गंगा
गंगा अपने ही रंग में बह रही थी।
गंगा अपने ही ढंग में रमी हुई थी।
कितनी सहमी और खुद में ही खोई हुई थी मेरी गंगा।
समय के साथ अपने ही सफेद रंग में रंगी हुई थी मेरी गंगा।
क्या पता था जिसने गंगा को थामा था उसने अपने ही रंग में रंग दिया मेरी गंगा को।
बहते बहते अब थक सी गई है ये मेरी गंगा।
सबको सजोते सजोते अब बेरंग सी हो गई है ये मेरी गंगा।
इतने बड़े परिवार को सीचते सींचते अब खोखली सी हो गई है ये मेरी गंगा।
हर एक की ख्वाइश पूरी करते करते अब सुख सी गई है ये मेरी गंगा।
बस करो अब थोड़ा सा थम जाओ खुद और थम जाने दो , खुद में फिर से खो जाने दो ,
अब तो उसको फिर से गंगा बन जाने दो।
बहने दो फिर से , पा जाने दो फिर से वो खुशनुमा सफेद रंग ।
फिर से हमे जी लेने दो और लबों को कह लेने दो ये हैं मेरी गंगा, ये हैं मेरी गंगा।
निखिल श्रीवास्तव