इत्तेफ़ाक़! कितना सामान्य-सा शब्द है ना। मगर सामान्य-से इस शब्द का हमारी ज़िंदगी से गहरा सम्बन्ध होता है। या फिर यूँ कह लें कि ये ज़िंदगी एक इत्तेफ़ाक़ है। यहाँ सब कुछ इत्तेफ़ाक़ से ही होता है। इत्तेफ़ाक़ से खुशियों की तितलियाँ उड़ती हुई हमारी ज़िंदगी में आती हैं। तो कभी इत्तेफ़ाक़ से दर्द के काँटे वसन्त के फूलों संग लिपट आते हैं। इत्तेफ़ाक़ से कोई समसे इस सफ़र में टकराता है। इत्तेफ़ाक़ से कोई अजनबी हमारी खुशियों की वजह बन जाता है। फिर इत्तेफ़ाक़ से वो डाली के सूखे पत्तों जी तरह हमसे बिछड़ जाता है। कहीं अहसास साथ नहीं देते, कहीं वक़्त बिछड़ जाता है तो कहीं ये ज़िंदगी। मगर कहीं काँच से रिश्ते भी मिलते हैं यहाँ। जो अपनेपन के धुंध में छिपकर हमें गुलाब के काँटों से ज़ख़्मी कर देते हैं। और लोग कहते हैं इत्तेफ़ाक़ था। क्या वाकई ये ज़िंदगी एक इत्तेफ़ाक़ है?