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शह और मात

30 मार्च 2022

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“शादी वाले दिन मैं सुर्ख लाल रंग का जरी के काम वाला लंहगा पहनूँगी...बड़ी सी नथ ओर कानों में बड़े बड़े झुमके...गले में दादी वाला कुन्दन का नौलखा हार और हाथ भर छन छन करती हरी हरी चूड़ियाँ। मैं कितनी सुंदर लगूँगी,  है न पापा, फिर मेरा दूल्हा घोड़ी चढ़ कर मुझे अपने साथ ले जाएगा ...कितना मजा आएगा न पापा?  घोड़ी चलेगी टक बक टक बक...”       
                   बेटी का यह हृदय विदारक, अनर्गल प्रलाप सुन कर डाक्टर वर्मा का हृदय जार  जार रो रहा था। आंखे रेगिस्तान की भांति सूखी थीं, लेकिन अन्तर्मन में उठे हाहाकार का भीषण दावानल उनके सर्वांग को मानो भस्म किए दे रहा था। वह तन्वी की यह दयनीय हालत नहीं  देख पाये, और एक लंबी सांस ले भारी कदमों से उठ कर भीतर चले गए। 
                   उफ, क्या से क्या हो गया? तन्वी उनकी अति सुंदर, उच्च-शिक्षित, सर्वगुण सम्पन्न बेटी, मानसिक बीमारी ने उसकी क्या गत बना दी थी।
 कोमलांगी तन्वी मानो चाँद का टुकड़ा थी। चंपई रंग और तीखे, मोहक नाक नक्श। कहीं से भी निकलती, लोगों की नजरें उठ जाती। लेकिन आज उसकी क्या दुर्दशा हो गई थी। 
अभी कुछ अर्से पहले तक वह कितने खुश थे। 
तन्वी के आईएएस जैसी दुःसाध्य परीक्षा प्रथम बार में उतीर्ण करने पर वह  फूले न समाये थे । कितनी भव्य पार्टी दी थी उन्हौने शहर के सर्वश्रेष्ठ पाँच सितारा होटल में। गर्व से छाती चौड़ी हो गई थी उनकी। खुशी हृदय में समाये न समाये जा रही थी।
उनका मन विगत दिनों की खट्टीमीठी यादों के झूले पर पेंगे खा रहा था, लेकिन कैसी विडम्बना थी, बीते हुए खुशहाल दिनों  की मधुर स्मृतियाँ भी उनके अंतःस्थल में छाई गहन उदासी और नैराश्य का अंधकार मिटाने में असमर्थ थी। अच्छे दिनों की मधुर यादें  भी आज उनके टूटे हुए दिल में अशेष दुःखों का बवंडर उठा रही थीं। 
             उन्ही मीठी यादों में एक थी सुंदर, सुशिक्षित स्मिता के साथ उनका विवाह जिससे उनके जीवन को पूर्णता मिली। पत्नी स्मिता  ने उन्हें दो सुंदर, मेधावी बच्चों की सौगात दी, जिन्हें गोद में खिला कर उन्हे लगता उनका पितृत्य सार्थक हो गया। 
               कालचक्र अपनी ही गति से समय का अंतहीन मार्ग नापता गया। 
वक्त के साथ दोनों बच्चे बड़े हुए। बेटी तन्वी और बेटा अमन दोनों ही कुशाग्र थे। दोनों सदैव कक्षा में अव्वल आते। तन्वी ने स्कूल कालेज और यूनिवर्सिटी में उत्कृष्ट परिणाम देते हुए भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने का मानस बनाया, और कड़ा परिश्रम कर उसने यह दुष्कर प्रतिस्पर्धा उत्तीर्ण कर ली। 
डाक्टर वर्मा का सपना पूरा हुआ। 
                                       लेकिन तन्वी ने उन्हे जो सुख दिया, अमन वह उन्हे नहीं दे पाया। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि सदमार्ग से भटक गई थी।
 किशोरावस्था से ही वह बुरी संगति में पड़ शराब का आदी हो गया था। वह स्वयं अपनी डाक्टरी में इतने मसरूफ़ रहते कि समय रहते बेटे के भटकते कदमो का अंदाजा नहीं लगा पाये। पिता की बेशुमार दौलत ने उसके भटकाव को हवा दी थी।  और उम्र बढ्ने  के साथ साथ अमन गलत आदतों की दलदल में धँसता चला गया। जब उनको वास्तविक परिस्थिति का अहसास हुआ, बहुत देर हो चुकी थी और   अमन पूरी तरह से उनके हाथ से निकल चुका था। वह किसी तरह रो धो कर  मात्र बारहवी कक्षा उत्तीर्ण कर पाया था और दिन दिन भर अपने संगी साथियों के साथ शराब के नशे में चूर रहता। चाह कर भी अनेक प्रयासों के बावजूद वह अमन को सुधार कर सही रास्ते पर लाने में विफल रहे। 
                             उनके मायूस जीवन में आशा की कोई किरण थी, तो वह थी उनकी जान से प्यारी बेटी तन्वी जिसने आईएएस अफसर बन उनके पूरे कुल का नाम रौशन कर दिया था। 
               तन्वी ने आईएएस अफसर के तौर पर कार्य करना शुरू कर दिया था। शुरुआती दो तीन वर्ष उसने अत्यंत दक्षता से अपना काम किया, लेकिन नौकरी के तीसरे वर्ष में ही उसके जीवन को दुर्भाग्य का ग्रहण लग गया। 
उसे सिज़ोफ्रेनिया नामक गंभीर मानसिक बीमारी हो गयी, जिसके कारण वह यथार्थ का धरातल छोड़ अपनी ही बनाई सोची काल्पनिक दुनिया में विश्वास करने लगी। मानसिक रुग्णता के कारण उसे लगता मानो सारी दुनिया उसके विरुद्ध हो गई थी। इस अस्वस्थता के चलते सारे परिचित रिश्तेदार उसके शक के दायरे में आगए थे, और उसे भान होता मानो सबने उसे तंग करने का षडयंत्र रचा हुआ था। 
                    शुरुआत में आफिस में वह बहुत जल्दी जल्दी अपना मानसिक नियंत्रण खो अपने मातहतों पर क्रोधित होने लगी थी। अदम्य आवेश में वह अनर्गल इधर उधर की निरर्थक बातें बोलने लगती। और जब स्थिति नियंत्रण के बाहर होने लगी, आफिस के वरिष्ठ अधिकारियों ने पूरी जांच पड़ताल कर उसकी मानसिक व्याधि के बारे में अपनी स्वीकृति दे दी थी और उसे समय पूर्व सेवा निवृत कर दिया गया। 
                    परिस्थियों के इस त्रासद  मोड पर डाक्टर वर्मा के संताप की कोई सीमा नहीं  थी। वह समझ नहीं पा रहे थे कि ये सब उनके साथ ही क्यो हो रहा था? देश विदेश के अच्छे से अच्छे डाक्टर से उन्होने बेटी के इलाज के लिए परामर्श लिया, लेकिन सभी का एक मत से निर्णय था कि उसकी बीमारी पूरी तरह से लाइलाज थी और उसे अपनी व्याधि को नियंत्रण में रखने के लिए ताउम्र दवाइयां लेनी पड़ेगी।
                      एक तरफ शराबी बेटा, दूसरी ओर विक्षिप्त बेटी, उन दोनों को पल पल अपनी आंखों के सामने देखना डाक्टर वर्मा के लिए एक यंत्रणादायी सजा से कम नहीं था। 
घोर पीड़ा के उन क्षणों में वह जब जब  अपनी अभी तक की जिंदगी का लेखा जोखा लेते, तो पाते कि जवानी में धन संचय के जुनून में वह अपने अपनों के प्रति विकट अपराध कर बैठे थे। उनके प्रति किए गए अपने गुनाहों का भान कर वह घोर  अपराध भाव से भर उठते। 
 वह सोचते, क्या प्रारब्ध उन्हे उनके राहभ्रष्ट और रुग्ण बच्चों के रूप में उनके उन्ही गलत कर्मों का सिला दे रहा है?  
विगत जीवन की स्मृतियां उनके मानस पटल पर रह रह कर कौंध जातीं। 
          कभी उन्हे याद आता, कैसे उन्होने घर की सारी जमीन जायदाद पर अपना नियंत्रण रखने के लिए पिता को शराब की लत लगा दी थी।
 वह एक खेतिहर  जमींदार परिवार में जन्मे थे। पिता के पास कुल मिला कर लगभग पचास एकड़ जमीन थी, जो उनके पिता ने अपने जीते जी तीनों भाइयों और अपने मध्य बाँट दी थी। लेकिन उनका चिर असंतुष्ट, लालची मन महज अपने हिस्से की जमीन पाकर संतुष्ट नहीं हुआ था। उनकी नजर अपने भाइयों की जमीन पर भी थी। 
तीनों भाइयों में वह सबसे ज्यादा शिक्षित थे एवं पद और रुतबे में दोनों से ऊंचे। शुरुआत से ही उन्हे दिली चाहत थी कि वह तीनों भाइयों में हर मायने में सर्वश्रेष्ठ रहें, धन दौलत, पद रुतबा, यश, नाम, सभी पैमानों पर। इसी संकुचित, ईर्ष्यालु एवं स्वार्थी मनोवृति के चलते उन्होने मनु, अपने सबसे छोटे भाई को शिक्षा के वे अवसर नहीं दिये थे जो उन्होने तन्वी को दिये थे। 
उन्होने मनु को मेडिकल की  प्रवेश परीक्षा के लिए स्तरीय कोचिंग नहीं करवाई। मनु डाक्टर बनना चाहता था, लेकिन उपयुक्त कोचिंग के अभाव में वह मेडिकल की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाया और मन मसोस कर उसे अपना निजी व्यवसाय करना पड़ा। यथेष्ठ पैसा होते हुए भी व्यवसाय शुरू करने में उन्होने उसकी कोई आर्थिक मदद नहीं की थी। भाई के स्वार्थी स्वभाव का परिचय पा कर मनु उनसे दूर होता गया और अंततः सुदूर ओड़ीसा में बस गया।  इसलिए उसके हिस्से की जमीन की देखभाल का जिम्मा उसके ऊपर आ गया था। 

                       डाक्टरी के पेशे में रह कर उन्होने  अथाह दौलत कमाई। धन, दौलत, जमीन जायदाद की कमी न थी उनके पास। दोनों भाइयों, पिता से अधिक धन और संपत्ति थी उनके पास। लेकिन और अधिक की मृगमरीचिका के पीछे भागते हुए उनका लालच दिनों दिन परवान चढ़ता गया। पिता की जमीन हड़पने के उद्देश्य से पहले तो उन्होंने उन को नशे की आदत डाली। 
पहले उन को शराब की लत नहीं के बराबर थी। गाहे बगाहे खास मौकों और त्योहारों पर ही वह थोड़ी बहुत पी लेते थे, लेकिन अच्छे ब्रांड की उम्दा शराब उनकी कमजोरी थी। उन दिनों वह जानबूझ कर अपने पैसों से पिता के लिए रोज मंहगी शराब ला कर देते। जब भी वह उनके लिए बढ़िया दारू ला कर देते,  वो उसको खत्म किए बिना चैन न लेते। पिता की इस प्रवृति का फायदा उठाते हुए वह उनके लिए नियमित रूप से उनकी पसंदीदा शराब लाने लगे थे। इसलिए उन दिनों पिता उनकी लाई गई शराब के नशे में दिन रात मदहोश रहने लगे, जिसकी वजह से धीरे धीरे पिता के हाथों से जमीन जायदाद का नियंत्रण फिसल कर उनके हाथों में आता जा रहा था।
 अब परिवार के खेतों पर सम्पूर्ण कब्जे की राह में एकमात्र रोड़ा था उनका दूसरा भाई अनुज, जो उन्ही के कस्बे में रहता था।    
अनुज की पत्नी शीला बड़े शहर की लड़की थी, और तनिक खुले विचारों की थी। चरित्र की अच्छी थी, लेकिन उसे महिलाओं से अधिक पुरुषों की संगति भाती थी। अपने परिचय क्षेत्र के सभी पुरुषों से उसने कोई न कोई मुंहबोला रिश्ता बना रखा था। बहुधा वह घर के बाहर किसी न किसी पुरुष से हँसती बतियाती नजर आजाती, जिसकी वजह से वह कस्बे भर में लोगों की अनावश्यक चर्चा और उपहास का केन्द्रबिन्दु बन गई, लेकिन शीला को इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं थी। वह  अपने आप में केन्द्रित दृढ़ चरित्र की महिला थी। लोगों की तनिक परवाह न थी उसे। लेकिन यह सब अनुज, उसके पति को रास न था। वह बेहद शक्की प्रवृति का इंसान था और पत्नी के उन्मुक्त व्यवहार से बहुत त्रस्त रहा करता। शीला की  एक कालेज के जमाने के घनिष्ठ मित्र अर्जुन से भी अच्छी मित्रता थी, जो गाँव के संकीर्ण वातावरण में स्वस्थ ढंग से नहीं ली जा रही थी।
 एक दिन शीला अकेली अपने मायके से अपने घर बस से वापिस आरही थी, कि अचानक बस खराब हो गई थी। उसी बस से अर्जुन भी सफर कर रहा था। बस खराब होने पर दोनों ने पास के होटल में रात बिताई, और तड़के ही अर्जुन शीला को उसके घर छोड़ते  हुए अपने घर चला गया था। उस दिन के बाद से कस्बे में उसका नाम अर्जुन के साथ गलत दृष्टि से जोड़ा जाने लगा था। 
मुंह अंधेरे  शीला को अर्जुन के साथ आया देख कर अर्जुन के जेहन में  शक का बीज पड़  गया था, जिसने देखते ही देखते वटवृक्ष का रूप धारण कर लिया।
 उस दिन डाक्टर वर्मा   ने भी अनुज से तनिक गुस्से और रोष से कहा, “शीला अर्जुन के साथ होटल में रुकी, और उसके साथ घर आई, यह सही नहीं किया उसने। उसे अच्छी तरह समझा दो कि यह दोबारा न हो। हम एक बहुत छोटे कस्बे में रहते हैं। यहाँ हर किसी को, खास कर औरतों को अपनी मर्यादा में रहना होता है। नहीं तो इज्जत उतरने में एक सेकंड नहीं लगती। कैसे मर्द हो एक औरत को काबू में नहीं रख सकते?”
                           बड़े भाई के इस तुर्श उलाहने ने अनुज के मर्म छलनी कर दिया, और जब उसने शीला को इस बात के लिए आड़े हाथों लिया, शीला ने उसपर शक्की और संकुचित मानसिकता का ठप्पा लगाते हुए उसे खूब खरी खोटी सुनाई, “अर्जुन मेरा बहुत अच्छा मित्र है। बस खराब होने पर मैं अगर होटल मे उसके साथ रुक गई तो क्या गुनाह कर दिया मैंने?  हम दोनों अलग अलग कमरों में रुके थे। बस रात का खाना हमने साथ साथ एक टेबिल पर खाया था है । मुझे पता है कि मै कैसी हूँ। मुझे किसी और को सफाई देने कि जरूरत नहीं है, यहाँ तक कि तुम्हें भी नहीं।” 
                 स्थिति की सच्चाई और सहजता को नजरअंदाज़ करते हुए अनुज ने यह बात दिल पर ले ली। उसका शक्की दिमाग न जाने क्या क्या ऊल जलूल सोचने लगा। भाई की तल्ख आलोचना और कस्बे वालों की व्यंग भरी टीका टिप्पणी वह बर्दाश्त नहीं कर पाया, और एक दिन अत्यंत क्षुब्ध मनःस्थिति में उसने अत्महत्या कर ली। 
                  अनुज की आत्महत्या के बाद शीला का गाँव में रहना मुश्किल हो गया। डाक्टर वर्मा ने अपने कटु, बेरूखे व्यवहार से शीला की परेशानियों में इजाफा ही किया था। कमी कतई नहीं की। अंततः वह परिवार और समाज का निष्ठुर आलोचनात्मक रवैया और विरोध मजबूती से झेल पाने में असमर्थ रही और तंग आकर अपने मायके चली गयी। सुनने में आया, दो वर्ष बाद उसने पुनर्विवाह कर लिया। 
   पिता अब दिन रात शराब के नशे में धुत्त रहने लगे थे। शीला के पुनर्विवाह से ससुराल की संपत्ति पर उसका कोई हक न रहा था। इस तरह पिता और मनु के बाद उसकी राह से अनुज और शीला के कांटे भी दूर हो गए। 
अब जाकर डाक्टर वर्मा  के मन की मुराद पूरी हुई। पिता की सारी जमीन जायदाद का कब्जा उनके नियंत्रण में आ गया। 
अपना सोचा पूरा हो जाने पर डाक्टर साहब अत्यंत खुश थे।
        लेकिन प्रकृति बुरे कर्मों का प्रतिशोध अपने ही ढंग से लेती है। दूसरे के लिए खोदे गए गड्ढे में अगर इंसान स्वयं न गिरे, तो यह प्रारब्ध के सिद्धांत के विरुद्ध होगा।
 नियति ने चुन चुन कर उनके कर्मों का हिसाब लिया था। बेटी का मानसिक संतुलन डगमगाया, और बेटे को शराब की लत लगी। एक दिन उनकी पत्नी ने उन्हे बताया था कि उनके बेटे को रोज शराब पीने की आदत स्वयं उनके द्वारा पिता के लिए लाई गई शराब से पड़ी थी। पत्नी ने किशोर बेटे को स्वयं कई बार पति द्वारा पिता के लिए लाई गई शराब की बोतल से शराब पीते देखा था, लेकिन चिड़िया खेत चुग उड़ चुकी थी। अब बहुत देर हो चुकी थी। 
               आज डाक्टर वर्मा  शायद कस्बे के सबसे रईस,  वैभवशाली, जमींदार थे। क्या नहीं था उनके पास। जमीन जायदाद, सोना चाँदी,  हीरे,  सब कुछ बेशुमार तो था उनके पास। जिंदगी की बिसात पर उन्होने अभी तक हर किसी को शिकस्त दी थी, पिता, भाइयों, और स्वयं प्रकृति को।
 लेकिन स्वयं उनके बेटे और बेटी के त्रासद यथार्थ ने उनकी शह को मात में बदल दिया था, और उन्हें रास्ते का भिखारी बना दिया था। 
आज सब कुछ होते हुए भी क्या उनकी झोली नितांत खाली नहीं थी?
घोर पश्चाताप की  दो बूंदें  उनकी आँखों से ढुलक पड़ीं। 
रेणु गुप्ता 
मौलिक
यह कहानी राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका मधुमती में अप्रेल, 2018 में प्रकाशित हो चुकी है।

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बहुत बढ़िया रचना। मन भावुक हो उठा...🙏💮🌸

30 मार्च 2022

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