ग़ज़ल
चल चुकी चलनी थी जितनी होशियारी आपकी
बंद अब हो जाएगी दूकानदारी आपकी
ज़िंदगी अपनी ही शर्तों पर मुझे मंज़ूर है
है नहीं बर्दाश्त बिलकुल उज्रदारी आपकी
पेट भर रोटी न दें तो डिग्रियां किस काम की
मुंह चिढ़ाती है मुझे बेरोज़गारी आपकी
कम नज़र हैं देखने वाले सभी इस दौर में
क्या करेगी खूबसूरत दस्तकारी आपकी
काटना होगा हमें हँस बोलकर अपना सफर
एक ही है देखिये मंज़िल हमारी आपकी
आपकी हर शानो शौकत पर हज़ारों लानतें
खा रही दर दर की ठोकर माँ बेचारी आपकी
कह रही चेहरे पै बैठी रंगते खुश्की सुगम
अब तलक उतरी नहीं शायद खुमारी आपकी
सुगम