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पुस्तक समीक्षा- कासे कहूँ; काव्य संग्रह

26 दिसम्बर 2021

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पुस्तक समीक्षा: कासे कहूँ

 


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मन की महकी गलियों में,

बस दो पल हमें भी घर दो ना!

लो चंद मोती मेरी पलकों के

मुस्कान अधर में भर लो ना!

प्यार और मनुहार से अधरों में मुस्कान अर्पण कर 'कासे कहूँ , हिया की बात' तक  विविधता भरी संवेदना के चरम को छूती पूरी इक्यावन कविताओं का संग्रह  ब्लॉग जगत के स्थापित हस्ताक्षर एवं जाने -माने साहित्यकार पेशेवर इंजीनियर आदरणीय 'विश्वमोहन जी' के द्वितीय संग्रह 'कासे कहूँ'  के रूप में साहित्य जगत के लिए अनमोल भेंट है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी आदरणीय विश्वमोहन जी एवं उनकी पुस्तक के विषय में विभिन्न शिक्षाविद् भाषाविद् एवं प्रतिष्ठित साहित्यकारों के आशीर्वचन  पुस्तक को और भी आकर्षक बना रहे हैं।

प्रस्तुत संग्रह की प्रथम कविता 'सपनों का साज' ही मन को बाँधकर सपनों की ऐसी दुनिया में ले जाता  है कि पाठक का मन तमाम काम-धाम छोड़ इसकी अन्य सभी रचनाओं के आस्वादन के लिए विवश हो जाता है।

चटक चाँदनी की चमचम

चंदन का लेप लगाऊँ

हर लूँ हर व्यथा थारी

मन प्रांतर सहलाऊँ।

आ पथिक, पथ में पग-पग-

सपनों के साज सजाऊँ।

 सहज सरल भाषा में आँचलिकता की मिठास एवं अद्भुत शब्दसंयोजन पाठक को विस्मित कर देता है।

जज्बातों की खूबसूरती एवं विभिन्न अलंकारों से अलंकृत आपकी समस्त रचनाओं में भावों की प्रधानता को तो क्या ही कहने!!!

प्राची से पश्चिम तक दिन भर

खड़ी खेत में घड़ियाँ गिनकर।

नयन मीत में टाँके रहती,

तपन प्यार का दिनभर सहती।

क्या गुजरी उस सूरजमुखी पर,

अँधियारे जब डाले पहरे।

तुम क्या जानो , पुरुष जो ठहरे!

'तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे' कविता में कवि की नारीभावना उजागर हुई है।

 नारी के प्रति श्रद्धा एवं सम्मान इनकी कविताओं में यत्र-तत्र पल्लवित एवं पुष्पित हुआ है

 'जुलमी फागुन! पिया न आयो। में नारी के प्रति संवेदना हो या फिर 'नर-नपुंसक' में युग-युग से नारी शोषण व अत्याचार पर दम्भी कायर पुरुषत्व को फटकार।👇👇

राजनीति या राजधरम यह,

कायर नर की अराजकता है।

सरयू का पानी भी सूखा,

अवध न्याय का स्वाँग रचता है


हबस सभा ये हस्तिनापुर में,

निरवस्त्र फिर हुई नारी है।

अन्धा राजा, नर-नपुंसक,

निरलज ढीठ रीत जारी है!

आपके दृष्टिकोण में नारी के प्रति संवेदना ही नहींअपितु अपार श्रद्धा भी है जो आपकी  कविता 'नर-नारी' और  'परमब्रह्म माँ शक्ति-सीता' एवं समस्त सृजन में भी साफ दृष्टिगोचर होती है

कवि नारी को पुरुष से श्रेष्ठ एवं अत्यधिक सहनशील मानते हुए कहते हैं कि

मातृ-शक्ति, जनती-संतति,

चिर-चैतन्य, चिरंतन-संगति।

चिन्मय-आलोक, अक्षय-ऊर्जा,

सृष्टि सुलभ सुधारस सद्गति।


प्रतीक बिम्ब सब राम कथा में,

कौन है हारा और कौन जीता।

राम भटकता जीव मात्र है

परमब्रह्म माँ शक्ति-सीता।

माँ शक्ति-सीता परमब्रह्म एवं  श्रीराम जीव मात्र!

नारी के प्रति श्रद्धा श्रेष्ठता और सम्मान के ऐसे उदाहरण आपके सृजन में यत्र-तत्र उद्धृत हैं ।

कवि हमेशा सीमाएं तोड़ता है।चाहे वह आर्थिक हो राजनीतिक हो या फिर सामाजिक। 

'कासे कहूँ' में अपने  बेबाक एवं धारदार लेखन से सम सामयिकी,  मीडिया, सियासत और  अन्य व्यवस्थाओं की धांधलेबाजियों  पर करारा कटाक्ष करते हुए कवि  कहते हैं कि..

कैसलेस, डिजिटल समाज,

मंदी....फिर...आर्थिक बुलंदी।

जन-धन आधार माइक्रो एटीएम

आर्थिक नाकेबन्दी!जय नोटबंदी!!

ऐसे ही आह नाजिर! और वाह नाजिर!में देखिये...

जहाँ राजनीति का कीड़ा है 

वहीं भयंकर पीड़ा है।

जय भारत जय भाग्य-विधाता,

जनगण मनधन खुल गया खाता।

दिग्भ्रमित लेखकों और पत्रकारों पर कटाक्ष है 'पुरस्कार वापसी'...

कलमकार कुंठित- खंडित है

स्पंदनहीन  हुआ दिल है।

वाद पंथ के पंक में लेखक,

विवेकहीन मूढ़ नाकाबिल है।।

दल-दलदल में हल कर अब,

मिट जाने का अंदेशा है।

साहित्य-सृजन अब मिशन नहीं,

पत्रकार-सा पेशा है।।

डेंगू काल में चिकित्सा व्यवस्था के गिरते स्तर पर करारी चोट...

'प्लेटलेट्स की पतवार फँसी 'डेंगी'में।

धन्वन्तरी के धनिक अनुयायी

चिकित्सा की दुकान 

पर बैठे व्यवसायी

कुत्सित-चित्त

धिक-धिक पतित।

कोरोना काल की त्रासदी और लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों की पीड़ा तथा शहरी एवं सरकारी उपेक्षा पर...

छुप गये सारे सियार , अपनी माँद में।

अगर पहले ही कोई कह देता 

"आओ ,रहो ,ठहरो

अब तक तमने खिलाया 

अब हमारी भी थोड़ी खाओ


वह 'नीति-निष्ठुरवा' नहीं  न बकबकाता

कवि समाज में फैली बुराइयों रूढियों में जकड़ी जिंदगियों और दरकती मानवीय संवेदनाओं से व्यथित होकर कहते हैं

गाँजे का दम

हाकिम की मनमानी।

दारू की तलाशी

खाकी की चानी

कुटिल कौम ! कैसी फितरत!में सियासत का कच्चा चिट्ठा खोलते हुए कवि कहते हैं..

सियासत की सड़ी सड़कों पर,

गिद्ध चील मंडराते हैं।

बच्चों की लाशों को जुल्मी,


नोंच -नोंच कर खाते हैं।

तमाम विसंगतियों और विडम्बनाओं में भी कवि आशा का दामन नहीं छोड़ते कवि के अनुसार 'आशा का बीज' कहीं न कहीं अंकुरित हो ही जाता है.....

मरा मानव

पर जागी मानवता

दम भर छलका करूणा का अमृत

थामने को बढ़े आतुर हाथ,

और बाँटने को 

आशा का नया बीजन।

समवेत स्वर।

सृजन!सृजन!!सृजन!!!

विलुप्त होती गौरैया हो या भोर-भोरैया कवि की लेखनी से कोई भी विषय अछूता नहीं है...फिर रिश्तों की तो बात ही क्या... 

'बाबूजी'  में देखिये मध्यमवर्गीय परिवार का ऐसा हृदयस्पर्शी शब्दचित्रण भावुक कर देता है...

कफ और बलगम नतमस्तक!

अरमान तक घोंटने में माहिर,

जेब की छेद में अँगुली नचाते

पकता मोतियाबिंद, और पकाते

सपनों के धुँधले होने तक!

बाबूजी की आँखों में, रोशन अरमान

बच्चों के बनने का सपना!

ऐसे ही समूचे देश के 'बापू' को एक हृदयस्पर्शी  आवाहन ...

उठ न बापू ! जमना तट पर ,

क्या करता रखवाली?

'गरीबन के चूल्हा' /पानी - पानी/ बैक वाटर/बेटी बिदा/मृग मरीचिका/रिश्तों की बदबू/आस्तीन का साँप /पंथ-पंथ मौसेरे भाई'दुकान से दूर । साहित्यकार,'भूचाल, फुटपाथ, जनता जनार्दन की जय आदि जैसे बरबस आकर्षित करते शीर्षक हैं वैसी ही अप्रतिम  एवं गहन चिंतनपरक रचनाएं भी।

 ऐसी कविताएं भावनाओं की प्रसव पीड़ा के उपरान्त ही जन्म लेती हैं जिनमें सृजनात्मकता एवं गहन अनुभूति का चरमोत्कर्ष होता है।

भोर भिनसारे,कउआ उचरे,

छने-छने,मन भरमात।

जेठ दुपहरिया, आग लगाये,

चित चंचल , अचकात।

कासे कहूँ, हिया की बात!

अनेकानेक विसंगतियों की विकलता विविधतापूर्ण सृजनात्मकता आकुल कवि मन कहे तो किससे कहे। अतः ,'कासे कहूँ' शीर्षक पुस्तक को सार्थकता प्रदान करता है।

'कासे कहूँ' पूर्ण साहित्यिक पुस्तक पाठक को अपने काव्याकर्षण में बाँध सकने में पूर्णतः सक्षम है।

फिर भी समीक्षा के नियमों के तहत पुस्तक की आलोचना करूँ तो मेरे हिसाब से 

●अनुक्रमणिका में कविताओं कोअलग-अलग भागों में(विषयवस्तु के आधार पर)बाँटते हुए  क्रमबद्ध किया होता,  शायद ज्यादा बेहतर होता।

● कविताओं में लिखे आँचलिक भाषा के शब्दों का हिन्दी अर्थ जैसे पुस्तक के अंतिम पृष्ठ में दिये हैं हर कविता के अंत में होते तो रचनाएं सभी को समझने में और भी सुलभ होती।

इसके अलावा काव्य सृजन की दृष्टि से सभी कविताएं बेहद उत्कृष्ट हैं भाषा में प्रवाह है कविता में लय एवं शिल्प सौन्दर्य है।खूबसूरत कवरपृष्ठ के साथ प्रस्तुत संग्रह सभी काव्य प्रेमियों एवं साहित्य सेवियों के लिए अत्यंत संग्रहणीय एवं पठनीय पुस्तक है

यदि आप समीक्षा पढ़ रहे हैं तो संग्रह भी अवश्य पढ़िएगा ताकि इस समीक्षा की सत्यता को जाँच सकें।

उत्तम संग्रह हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।


पुस्तक :  कासे कहूँ

लेखक : © विश्वमोहन

प्रकाशक :  

विश्वगाथा, सुरेन्द्रनगर - 363 002, गुजरात

मूल्य: 150/-

आप निम्न लिंक से पुस्तक प्राप्त कर सकते हैं

https://www.amazon.in/Kase-kahu-Vishwamohan/dp/8194261090/ref=sr_1_1?crid=3GKSK4ZBVWNWF&keywords=kase+kahu&qid=1640337321&s=books&sprefix=kase+kahu+%2Cstripbooks%2C183&sr=1-1




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