पुरुष और प्रकृति -ये दो हैं ।जिसमे से पुरुष परिवर्तनशील नहीं होता और प्रकृति परिवर्तनशील होती है।जब पुरुष प्रकृति के साथ संबंध जोड़ता है तब प्रकृति की
'क्रिया' पुरुष का 'कर्म' बन जाती है।प्रकृतिक क्रियायों से पुरुष की ममता रहती है,इससे जो भी परिवर्तनशील क्रिया रहती है वो 'कर्म' कहलाती है।
जब प्राकृतिक क्रियायों से पुरुष की ममता टूट जाती है तो वही 'कर्म' पुरुष के लिए 'अकर्म' हो जाता है।
कर्म तीन तरह के होते हैं -क्रियमाण,संचित,और प्रारब्ध।वर्तमान मे किए गए कर्म क्रियमाण ,वर्तमान से पहले के किए गए कर्म 'संचित' और संचित मे से जो कर्म फल देने के लिए उन्मुख होते हैं वो 'प्रारब्ध' कर्म कहलाते हैं।
क्रियमाण कर्म दो तरह के होते है-शुभ और अशुभ।शास्त्रानुसार किए गए कर्म शुभ और काम,क्रोध,लोभ,आसक्ति आदि को लेकर जो कर्म किए जाते है वो अशुभ कर्म कहलाते हैं।शुभ और अशुभ कर्मो के दो परिणाम-फल और संस्कार है।फल और संस्कार के दो भेद है शुद्ध और अशुद्ध। क्रियमाण कर्म का महत्व अधिक होता है ,शास्त्रों के नीति और नियम के अनुशार किए गए कर्म से शुद्ध फल और शुद्ध संस्कार की प्राप्ति होती है।
कर्म रहस्य"(2)
अनेक जन्मो मे किए हुए जो कर्म अन्तः करण मे संग्रहीत रहते है,वे संचित कर्म कहलाते है।इसके दो परिणाम फल-अंश और संस्कार-अंश है।जिसमे फल-अंश से 'प्रारब्ध' बनता है और संस्कार अंश से 'स्फुरणा' होती है।स्फुरनावों मे कभी-कभी वर्तमान मे किए हुए कर्मो की भी स्फुरणा हो जाती है।
स्फुरणा--नींद मे जाग्रत अवस्था के दब जाने से संचित कर्मो की स्फुरणा स्वप्न रूप से दिख जाती है,उसी को स्वप्नावस्था कहते हैं।स्वप्ना अवस्था मे बुद्धि की सावधानी न रहनेसे क्रम,व्यतिक्रम,और अनुक्रम ये नहीं रहते।
जाग्रत अवस्था मे हर एक मनुष्य के मन में अनेक तरह की स्फुर्णाए होती रहती हैं ।जब जाग्रत अवस्था मे शरीर,इंद्रियाँ और मन से बुद्धि का अधिकार हट जाता है ,तब मनुष्य जैसा मन मे आता है वैसा बोलने लगता है।
कर्म रहस्य(3)
प्रारब्ध कर्म---("प्रकर्षेण आरब्धः प्रारब्धः" अर्थात अच्छी तरह से फल देने के लिए जिसका आरंभ हो चुका है,वह प्रारब्ध है)
संचित मे से जो कर्म फल देने के लिए उन्मुख होते है ,उन कर्मो को प्रारब्ध कर्म कहते हैं।प्रारब्ध कर्मो का फल अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के रूप मे सामने आता है;परंतु उन प्रारब्ध कर्मो को भोगने के लिए प्राणियों की प्रवृत्ति तीन प्रकार की होती है-1स्वेच्छा पूर्वक,2.अनिच्छा पूर्वक ,3.परेच्छा पूर्वक ।
कर्मो का फल 'कर्म' नही होता,प्रत्युत 'परिस्थिति' होती है अर्थात प्रारब्ध कर्मो का फल परिस्थिति रूप से सामने आता है। प्रारब्ध कर्मो से मिलने वाले फल के दो भेद होते है-'प्राप्त फल' और 'अप्राप्त फल'। वर्तमान काल मे सबके सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आती है उसे 'प्राप्त फल' और जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य मे आने वाली है वो "अप्राप्त फल' कही जाती है।
क्रियमाण कर्मो का जो फल -अंश संचित मे रहता है,वही प्रारब्ध बनकर अनुकूल,प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थिति के रूप मे बनकर मनुष्य के सामने आता है।अतः जबतक संचित कर्म रहते है, तब तक प्रारब्ध बनता ही रहता है और प्रारब्ध परिस्थिति के रूप मे परिणत होता ही रहता है।
पंडित अमर नाथ.