शिक्षा हमारे भीतर आंतरिक प्रतिभा, ज्ञान एवं मूल्यों का संवर्धन करती है| परन्तु वर्तमान समय में, शिक्षा केवल व्यवसायीकरण का माध्यम बनी हुई है| शिक्षा भौतिक जरूरतें पूरी करने के साथ-साथ इंसान को बौद्धिक, नैतिक तथा आत्मिक मूल्यों की पहचान करवाती है और मनुष्य के सर्वांगीण विकास में सहायक होती है|
परन्तु, दुर्भाग्यवश आज के दौर में शिक्षा दिखावे का माध्यम तथा जीवोकोपार्जन एवं व्यवसायीकरण का जरिया बन चुकी है| व्यवसायिक शिक्षा ने निश्चय ही कुशल और बुद्धिमान विद्यार्थियों की फौज खड़ी कर दी है| परन्तु इसका एक और पहलु निराशाजनक एवं चुनौती पूर्ण है| जो प्रतिभाशाली छात्र उच्च शिक्षण संस्थानों से निकल रहें है यदि उनके अन्दर झाँका जाएँ जीवन मूल्यों, समाज एवं राष्ट्र के प्रति उदासीनता ही दिखाई देगी| इन छात्रों का स्वयं के अन्दर छिपी हुई प्रतिभाओं के प्रति मूल्यांकन और उसका नियोजन नहीं के बराबर है बस हाथ में है निराशा और हताशा का पर्याय बन चुकी कुछ डिग्रियां|
ब्रिटिश इतिहासकार एवं शिक्षाविद, जी. एम् . ट्रेवेल्यन के अनुसार, "शिक्षा ने ऐसी बहुत बड़ी आबादी पैदा की है जो पढ़ तो सकती है पर ये नहीं पहचान सकती की क्या पढने लायक है।"
वर्तमान शिक्षापद्धति में परोसी गयी शिक्षा केवल बौद्धिक स्तर तक सीमित है, इससे हमारे अंदर दबी हुई क्षमताओं का जागरण संभव नहीं है| वर्तमान शिक्षा पद्धति में, विद्या का होना नितांत आवश्यक है जो विद्यार्थियों के अन्दर सुसंस्कार एवं मूल्यों का विकास करें| आज हमें इसी शिक्षा को अपनाने की आवश्यकता है|