दरवाज़ों के
कानों से बंधे
बन्दनवारों के
झुनझुने...
बजने लगे हैं I
ताल-तलैया,
जीभ निकाले
बदरा ताड़ने लगे हैं.
अँगौछे,
बैसाखी मुस्की
झाड़ने लगे हैं I
अम्बुआ पर
नए बौर आने लगे हैं,
बाबा की बंडी में
रेज़गारियां
खनकने लगीं,
बरफ़ के गोलों के गुब्बारे
बच्चों को बुलाने लगे हैं I
पछुआ बयार
मिटटी के कांधों को
दबाने लगी है,
नए बीज...
तही में सुलाने को,
दरारें बनाने लगी है.
बैलों के गले में बंधी
रंग-बिरंगी घंटियों की
लोकधुन दब गयी,
ट्रैक्टरों, मोटरों की
घुर्र-घटर आने लगी है I
गावों ने भी बहुत
तरक्की कर ली,
कल तक इमारतें
खाती थीं...
जिन खेतों का उगा,
अब इमारतें
वही खेत खाने लगी हैं I