विज्ञान का ऐसा मानना है कि धरती पर जीवन का आरम्भ विशेष परिस्थितियों में रासायनिक द्रव्यों के विशेष संयोजन से एककोशिकीय जीव (माइक्रोव्स) के रूप में हुआ । आरम्भिक एककोशिकीय जीव नें प्रकाश संश्लेषण की क्रिया से भोजन बनाया और धरती पर जैवीय आक्सीजन का प्रथम अणु छोड़ा । इस प्रकार जीवन एककोशिकीय पादप से शुरू होकर बहुकोशिकीय पादप , एककोशिकीय जन्तु , सरल जलचरों से होकर आगे बढ़ा और सबसे अन्त में धरती पर आया मनुष्य । यह भी सर्वविदित है कि धरती पर विभिन्न कालखण्ड़ों में विभिन्न पादप या जन्तु प्रजातियों का आधिपत्य रहा है । वैज्ञानिक अध्ययन से यह भी पता चलता है कि करोड़ों वर्ष पूर्व(जुरासिक कल्प में) धरती पर भीमकाय डायनोसोर्स का आधिपत्य था । कहनें का मतलब धरती न तो हमेशा आज के जैसी थी और न ही हमेशा से आज की तरह पृथ्वी मनुष्यों के ही आधिपत्य में थी ।
विज्ञान की भाषा में अगर पृथ्वी की उम्र चौबीस घण्टे मानी जाय तो उस पर मनुष्य का आगमन महज आधा मिनट पहले ही माना जाएगा । विकास की आदिम अवश्था में मनुष्य भूखा,नंगा,निस्सहाय और कमजोर प्राणी रहा है । उसनें हमेशा पृथ्वी के बड़े आकार के और माँशभक्षी प्राणियों से छिपनें का आश्रय ही खोजा है , और डर की इसी भावना नें मानव को प्रदान किया है वुद्धि,विवेक और सभ्यता । बड़े प्राणियों से बचने की जुगत में मानव नें गुफाओं और कन्दराओं में निवास करते हुए अपनें लिए स्थाई आवास और स्थाई बस्तियों का निर्माण किया और जानवरों से बचनें तथा उनका शिकार कर पेट भरनें की युक्ति के कारण मानव समूह में रहना शुरू किया और यहीं से आरम्भ हुई मानव सभ्यता । यहीं से मनुष्य में सामाजिक इकाई और समाज का जन्म हुआ । मनुष्य नें परिवार बनाया , परिवार जब बड़ा हुआ तो झुण्ड़ या कबीला बना । और यहीं से मनुष्यों नें कृषि और पशुपालन का हुनर सीखा । विशेष कबीलों नें विशेष प्रकार की दक्षता (skill) सीखी और इन्ही विशेष दक्षता के गुणों से कबीले जातियों में परिवर्तित होती चली गयीं । और इन्हीं जातीय कबीलों के विशेष सामाजिक समिश्रण से भारत जैसा बहु जातीय बहु सांस्कृतिक समाज बना जिसनें राज्य की अवधारणा को जन्म दिया । अब जब समाज बन गया और राज्य बन गया और अन्न का उत्पादन और भंड़ारण सीखकर जब खाद्य सुरक्षा प्राप्त कर ली गयी तब आवश्यकता पड़ी एक सार्वभौमिक विधि और जीवन पद्धति की जिसका आविष्कार किया समाज के प्रवुद्ध लोगों नें और जिसे नाम दिया धर्म । सम्भवतः दुनिया में यही धर्म का सबसे प्राचीन संस्करण है ।
समय के साथ समाज और समाज की बुनावट में परिवर्तन आता गया और धीरे-धीरे तमाम पंथ , मत और सम्प्रदाय आते गये । फिर मानव सभ्यता नें वह कालखण्ड़ भी देखा जब धर्म के नाम पर मानवता आहत होती रही । धर्म का कार्य प्रेम ही न होकर नफरत फैलाना भी हो गया । और तमाम चिन्तकों नें धर्म की तुलना अफीम जैसे नशे से भी की । यही धरम का भरम है जो कि कुछ लोगों द्वारा निजी स्वार्थवश फैलाया जाता है ।
वस्तुतः धर्म जीवन पद्धति है ।गोस्वामी तुलसी दास के शब्दों में कहें तो
" सुरसरि सम सब कर हित होई " और
" परहित सरिस धरम नहिं भाई "
भारतीय परिवेश में धर्म हमेशा से जनकल्याण और विश्वकल्याण का आकाँक्षी रहा है । चाहे वह वैदिककालीन धार्मिक साहित्य रहा हो या परिवर्ती धार्मिक साहित्य उसमें ज्ञान-विज्ञान और लोककल्याण की भावना समाहित रही है । वेद तो ज्ञान के प्रकाशस्तम्भ और लोकमंगल की भावना का सामगान हैं ही ।
©अनुरोध कुमार श्रीवास्तव
बस्ती,उत्तर प्रदेश