछ न बोलाते हुए शान्त खड़ा रहा... धरा ने झट से पूछा, कैसे हो? मै,,,जवाब देता उससे पहले ही धरा ने मेरे उत्तर को काटते हुए,,,अपनी बात रख दी... ये देखो मेरे हांथ मे क्या है? सोने का कड़ा दिखाते हुए बोला उसने.. किसने दिया? सपाट सा प्रश्न जो की मेरे गुस्से के रूप मे दबा हुआ निकला... चन्द्रकांत ने दिया है मुझे... उसके बाद चंद्रकांत की ही बाते की उसने और यह भी भूल गयी , कि उसकी एक-एक बाते मेरा दिल को कितना चुभ रही होगी...(इतने दिनों बाद मिलने पर भी किसी और की बातें,,,) । वो इतनी खुश है की उसे मेरे अंदर का गुस्सा, मेरी तड़प, मेरी आंखो की विरह-वेदना कुछ भी नही दिख रही...उसके पास आज इतना कुछ कहने को है की मेरा कुछ सुनना ही नही चाहती.... फिर कुछ देर बाद वो चली गयी और मैं बुत बना उसी की छत पर कुछ देर तक वैसे ही बैठा रहा...कुछ समझ नही आ रहा की ये सब क्या हो रहा है...आज धरा ने इतनी बाते की जितनी की आज तक मुझसे कभी न की थी ।मगर वो बाते थी सिर्फ चन्द्रकांत के बारे मे... ...( शायद चंद्रकांत धरा के लिए ही यहां आया है और धरा भी यही चाहती हो मैंने मन ही मन सोचा)। रात जैसे तैसे कटती रही...हर पल यही याद आता रहा कि आज कुछ भी न कह पाया मै, धरा का ऐसा बर्ताव मुझे बिल्कुल भी अपेक्षित नही था..दिल मे बहुत भारी पन सा लगने लगा है जैसे कोई बोझ पड़ा हो...शायद मेरे प्यार का ही हो...दिल को बहुत बहलाना-भटकाना चाहा ताकि धरा के बारे मे ना सोचे, मगर दिल का बोझ इतना बढ़ गया की सारी पीड़ा आंखो से आंसू बन कर बहने लगी...और मेरे प्यार भरे सारे सपने मेरे आंसूओ के साथ सारी रात धुलते रहे... दिन गुजरने लगा...दो फिर तीन, चार और ऐसे ही कई...कभी वो दिखती भी तो कुछ कहती न...और कभी मै खुद ही हट जाता...ताकि वो ना दिखे क्योंकि न देखने से ज्यादा भारी वो पीड़ा है जो मैं उसको चंद्रकांत के साथ देख कर महसूस करता हूं... आज चंद्रकांत की स्थिति हमारे बीच ठीक उसी प्रकार हो गयी है जैसा की ग्रहण के वक्त पृथ्वी एवं सूर्य के बीच चंद्रमा की होती है...धरा और दिवाकर के बीच आज चंद्रकांत के आ जाने से हमारे प्यार को ग्रहण लग गया.... मेरी दशा, वेश-भूषा, बर्ताव सबमे कुछ बदलाव सा लग रहा है...मेरी मां बेशक मेरी स्थिति को समझ गयी होगी...क्योंकि मेरे बर्ताव मे बदलाव होने के बावजूद भी मां का व्यवहार मेरे से नही बदला... दिन बदल गया... आज सुबह से मैंने कई सवाल खुद से कर डाले और जवाब भी खुद ही दे डाला,,निष्कर्स निकला की धरा से मुझे बात करनी चाहिये तकि उसे पता तो चले की मै उससे कितनी नफरत करने लगा हूं...इंतजार करने का भी वक्त न रहा... मैने उसके घर जाने का फैसला किया ...गेट खोलते ही किसी के ना आने पर मैं हिम्मत कर आगे बढ़ते हुए घर मे प्रवेश कर गया...बैठक से आगे चल कर दांया कमरा धरा का है (ऐसा धरा ने बातों बातों मे कभी बताया था) मै चलता गया... आज घर मे कोई नही है शायद सिवाय धरा और चंद्रकांत के ...कुछ पल बैठक मे खड़ा रहा फिर हिम्मत कर आगे धरा के कमरे की ओर बढ़ा...कमरे मे देखा तो , ‘चंद्रकांत धरा के बिस्तर पर अनपेक्षित रूप से सोया हुआ है...’ चादर फैली हुयी है, कमरे का ये दृश्य,,,,मेरे सामने सारी पुरानी बाते दोहराने लगा ,,( धरा और चंद्रकांत की) जिसकी वजह से मेरी नफरत की चिंगारी अब आग मे बदलने लगी...चंद्रकांत को तो ये भी होश नही की मै कमरे के दरवाजे पर खड़ा हूं...अचानक मुझे घर मे देख धरा चौक गयी (अभी उसका बदन भीगा है संभवत: नहा कर आयी होगी) ...उसके चेहरे का रंग स्याह पड़ गया...वो इससे पहले कुछ कहती मैं अपनी नजरों जितनी नफरत उसे दिखा सकता था दिखा कर निकलने लगा.....धरा ने झट से मेरा हांथ पकड़ लिया और कुछ कहना चाहा...मैने बलपूर्वक उससे हांथ छुड़ाने का प्रयत्न किया और चाहा की कुछ बोले बिना ही यहां से निकल जाऊं,मगर पूरे दृश्य को देख कर मुझे जाने क्या हुआ की सहसा ही मेरे मुख से निकला “चरित्रहीन” कही की....और ये सुन धरा ने खुद ही मेरा हांथ छोड़ दिया...


मेरे कहे इस बात से, मानों धरा पूरी तरह टूट कर बिखर गयी हो...

और मै चाहता भी यही था कि उसे ज्यादा से ज्यादा तकलीफ हो... घर आकर मै सीधा अपने कमरे मे चला गया...बहुत रोया मगर सुकून न मिला...क्योंकि कहीं न कहीं धरा पर लगाये लांछन का मुझे भी पछतावा है...पर नफरत उससे भी कहीं ज्यादा...

शाम होने लगी मैं अब भी अपने कमरे मे ही हूं... मुझे अब हर उस चीज से नफरत होने लगी है जो धरा को पसंद थी...मुझे अब रात-रानी की खुशबू भी चुभने लगी है। जी मे आता है की उखाड़ कर फेक दूं...और ऐसा ही किया भी..छत पर जाना और उसके घर की तरफ देखना तक छोड़ दिया...धरा कहीं दिख न जाये इसलिये अब ज्यादा से ज्यादा समय घर से बाहर रहने लगा...

कुछ दिन यूं ही गुजरे... नफरत अब भी बरकरार है..या यूं कहूं की दिनो-दिन बढ़ती ही जा रही है...शायद इसलिये भी, कि धरा ने अब तक अपनी सफाई मे, कुछ भी कहने का प्रयास न किया था । इससे मुझे यकीन होने लगा कि मेरा उसके साथ होने या न होने से उसे कोई फर्क नही पड़ता...

पर आज अचानक मुझे किसी के ऊपर आने की आहट सुनाई दी...मैने बुझे मन से देखा...

तुम्हारी हिम्मत कैसे हुयी मेरे घर मे आने की ? नफरत भरी निगाहों से देखते हुए...

क्या हम कुछ देर बैठ कर बातें कर सकते है? धरा ने आग्रपूर्ण निवेदन करते हुए पूछा..

उसकी आंखों को देखकर लगा जैसे की कई रातों को उसने अपने आसूंओ से धो डाला हो...आंखे थकी-थकी सी है चेहरा मुरझा गया है..उसे देखते हुए अचानक मुझे रात-रानी के पौधे की याद आयी जिसे मैंने अपने ही हांथो नष्ट कर दिया था..वो भी ऐसे ही मुरझा गयी थी... निकल जाओ यहां से मुझे किसी से बात नही करनी है? मैंने तमतमाते हुए कहा... तुम्हारे जैसी धोखेबाज, स्वार्थी, फरेबी लड़की को मै देखना तक नही चाहता... वो सामने बैठी रही...और मै उसपर भद्दे भद्दे आरोप लगाता चला गया....और उत्तर मे मुझे उसकी आंखो से गिरते आंसू ही मिले...कुछ देर तक तो उसने हिम्मत दिखायी फिर टूट कर खुद ही चली गयी....

उसकी आंखों से गिरता हर आंसू उस वक्त मानो मेरे दिल को ठंडक पहुंचा रहा हो... इसके बाद भी धरा निरंतर यही प्रयास करती रही की एक बार तो मै उसकी बात सुन लूं...पर वो सफल न हो सकी और हर बार उसको मेरी नफरत ही हासिल हुई...

दिन गुजरने लगा..

धरा दिनो-दिन घुलने लगी..शायद चन्द्रकांत भी जा चुका था...क्योंकि बहुत दिनो से दिखा नही...और धरा भी अब छत पर अक्सर अकेली ही दिखती है मुझे...

एक रोज जब मै कॉलेज से घर लौटा, तो मुझे अपने कमरे मे रखी मेज पर एक लिफाफा मिला, यकीनन धरा ने रखा होगा... मैंने पहले सोचा की फाड़ कर फेंक दूं...पर जाने क्यों ऐसा न कर सका और निकाल कर पढ़ना चाहा..


मेरे प्रिय दिवाकर,

तुम्हारे लाख मना करने पर भी, मै तुम्हे अपना कहने का हक नहीं भूल पायी हूं...पर तुम ही बताओ इसमे मेरा क्या कसूर है ? तुम ने मुझे क्यों गलत समझा इसकी वजह तो मै नही जानती। मगर इतना तो हक था न मेरा, कि मै तुमसे एक बार माफी मांग सकती। मेरा प्रेम तुम्हारे प्रति कितना निष्छल और अटूट है यह मै तुम से कभी न कह सकी । किंतु आज भी अगर मेरी सांसो मे कोई महकता है तो वो सिर्फ तुम हो..मेरी हर धड़कन मे बस तुम्हारा ही नाम है । तुम अक्सर मुझसे पूछा करते थे न की मुझे संगम आना, क्यों पसंद है? और मै मुस्कुरा कर कहती थी, की मुझे नदी का किनारा बहुत अच्छा लगता है। किंतु मेरी कही बात तुम्हे कभी समझ न आयी...और तुम हमेशा नदी के इस किनारे को देखते रह गये। जबकि मैंने हमेशा नदी के उस किनारे की बात की थी जहां दिवाकर (सूर्य) और धरा (पृथ्वी) एक हो जाते थे, उनका मिलन हो जाता था...ऐसे ही, मै खुद को भी तुम मे मिला देना चाहती थी। मै कभी भी तुमसे खुल कर अपने दिल की बात न कह सकी, क्योंकि डरती थी । मगर देखो, आज तुम्हारी नफरत ने मुझे चरित्रहीन, धोखेबाज, स्वार्थी और फरेबी होने का एहसास करा दिया...(मै पढ़ते-पढ़ते रो पड़ा)...हो सकता है कि तुम मुझे कभी न माफ कर पाओ..मगर मेरी पहली और अंतिम इच्छा जरूर पूरी करना । तुम्हे हमारे प्यार की सौगंध..

“धरा और दिवाकर के बीच लगे इस ग्रहण को खत्म करने का प्रयास...” शायद मै तुम्हारे जीवन मे खुशियों के रंग तो न भर पायी, जिसके लिये मैं, अजीवन खुद को तुम्हारा दोषी मानती रहूंगी...तुम्हरी नफरत के साथ मै जी नही सकती..हो सके तो मुझे माफ कर देना...एक धुंधली याद समझ कर भूल जाना..

तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी....


उस पत्र को पढ़ने के बाद मै फूटफूट कर रोता रहा..

उसमे लिखे हर शब्द से मुझे धरा की हृदय पीड़ा का एहसाह हुआ..मुझे समझ आने लगा की मेरे लगए लांछन से धरा को कितना कष्ट हुआ होगा..लिखते वक्त उसकी मन:स्थिति क्या रही होगी...क्योंकि पन्ने के हर कोर पर आंसूओ के निशान साफ-साफ दिखायी दे रहे है... मैं खुद को अब रोक सकने की स्थिति मे ना रहा और घर से भागते हुए निकला..ये भी याद नही रहा की रास्ते मे कितने कंकड़, कितने कांटे चुभे मुझे,,,क्योंकि जो घाव मैंने अपनी धरा को दिये थे उसके आगे ये सब कुछ भी नही... भागते हुए मै संगम किनारे उस जगह जा पहुंचा। जहां मैं और धरा अक्सर बैठा करते थे... इस वक्त शाम के लगभाग 5.30 बज चुके है...मैने धरा को चारों ओर ढूंढने का प्रयास किया मगर वो न दिखी,,और मै थक कर किनारे बैठ गया... इस समय धरा की कही एक-एक बात याद आने लगी...सामने नदी के दूसरे किनारे पर सूरज धीरे धीरे ढलने लगा है और ऐसा लग रहा जैसे की वो पृथ्वी को चूमने का प्रयास कर रहा हो...धीरे धीरे उनका मिलन हो रहा है...कितना प्रेम कितना समर्पण है दोनो मे...कितने आतुर है एक दूसरे मे मिल जाने को...ठीक ऐसी ही स्थिति मेरी भी थी..मगर मै तो तब जागा हूं जब सब कुछ लुट चुका है.... मैं, “धरा और दिवाकर” के बीच उस चंद्रमा को ले आया था जो मिलन की इस बेला मे मीलों दूर आकाश मे अकेला उदयमान हो रहा... मै थक कर सिर झुकाए हुए बैठा यही सोचने लगा की अगर मै तुमसे एक बार, बस एक बार ही मिल पाता तो कम से कम माफी मांग लेता...मै खुद को और न रोक पाया और अचानक ही मेरे मुख से प्रणय वेदना चीख बन कर फूट पड़ी और मैं रेत मे सिर गड़ाए रोता रहा...

अचानक एक स्पर्श महसूस हुआ, “ ये क्या? इस स्पर्श को तो मै पहचान सकता हूं...ये कोमलता तो सिर्फ मेरी धरा की हो सकती है,,,उसकी खुशबू जो मुझे हर वक्त महसूस होती रही है.. उसे पाना चाहता हूं उसे जीना चाहता हूं..और जब सिर उठाया तो उसे अपने समीप खड़ा पाया..मगर वो अभी भी अधूरी है, क्योंकि उसे दिवाकर का आलिंगन चाहिए... फिर मैने उसे गले से लगा कर चूम लिया और ऐसे थामे रखा जैसे कभी भी दूर न जाने का निवेदन कर रहा हूं...

समाप्त

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