कबाड़ी...
काफी रईस हो गया है,
जिसे कुछ बरस पहले
मेरे घर का तमाम कबाड़
किसी ने बेचा था.
ये कहकर कि ले लो;
ये काफी क़ीमती सामान है.
आज भी बड़ी हसरत से
तकता है मेरे घर को I
सुना है...
कॉपी-किताबों के पैसे
ठीक दिए थे उसने;
फटे पुराने कागज़ों को
मुफ्त ले गया था.
उन्हीं में मेरी चंद नज़्में,
चंद ग़ज़लें थीं.
किताबों में कुछ
सूखे फूल...
कुछ पुराने ख़तूत थे.
जानी-पहचानी खुशबुएँ,
और कुछ लम्स,
बिन दाम दिये ले गया था वो.
कापी-किताबें तो
फिर नहीं बिकी होंगी शायद,
मगर, वो सूखे फूल,
पुराने ख़तूत, चंद यादें,
उनमें लिपटे तमाम वायदे
खुशबुएँ और लम्स...
उसके काफी मंहगे बिके होंगे I
सुना है पहले...
किराए के कमरे में रहता था,
अब ख़ुद के मकान में रहता है