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हिंदी ग़ज़ल

30 अक्टूबर 2015

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ग़ज़ल 


चल चुकी चलनी थी जितनी होशियारी आपकी 

बंद अब हो जाएगी दूकानदारी आपकी 


ज़िंदगी अपनी ही शर्तों पर मुझे मंज़ूर है 

है नहीं बर्दाश्त बिलकुल उज्रदारी आपकी 


पेट भर रोटी न दें तो डिग्रियां किस काम की 

मुंह चिढ़ाती है मुझे बेरोज़गारी आपकी 


कम नज़र हैं देखने वाले सभी इस दौर में 

क्या करेगी खूबसूरत दस्तकारी आपकी 


काटना होगा हमें हँस बोलकर अपना सफर 

एक ही है देखिये मंज़िल हमारी आपकी 


आपकी हर शानो शौकत पर हज़ारों लानतें 

खा रही दर दर की ठोकर माँ बेचारी आपकी 


कह रही चेहरे पै बैठी रंगते खुश्की सुगम 

अब तलक उतरी नहीं शायद खुमारी आपकी 


सुगम  

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चंद्रेश विमला त्रिपाठी

सुगम जी इस सुन्दर रचना की लिए शब्दनगरी आपको धन्यवाद देता है |

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ग़ज़लनहीं पहुंची किसी मज़लूम के वेवस ठिकानों तक सिमट कर रह गयी सारी तरक्की बेईमानों तकपढ़े जब आयतें मस्जिद तो मंदिर को मज़ा आयेपहुँचना चाहिए आवाज़ घंटी की अज़ानों तकदिखाया जा रहा है ज़िंदगी को इश्तहारों में सुबूते ज़िंदगी अब कैद है केवल दुकानों तकसदी अट्ठारवीं की ओर ही ले जा रहे हमको वो रखना चाहते सबको कुरआं

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ग़ज़लमंसूबे सब भांप गए हैं अंदर तक हम काँप गए हैंआई नहीं अभी तक मंज़िल चलते चलते हांफ गए हैंजाता नहीं जेल के भीतर लेकर उसके पाप गए हैंआये तो थे ख़ुशी मांगने करते हुए विलाप गए हैंकिसे चाहिए कितनी रोटी ले पेटों का नाप गए हैंमैंने तो कुछ कहा नहीं है उठकर अपने आप गए हैंसुगम

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ग़ज़ल मत समझो घबरा कर रोने वाला हूँ अब मैं एक चुनौती होने वाला हूँ जोता,बखरा ,खाद मिला दुःख ,दर्दों का ग़ज़लों की फसलों को बोने वाला हूँ लहू बहाते ताज़े ताज़े ज़ख्मों को अश्कों की गंगा से धोने वाला हूँ सतत साधना करता हूँ संघर्षों की मत समझो मैं जादू टोने वाला हूँ जीवन भर तक बोझ नहीं मैं ज़ुल्मों का अपने सर

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हिंदी ग़ज़ल

30 अक्टूबर 2015
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ग़ज़ल चल चुकी चलनी थी जितनी होशियारी आपकी बंद अब हो जाएगी दूकानदारी आपकी ज़िंदगी अपनी ही शर्तों पर मुझे मंज़ूर है है नहीं बर्दाश्त बिलकुल उज्रदारी आपकी पेट भर रोटी न दें तो डिग्रियां किस काम की मुंह चिढ़ाती है मुझे बेरोज़गारी आपकी कम नज़र हैं देखने वाले सभी इस दौर में क्या करेगी खूबसूरत दस्तकारी आपकी काटना

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