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जब मैं बना चीप गेस्ट

3 अप्रैल 2023

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हिंदी लेखक को तिरस्कार सहने की ऐसी आदत होती है कि गलती से कभी इज्जत मिल जाए, तो बजाय यह सोचने के कि मैं डिजर्व करता हूँ, वह सम्मान देनेवाले को ही फालतू मानने लगता है। पिछले हफ्ते एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनने का न्योता मिला, तो आयोजकों को लेकर ऐसा ही खयाल आया। पहले सोचा कि मना कर दूँ, फिर यह सोचकर हाँ कर दी कि बड़ी संस्थाएँ बुला नहीं रहीं और जो बुला रहे हैं, उन्हें भी मना कर दूँगा, तो बतौर चीफ गेस्ट' मेरी लॉचिंग कब हो पाएगी? सम्मान के अंतरिक्ष में मेरा लेंडर कैसे अपनी कक्षा में स्थापित हो पाएगा?

कार्यक्रम दूसरे शहर में था। इसलिए जब वहाँ जाने की बात चली, तो हवाई और ट्रेन टिकट तो मेरे जेहन में था ही नहीं। डर था तो इस बात का कि कहीं वे मुझे नजदीकी सब्जी मंडी से किसी प्याज के ट्रक पर लटककर आने की सलाह न दे दें!.. और आते वक्त उसी ट्रक से आधा किलो प्याज चुराकर लाने का आग्रह न कर दें, ताकि वहाँ पहुँचने पर मुझे उसी प्याज के परांठे खिलाए जा सकें, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने मुझे ससम्मान मालगाड़ी से आने का टिकट दिया।

स्टेशन से निकलते ही देखा कि मुझे रिसीव करने एक ड्राइवर आया हुआ है। शक हुआ कि कहीं ये लोग मुझे गोपालदास नीरज' की गल- तफहमी में तो इतनी इज्जत नहीं दे रहे। बीच रास्ते में उसने गाड़ी का ए.सी. बंद कर दिया तो मैं और सहम गया। लगा, ड्राइवर को पता चल गया है कि ये 'गोपालदास नीरज' नहीं, शेयरिंग ऑटो में ड्राइवर की गोदी में बैठकर सफर करनेवाला 'नीरज' है। घबराहट हुई कि वह बीच रास्ते में ही मुझे किसी इ-रिक्शा के पीछे रस्सी से बाँधकर बस स्टैंड रवाना न कर दे।

इसी घबराहट और बेचैनी के साथ मैं 10 मिनट में कार्यक्रम स्थल पहुँच गया। वहाँ पहुँचा तो यह देखकर और तकलीफ हुई कि एक पुलिस

अधिकारी और नामी स्कूल की प्रिंसिपल की मौजूदगी में मुझे मुख्य अतिथि बनना था। समझ नहीं पा रहा था कि इसे उपलब्धि मानते हुए जश्न मनाऊँ या देश की कानून और शिक्षा व्यवस्था के इस असम्मान पर आँसू बहाऊँ। इससे पहले कि मैं आँसू बहाने के लिए बाथरूम का रुख करता, पीछे से आवाज आई... "नीरजजी, दीप प्रज्वलित करने का वक्त हो गया

सारी उम्र कमरे की लाइट बंद न करने के लिए पहले माँ-बाप और फिर बीवी की डाँट खानेवाले शख्स को आज दीप प्रज्वलित करने को कहा जा रहा था! यह सुन मन फिर भावुक हो गया। दिल कर रहा था कि अपना ही एक बाजू गरदन के पीछे ले जाकर खुद ही खुद को गले लगा लूँ!

ऊपर से नीरज के आगे इतनी बार 'जी' लगाया जा रहा था कि पहले दस-बीस मिनट तो समझ ही नहीं आ रहा था कि मुझे ही बुलाया जा रहा है। खुद के लिए 'अबे' सुनने की ऐसी आदत पड़ चुकी है कि टी.वी. में भी कोई 'सुन वे' बोलता है तो मेरे मुँह से 'जी सर' निकल जाता है। हिम्मत जुटा जैसे-तैसे दीप प्रज्वलित करने पहुँचा तो वही पुलिस अधिकारी और प्रिंसिपल मेरे सामने खड़े थे। डर लग रहा था कि नाराज पु- लिस अधिकारी मुझसे गाड़ी की आर.सी. और ड्राइविंग लाइसेंस दिखाने को न बोल दें और न दिखा पाने पर उसी दीप से मेरी पतलून में आग

लगाकर मुझे ही प्रज्वलित न कर दें।

जब-जब लेडी प्रिंसिपल से नजर मिली, तो यह सोचकर ही रूह काँप गई कि वे पास्ट परफेक्ट टेंस' सुनाने के लिए न कह दें और न सुना पाने पर डायस पर ही मुझे मुरगा न बना दें और वहाँ मौजूद शरारती बच्चे पिछवाड़े पर स्केल मारकर 'मुरगे' की जान न ले लें।

दीप प्रज्वलन के बाद बारी थी बच्चों से दो शब्द कहने की। अब मुझ जैसे दरिद्र हिंदी लेखक की त्रासदी समझिए, खुद तो आधी जिंदगी सं- पादकों से इस बात पर झगड़ने में बीत गई कि लेख के 250 रुपए की जगह 400 कर दो महीने में एक की जगह दो बार छाप दो। ट्रेन से उतरने के बाद से कशमकश में था कि रास्ते में जो 10 रुपए की फ्रूटी पी थी, उसके पैसे आयोजक से लूँ या नहीं? कार्यक्रम में पहनने के लिए जो कोट प्रेस करवाया था, उसके 50 रुपए खर्च में जोडूं या नहीं? और बच्चों को संबोधित करते हुए मुँह से पहली बात यह कहनी पड़ी कि प्यारे बच्चो, जिंदगी में कभी पैसे के पीछे मत भागना!

इस तरह कुछ घंटे और दोगलापन दिखाने और ताबड़तोड़ मिली इज्जत की बेइज्जती सहने के बाद कार्यक्रम समाप्त हो गया। कार्यक्रम के आखिर में मुझे एक महँगा-सा मोमेंटो दिया गया, जिसे देखकर यही खयाल आया कि इस पर खर्च किए डेढ़ सौ रुपए को भी आयोजक मेरे

चेक में जोड़ देते तो कितना बेहतर होता!

घर लाने के बाद मोमेंटो को मेन गेट के सामने पड़े फ्रिज पर रख दिया है। इसी चक्कर में हर वक्त दरवाजा भी खुला रखना पड़ता है, ताकि आते-जाते गलीवालों की नजर पड़ती रहे। दरवाजा खुला देखकर गली का एक लंगोटिया दोस्त कल घर भी आ गया और मोमेंटो देखकर बोला.....अबे साले! ये कहाँ से मार लिया!

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लोगो के पूर्व में दिए हुए प्यार, स्नेह और ऊर्जा को आधार बनाकर एक बार फिर कुछ रचनाएँ आपके हवाले कर रहा हूँ। रचनाएँ अच्छी बनी हैं या बुरी, ये तो पाठक ही तय करेंगे, मगर इतना जरूर कह सकता हूँ कि इन्हें लिखने, सुधारने और सँवारने में मैंने अपना सबकुछ झोंक दिया है। अगर विषय हल्का-फुल्का है तो इस बात का तनाव नहीं लिया कि कैसे इस लेख से मानवजाति को कोई बड़ा संदेश दिया जाए और विषय गंभीर है, तो सहज ही वहाँ हास्य के बजाय व्यंग्य प्रधान हो गया। लेकिन इतनी कोशिश जरूर रही कि गंभीर व्यंग्य रचनाएँ भी विट से अछूती न रहें वरना वे बोझिल हो जाती हैं। मेरा मानना है कि अच्छा हास्य-व्यंग्य कभी उपदेश का चोला पहनकर नहीं आता। वो आपको हमेशा सही-गलत पर ज्ञा न नहीं देता। वो हरदम गिरते नैतिक मूल्यों की बात कर मनहूस शक्ल बनाए नहीं बैठता। वो एक हँसमुख दोस्त की तरह आता है। खूब हँसी-मजाक करता है। माहौल को हल्का करता है और जाते-जाते कुछ ऐसा कह जाता है कि आप रुककर उस पर विचार करने लगें। यह पहाड़ों की धार्मिक यात्रा की तरह है, जो आपको घूमने का आनंद तो देती ही है, साथ ही यह गर्व भी दे जाती है कि आपकी यात्रा का एक पवित्र मकसद है। ऐसी यात्रा जहाँ पवित्रता अंतिम गंतव्य है, लेकिन सफर मजे से भरा हुआ है।

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