राह कठिन है
सेवा की ये,
पांवों में
पड़ जाते हैं छाले,
परिचारिका देखती
रोगी को ऐसे,
जैसे बच्चे को
कोई माँ पाले I
नहीं चाहिए
नाम और यश,
ना ही दुनिया की
कोई धन दौलत,
मान-सम्मान ही
इनकी पूंजी
इनके दम पर
रोगी उठ बैठे,
इनके बलबूते
अस्पताल की रौनक I
(विश्व परिचारिका दिवस)
दर्द मिटाते,विश्वाश जगाते।
निस्वार्थ भाव से सेवा करते।
रोते रोगी को हँसाते।
सच है अगर परिचारक न हों तो रोगी सिर्फ डॉक्टर से सही नहीं हो सकते।
सुन्दर रचना।।आभार