सुबह पाँच बजे शुरु हुई दिनचर्या के पहले पड़ाव को पार करने के बाद सरिता ने गहरी सांस ली। स्नान-ध्यान के साथ हुई दिन की सधी शुरुआत के बाद स्कूल जाने वाले दो बच्चों और दफ्तर निकलने को हरदम हङबङी मचाते तीन बड़ों के टिफिन, ससुर जी का चाय नाश्ता और घर के दूसरे छोटे-मोटे काम खत्म कर उसने जैसे किसी बड़े प्रोजेक्ट का एक अहम भाग निपटा दिया हो। हर दिन की भागमभाग में दो पल का यह ठहराव भी उसे बहुत चैन देता है। सुनो ना मम्मा! बहू जरा इधर तो आना। अरे भाभी कहां-कहां रख देती हो चीज़ों को आप भी? हर ओर गूंजते ऐसे प्रश्नों, शिकायतों और आदेशों के बीच स्वयं कुछ ना खोज पाने वाले बच्चों और बड़ों का 'आपको कुछ पता भी रहता है?' जैसा प्रश्न सरिता को मुस्कुरा कर रह जाने से अधिक कुछ करने का अवसर ही नहीं देत।
आज भी बच्चों को स्कूल भेज कर वह भागती सी सासू मां के कमरे में पहुंची। खाली पेट लेने वाली दवा उनकी हथेली पर रखते हुए धीमी स्वर में पूछा, 'कैसा लग रहा है मां? नाश्ते में क्या लेंगी?' बीमारी के चलते तीन महीने से बिस्तर पकड़े सासू मां ने उसके हाथ से पानी का गिलास लिया और गोली गटकते हुए मन की बात उगल दी। 'कल छोटी बहू आई थी मेरे पास' कहते हुए उनका स्वर संयत था पर चेहरे पर उलाहनों की स्याह छाया स्पष्ट दिख रही थी। 'जी, मां जी' कहते हुए सरिता ने उनके हाथ से खाली गिलास लिया और मन ही मन सोचा- तीन महीने में तीसरी बार आपके कमरे में आई है मेरी देवरानी। पहले दो बार तो टिफिन तैयार करने में देरी और धोबी को समय पर उसके कपड़े प्रेस करने को नहीं दे पाने की शिकायत लेकर ही आई थी। इस बार क्या कारण होगा? उसकी सोच का सिरा अचानक टूटा जब सासू मां के शब्दों में थोड़ी कठोरता उतर आई और वे बोलीं, 'दो दिन पहले छोटी बहु के दफ्तर से देर से लौटने पर तुमने खाना गरम करके नहीं दिया? ऊपर से अगली सुबह उसने कुछ कहा तो तुमने भी कुछ कह सुनाया।' सासू मां ने दो बच्चों की मां, सरिता को ऐसे फटकारा जैसे किसी छोटी बच्ची को कुछ कहा जा रहा हो। 'अरे क्या हुआ जो कुछ कह दिया तुम्हें छोटी बहु ने? दिनभर दफ्तर के काम में जुटी रहती है। कभी अपने बॉस के आदेश सुनो कभी जूनियर्स को निर्देश दो। आसान ऑफिस की भागदौड़? फिर तुमसे छोटी भी है, शांति से कुछ सुन लोगी तो क्या चला जायेगा? पैसा कमाना आसान काम है क्या?' इतना कह उन्होंने थकान महसूस करने के हावभाव संग आराम करने की मुद्रा में दीवार पर सिर टिकाकर आंखे बन्द कर ली।
बिना कुछ कहे विचलित मन को थामती सरिता अपने कमरे में आ गई। आए दिन होने वाला यह बर्तावउसके लिए अब दु:ख नहीं दुर्भाव का मामला बन गया था। सासू मां ने आज भी हमेशा की तरह मोटा वेतन कमाने वाली देवरानी का ही पक्ष लिया। उसकी सेवा-सुश्रुसा और आपाधापी पहले भी अनदेखी थी, आज भी उपेक्षित ही रही। मन ही मन सोच रही थी कि दिनभर काम में जुटे रहने की भागदौड़ तो उसके हिस्से भी कम नहीं। उसके लिए तो बड़ों के निर्देश ही नहीं छोटों के आदेश भी अधिकारपूर्वक दी गई हिदायतों से ही है। हां, पैसा कमाना आसान नहीं तो पैसा बचाना भी सरल कहां है? छोटी कमा रही है तो वह भी तो पाई-पाई बचा रही है। यह क्यों नहीं दिखता उसके अपनों को? उसकी व्यस्तता नजर क्यों नहीं आती?
अचानक भर आई आंखों को पौंछते हुए मन ही मन बुदबुदाई 'उसके काम का कोई मोल ही नहीं तो फिर क्यों सासू मां की देखभाल के लिए आई नर्स का दो दिन बाद ही हिसाब कर दिया गया? क्यों बीते दो साल से बच्चों को ट्यूशन भेजने के बजाए उसे एक पढ़ी-लिखी मां होने का हवाला देकर यह जिम्मा थी सौंप दिया? भागते-दौड़ते इन सभी दायित्वों को निभाते हुए कभी खाने बनाने में देरी हुई तो कुक न रखने के मामले में भी सब एकमत ही दिखे। वजह हर बार, हर काम के लिए एक ही कि 'कुछ काम अपने ही बेहतर कर सकते हैं।' क्या सचमुच अपनेपन के खोल में कोई आर्थिक कारण नहीं छुपा? कमाई का मौन आंकने वाले किफायत के मायने नहीं समझते?'
मन के प्रश्नों और जीवन की परिस्थितियों के भंवर में डूबती-उतरती उसकी उनिंदी आंखें बंद होने को ही थीं कि ससुर जी ने आवाज़ लगाई, 'अरे बहू सुनती हो?' तो वह अचानक उठ बैठी। स्वयं को संयत कर घरेलू कामकाजी मोर्चे पर डटने के नए निर्देश लेने आंगन की ओर चल पड़ी।