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जीवन संघर्ष

30 मार्च 2022

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बाबूजी नहीं रहे। मुझे अभी तक विश्वास नहीं हो पा रहा है। यूं लग रहा है, मुझे उद्विग्न देख वह अपनी सौम्य, स्निग्ध मुस्कान के साथ अभी मेरे सामने आकर खड़े हो जाएंगे, और कहेंगे, “अरे बेटा, किसी भी दिक्कत से घबराना नहीं चाहिए। उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए। परेशानी खुद-ब-खुद राह दे देगी।”
लेकिन क्या बाबूजी खुद अपने जीवन में समस्याओं का पूरे हौसले से सामना कर पाए? वह तो जीवनभर संघर्ष करते रहे, स्वयं अपने आपसे, अपने परिवार वालों से और समाज के बनाए गए खोखले जीवन-मूल्यों से।
आखिरकार इस संघर्ष के बदले में उन्हें मिला क्या, सिवाय अपने परिचय क्षेत्र में थोड़े से सुयश, कीर्ति और नाम के?
 पुलिस विभाग जैसे प्रभावशाली महकमे में सरकारी वकील के पद पर कार्यरत थे बाबूजी, लेकिन भ्रष्टाचार, रिश्वत के लिजलिजे, रेंगते कीड़ों से आक्रान्त उस विभाग  में वह अपने आपको इन सबसे अछूता रख पाए थे, सिर्फ अपने ऊंचे आदर्श मूल्यों तथा अडिग ईमानदारी के दम पर।
                    बाबूजी के मुंह से ही सुना था, दादाजी एक छोटी सी जमींदारी संभालते थे, लेकिन तिकड़मी बुद्धि तथा चातुर्य के बल पर छोटी सी जमींदारी के सहारे उन्होंने यथेष्ट धन कमा लिया था। 
बाबूजी जैसे-जैसे बड़े हुए थे, उनके कानों में दादाजी के अपनी रैय्यत के प्रति अनाचार और अन्यायपूर्ण रवैये की छुटपुट खबरें पड़ती रहती थीं, और शायद इन्हीं सबकी वजह से शुरू से ही उनके मन में सामंती मूल्यों के प्रति असंतोष का अंकुर फूट निकला था। समाज की इन विसंगतियों तथा विषमताओं के विरुद्ध प्रभावशाली आवाज उठाने के लिए उन्होंने वकालत का मार्ग अपनाया था।
यह बाबूजी का दुर्भाग्य ही था कि जिन व्यक्तिगत उसूलों तथा मानदंडों की वजह से सामाजिक दायरे  में उन्हें अपूर्व मान-प्रतिष्ठा मिली, उन्हीं सिद्धांतों के चलते उन्हें स्वयं अपने ही घर में निरंतर उपेक्षा, अवमानना सहनी पड़ी।
मां और बाबूजी की विचारधारा में मूलभूत विरोधाभास था।  
मां के पिताजी यानी मेरे नानाजी एक प्रतिष्ठित डॉक्टर थे। अपनी निजी प्रैक्टिस के दम पर अपने परिवार को एक शान शौकत भरा जीवन दे पाने में समर्थ थे। इसलिए शुरू से मां हर प्रकार के सुख-सुविधापूर्ण वातावरण में पल कर बड़ी हुईं थीं। 
अतः अपने लिए भी उनके मन में शुरू से ऐसे ही जीवन की आकांक्षा थी, परंतु एक ईमानदार, पारिवारिक जिम्मेदारियों के बोझ तले आकंठ दबे एक सरकारी वकील से विवाह के बाद उनका यह सपना टूट गया। 
मां-बाबूजी के विवाह के महीने भर बाद ही दादाजी की मृत्यु हो गई थी। इसलिए उनकी मृत्यु के उपरान्त दो छोटे भाइयों और चार कुंवारी बहनों का भार बाबूजी पर आ गया था। 
दादाजी के देहांत के बाद मां की कच्ची, अपरिपक्व समझ इन जिम्मेदारियों के भार तले जैसे असमय ही कुंठित हो गई थी। बाबूजी की सरकारी नौकरी की बंधी बंधाई तनख्वाह ही इतने बड़े परिवार की इकलौती नियमित आय थी, और इन संघर्षपूर्ण परिस्थितियों का मां सफलतापूर्वक सामना नहीं कर पाईं। इन सबका सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा मां-बाबूजी के दांपत्य जीवन पर, जो सतत अभावग्रस्त परिस्थितियों में सहज स्वाभाविक रूप से पुष्पित पल्लवित नहीं हो पाया, और बहुत जल्दी अपने रिश्ते का नैसर्गिक माधुर्य खो बैठा। 
बाबूजी लाख कोशिश करते, मां को अपने सहृदय, मीठे व्यवहार से खुश रखने की, लेकिन वह हमेशा पैसों के मुद्दे को लेकर उनसे खिंची खिंची रहतीं। उनसे कभी सीधे मुंह बात न करतीं। 
बाबूजी चाहते तो रिश्वत की ऊपरी आमदनी से अपने धनाभाव को मिटा सकते थे।
 शुरू से ही बाबूजी सरकारी कॉलोनी में रह रहे थे और मां जब कॉलोनी में रहने वाले बाबूजी के सहकर्मियों के घरों के शान-शौकत भरे रहन-सहन को देखतीं, तो अपने तंगहाल जीवन के प्रति उनके मन का उत्कट क्रोध कटुवाक्यों और तानों उलाहनों के रूप में बह निकलता। उन्हें सबसे बड़ा दुख इस बात का था कि जहां बाबूजी के अन्य सहकर्मी मांग-मांग कर रिश्वत लेते थे, बाबूजी घर आई लक्ष्मी तक को ठुकराने में भी संकोच नहीं करते थे।
                     ऐसी ही एक घटना मेरे स्मृति पटल में आज भी जीवंत है। कुछ लोग बाबूजी के किसी शासकीय कार्य के प्रति सराहना स्वरूप असली घी के तीन पीपे घर पर रखवा गए थे। शाम को दफ्तर से लौटने पर जब बाबूजी को इस बात का पता चला था, वह मां पर बहुत बिगड़े, “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इन पीपों को रखने की? मुझे भूखा रहना मंजूर है, लेकिन ईमान बेचना हर्गिज मंजूर नहीं।”
              उनके  परिचय क्षेत्र में लोग उन्हें लगभग पूजते। आए दिन नए नए बने वकील अपना पहला मुकदमा उनके चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लेकर ही लड़ने जाते। यदा कदा अपनी निजी समस्याओं का समाधान उनसे मांगने आते, लेकिन अपने ही घर में उन्हें अपने बीवी बच्चों को एक सुविधा सम्पन्न जीवन दे पाने में असमर्थता की वजह से आए दिन कदम कदम पर कटघरे में खड़ा किया जाता। 
उनके तन पर हमने सदैव पुराने, बदरंग परिधान देखे और थाली में रूखे फुलके। मां के मन में उनके प्रति असंतोष का लावा निरंतर धधकता रहता, और वह उनके प्रति आक्रोशस्वरूप उनकी जरूरतों का तनिक भी ध्यान न रखतीं। बात बात पर उनसे उलझतीं। उनकी सीमित पगार से अपनी जरूरतों के पूरा न होने पर जहर उगलतीं। 
घर में आए दिन पैसों की किल्लत से चिक चिक होती।
वर्ष दर वर्ष यूं ही गुजरते गए।  
                  घर की बड़ी बेटी, नेहा दीदी उम्र के सत्ताईस बसंत पार कर चुकी थीं। कई जगह उनके रिश्ते की बात चली थी, लेकिन हर जगह दान-दहेज पर बात आकर अटक जाती थी।
एक दिन नेहा दीदी के कार्यालय में कार्यरत उनके अविवाहित बॉस शिशिर के घर से नेहा दीदी के लिए रिश्ता आया था। एक ही विभाग में साथ साथ कार्य करते शिशिर नेहा दीदी को पसंद करने लगे थे, और उनसे शादी करना चाहते थे। 
शिशिर की मां रिश्ता रोकने के दस्तूर के तौर पर दीदी को एक बड़े से हीरे की अंगूठी पहना गई थीं, और बाबूजी ने शगुन के रूप में पांच हजार एक रुपए शिशिर के हाथ में देते हुए रोके की रस्म पूरी कर दी थी।
घर भर में खुशियों के फूल खिल गए थे। 
 अगले रविवार को ही शिशिर के माता-पिता शादी की तारीख और अन्य व्यवस्थाओं आदि की बातें तय करने घर आए। शिशिर के पिता ने बाबूजी से कहा, “उपाध्यायजी, आपके दिए सुसंस्कारों की अनमोल थाती के साथ जब आपकी बेटी हमारे घर आएगी, हमारे घर में उजियारा हो जाएगा। हमें दहेज के नाम पर एक रुपया भी नहीं चाहिए। भगवान की दया से हमारे घर में किसी चीज़ की कमी नहीं। बस, हम चाहते हैं कि विवाह का प्रीतिभोज आप शहर के किसी भी पांच सितारा होटल में दें। हमें अपनी बहू के लिए हीरों का एक सैट जरूर चाहिए, और हम चाहते हैं कि आप उसे एक बड़ी कार भी दें। इसे दहेज मत समझिएगा। हम जिस समाज में रहते हैं, यह तो उसका चलन है।”
यह सब सुनकर बाबूजी का चेहरा घोर संताप से मलिन हो उठा, और तनिक लडख़ड़ाती जुबान से उन्होंने शिशिर के पिता से कहा, “शर्माजी, हमारे धन्य भाग्य कि आप जैसे ऊंचे खानदान के लोगों ने हमारी नेहा को अपने घर की लक्ष्मी बनाने के लिए चुना, लेकिन शर्माजी, मैंने ताज़िंदगी पूरी ईमानदारी से सरकारी नौकरी की है। मैं विवाह का प्रीतिभोज पांच सितारा होटल में किसी हाल में नहीं दे पाऊंगा। न ही बड़ी गाड़ी और हीरों का सैट दे पाऊंगा।”
इस पर जवाब में शर्माजी ने हाथ जोड़ते हुए पिताजी से कहा था, “उपाध्यायजी, अगर आप हमारे स्तर की शादी नहीं कर सकते तो बेहतर होगा हम यह संबंध करें ही नहीं। हम जिस समाज में रहते हैं, वहाँ ये चीज़ें सामान्य हैं। मुझे लग रहा है, हमारा आपका रिश्ता नहीं निभ  पाएगा। हमें क्षमा करें,” यह कहकर सभी मेहमान उठकर चले गए थे, लेकिन अपने साथ ले गए थे घर भर की खुशियां। 
               पूरे घर में मायूसी  छा गई और मां को एक मौका और मिल गया था बाबूजी को जलील करने का इस मुद्दे पर। “अब अपनी ईमानदारी से ही बेटी का ब्याह कर दो। कितना कहती थी मैं, घर आती लक्ष्मी को मत ठुकराओ, लेकिन तब तो तुम पर राजा हरिश्चंद बनने  का भूत चढ़ा हुआ था। आज को पास में पैसा होता तो यूं इस तरह से अपनी फ़ज़ीहत न होती। अब भुगतो अपनी करनी,” मेहमानों के जाने के बाद मां बाबूजी से चिल्ला चिल्ला कर खूब लड़ीं। 
 घर भर में बेहिसाब हताशा भरा सन्नाटा पसर गया।
               उस दिन रात को बाबूजी के कमरे में कुछ हलचल सुनकर मैं उठ बैठा। 
मैंने देखा, बाबूजी सुबकियां भर-भर कर रो रहे थे। मैंने उनकी पीठ सहला हिम्मत बंधाने की कोशिश की, “बाबूजी, आप इतना निराश क्यों हो रहे हैं। कोई न कोई लडक़ा मिलेगा ही दीदी के लिए, और फिर दीदी नौकरी तो कर ही रही हैं। सब ठीक हो जाएगा।”
बाबूजी ने कहा, “बेटा, नेहा का रिश्ता होते होते टूट गया। ईश्वर मुझे अपने उसूलों पर चलने की इतनी बड़ी सजा क्यों दे रहा है? क्या अपने सिद्धांतों पर चलना गलत है? जिंदगी भर संघर्ष करते-करते मैं थक गया हूं। अब तो इच्छा होती है, कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर मैं कहीं चला जाऊं।”
           मेरी वह पूरी रात आंखों ही आंखों में बीती। मैं बस यही सोचता रहा, कि क्या इस दुनिया में विधाता सबके साथ न्याय करता है?
                        तभी अगले दिन तो गाज गिर ही पड़ी थी। सेवानिवृत्ति के बाद से बाबूजी स्वतंत्र रूप से वकालत करने लगे थे। उस दिन बाबूजी ने नौ मुकदमे लड़े थे। शाम को कचहरी से वापस आते ही बाबूजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा, और डॉक्टर के आने से पहले ही बाबूजी हमें छोडक़र चले गए, अपनी अनंत यात्रा पर।
               बाबूजी की मृत्यु के महीने भर बाद ही हमारे साथ कुछ ऐसा घटा था कि हमारे पूरे परिवार का बाबूजी के बताए गए जीवन मूल्यों तथा आदर्शों पर विश्वास एक बार फिर पुख्ता हो आया था।            
                   पिताजी की मृत्यु की खबर सुनकर उनके अभिन्न मित्र अखिलेशजी घर आए थे। 
बाबूजी की तेरहवीं पर सभी मेहमानों के जाने के बाद उन्होंने मां से कहा, “भाभीजी यह मौका तो नहीं है नेहा बेटी के विवाह की बातें करने का, लेकिन फिर भी मैं सोचता हूं, कि अगर मैं यह बात आपसे अभी कर लूं तो सही रहेगा। मैं आपकी बेटी नेहा का हाथ अपने बेटे चिरंजीव के लिए मांगता हूं। वह अभी-अभी अमरीका से एमबीए करके लौटा है, और बहुत नामवर बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी कर रहा है। एक लाख रुपए मासिक तनख्वाह है उसकी। बस मुझे उसके लिए आपकी गुणी बेटी का हाथ चाहिए।”
अखिलेशजी की बात सुन कर मां का चेहरा आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से दमक उठा था, लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने अखिलेशजी से कहा, “भाईसाहब, हमारे अहोभाग्य कि आप नेहा को अपने घर की बहू बनाना चाहते हैं, लेकिन हम बहुत साधारण स्तर की शादी कर पाएंगे, मुश्किल से आठ-नौ लाख के बजट की। आप पहले ही  बता दीजिए, अगर आपकी कोई मांग हो तो।”
“अरे भाभीजी, हमें तो अपनी बहू सिर्फ एक साड़ी में एक रुपए के शगुन के साथ चाहिए।”
                                अखिलेशजी की बातें सुनकर घर भर में उछाह उमंग की लहर दौड़ गई। 
नियत वक्त पर नेहा दीदी और चिरंजीव का विवाह हो गया।
 बाबूजी को याद करते-करते मेरी आंखों की कोरें अनायास गीली हो आईं कि तभी मुझे हवा में तैरती मीठी सी भीनी भीनी सुगंध का अहसास  हुआ। 
मैंने कमरे का पर्दा हटाकर देखा, अगले कमरे में मां सिर झुकाए बाबूजी के फोटो के सामने अगरबत्तियां जलाकर रख रहीं थीं।
यह देखकर सीने में मानो बर्छी सी चुभ गई। 
जीते जी तो मां ने बाबूजी की कभी कदर नहीं की। हर वक्त उन्हें अपमानित, प्रताड़ित करने में कोई कसर कभी नहीं छोड़ी, तो आज क्यों उनके फोटो के सामने सिर झुकाकर अगरबत्तियां जला रहीं हैं?
बाबूजी के महाप्रयाण को आज वर्षों होने आए, लेकिन यह प्रश्न आज भी मेरे जेहन में उमड़-घुमड़ रहा है, और मुझे उसका जवाब आज तक नहीं मिल पाया है।
रेणु गुप्ता 
मौलिक
स्वरचित

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