यूँ ही ऊबड़-खाबड़ राह में
पैरों तले कुचली मलिन सी
गुलदाउदी को देखा ...
इक्की-दुक्की पत्तियाँ और
कमजोर सी जड़ों के सहारे
जिन्दगी से जद्दोजहद करती
जीने की ललक लिए...
जैसे कहती,
"जडे़ं तो हैं न
काफी है मेरे लिए"...
तभी किसी खिंचाव से टूटकर
उसकी एक मलिन सी टहनी
जा गिरी उससे कुछ दूरी पर
अपने टूटे सिरे को
मिट्टी में घुसाती
पनाह की आस लिए
जैसे कहती,
"माटी तो है न...
काफी है मेरे लिए"।
उन्हें देख मन बोला,
आखिर क्यों और किसलिए
करते हो ये जद्दोजहद ?
बचा क्या है जिसके लिए
सहते हो ये सब?
अरे! तुमपे ऊपर वाले की
कृपा तो क्या ध्यान भी न होगा ।
नहीं पनप पाओगे तुम कभी !
छोड़ दो ये आशा... !!
पर नहीं वह तो पैर की
हर कुचलन से उठकर
जैसे बोल रही थी ,
"आशान्वित रहूँगी,अंतिम साँस तक"
व्यंग उपेक्षा और तिरोभाव
की हंसी हँस आगे बढ़
छोड़ दिया उसे मन ने
फिर कभी न मिलने
न देखने के लिए।
बहुत दिनों बाद पुनः जाना हुआ
उस राह तो देखा !!
गुलदाउदी उसी हाल में
पर अपनी टहनियां बढ़ा रही
दूर बिखरी वो टहनी भी
वहीं जड़ पकड़ जैसे
परिवार संग मुस्कुरा रही
्
अब कुछ ना पूछा न सुना उससे
बस वही व्यंग और उपेक्षित हंसी
हंसकर मन पुनः बोला....
"बतेरे हैं तेरे जैसे इस दुनिया में
जो आते हैं... जाते हैं ...
खरपतवार से ।
पर उसकी कृपा बगैर
नहीं पनप पाओगे तुम कभी
छोड़ दो ये आशा....!!!
लेकिन वह एक बार फिर
मौन ही ज्यों बोली
जीवटता में जीवित हूँ
कोई तो वजह होगी न...
"आशान्वित रहूँगी,अंतिम साँस तक"
मन की अकड़ थोड़ा
ढ़ीली तो पड़ ही गयी
उसका वो विश्वास मन के
हर तर्क को जैसे परास्त कर रहा था।
इतनी विषमता में जीने की उम्मीद !
सिर्फ जीने की या खुशियों और
सफलताओं की भी ?....
क्या सच में कोई वजह होगी ?
सचमुच फुर्सत होगी इन्हें देखने की
ऊपर वाले को ?
इसका टुकड़ा-टुकड़ा
पुनः नवनिर्माण को आतुर है
जिजीविषा की ऐसी ललक !
हद ही तो है न !!!
पर क्यों और कैसे ?
जबकि मानव तो थोड़ी विषमता में
आत्मदाह पर उतारू है..
फिर इसमें इतना विश्वास और आस !
इस जीवटता में भी !
उफ्फ ! !
गुलदाउदी अब मन की सोच
में रहने लगी थी ।
तभी एक दिन सहसा एक मीठी सुगन्ध
हवा के झोंके के संग आकर बोली ;
"पहचानों तो मानूँ "!
सम्मोहित सा मन होशोहवास खोये
चल पड़ा उसके पीछे-पीछे....
मधुर खिलखिलाहट से
तन्द्रा सी टूटी...
देखा कितनी कलियाँ उस
गुलदाउदी से फूटी !
अहा ! मन मोह लिया
उन असंख्य कलियों ने
मधुर सुगन्ध फैली थी
ऊबड़-खाबड़ गलियों में.....
अब तो ज्यों त्योहार मना रही थी गुलदाउदी !
ताजे खिले पीले फूलों पर
मंडराते गुनगुनाते भँवरे !
इठलाती रंग-बिरंगी तितलियाँ !
चहल-पहल थी बहुत बड़ी।
कुचलने वाले पैर भी
अब ठिठक कर देख रहे थे
सब्र का फल और आशा
का ऐसा परिणाम !
शिशिर की ठिठुरन और पतझड़ में ।
खिलखिलाती गुलदाउदी पर
मंत्र-मुग्ध हो रहे थे....
आश्चर्य चकित सा मन भी मान गया था
जीवटता में जिलाये रखने की वजह।
अपनें हर सृजन पर
उसकी असीम अनुकम्पा !
खुशियाँ मनाती गुलदाउदी को
हौले से छूकर पूछा उसने
"राज क्या है बता भी दो"?
इस पतझड़ में भी खिली हो यूँ
मेहर है किसकी जता भी दो ?
गुलदाउदी खिलखिलाकर बोली,
"राज तो कुछ भी नहीं
हाँ मेहर है ऊपर वाले की
उसके घर देर है अंधेर नहीं !