ग़ज़ल
मंसूबे सब भांप गए हैं
अंदर तक हम काँप गए हैं
आई नहीं अभी तक मंज़िल
चलते चलते हांफ गए हैं
जाता नहीं जेल के भीतर
लेकर उसके पाप गए हैं
आये तो थे ख़ुशी मांगने
करते हुए विलाप गए हैं
किसे चाहिए कितनी रोटी
ले पेटों का नाप गए हैं
मैंने तो कुछ कहा नहीं है
उठकर अपने आप गए हैं
सुगम